भागवतवाद क्या है | गीता का आध्यात्मिक ज्ञान | भागवत् दर्शन क्या है | Bhagvat Vaad Kya Hai
भागवतवाद क्या है
गीता का आध्यात्मिक ज्ञान भागवत् दर्शन क्या है
भागवतवाद
भागवतवाद क्या है
- ब्राह्मणवाद और उसके कर्मकाण्डी विधियों के प्रतिरोध में एक प्रतिक्रिया उत्तर वैदिक काल के अंत में उत्पन्न होती है। लगभग छठी शताब्दी ईसापूर्व से अनेक धार्मिक एवं समाज सुधारक आन्दोलन आरम्भ होते हैं, जो ब्राह्मण के कट्टरपन, पशुबलि और कर्मकाण्ड का विरोध कर रहे थे। ऐसे धर्मों में से एक भागवत धर्म था ।
- लेकिन अन्य नास्तिक धर्मों की ही तरह यह धर्म अपने अस्तित्व को बनाये नहीं रख सका और शीघ्र ही ब्राह्मणवाद का एक अंग बन गया। लेकिन ब्राह्मणवाद में मिल जाने के बावजूद भागवत धर्म ने ब्राह्मणवाद को बहुत हद तक प्रभावित किया।
- विशेषकर ब्राह्मणवाद को अनेक बेकार रीति-रिवाजों से मुक्त किया विशेषकर पशुबलि से इस क्रम से ब्राह्मणवाद की प्रकृति ही बदल गयी और ब्राह्मणवाद धीरे-धीरे भक्ति एवं पूजा पर आधारित हिन्दू धर्म में बदलने लगा।
- वास्तव में भागवत धर्म एक और बड़े हिन्दू धर्म वैष्णवधर्म के विकास का प्रारम्भिक भाग है, वैष्णवधर्म विष्णु पूजा पर आधारित है लेकिन वैष्णव धर्म का मूल आधार स्वयं ऋग्वेद में ही पाया जाता है। परन्तु इस प्राचीन युग में विष्णु एक महत्त्वहीन देवता था केवल सूर्य के रूप में और वैदिक काल एक ऐसा काल था जब एक शारीरिक रूप धारण किये देवता की पूजा या उसके प्रति भक्ति नहीं दिखायी जाती थी।
- भक्ति प्रथा प्रचलित होने का सबसे प्रारम्भिक प्रयास हमें पाणिनि के अष्टम अध्याय में मिलता है जो पांचवीं शताब्दी ईसापूर्व की एक व्याकरण पुस्तक है। इस पुस्तक के वासुदेवकः शब्द का अर्थ एक वैसे व्यक्ति से लिया जाता है जो वासुदेव का भक्त हो।
- चौथी शताब्दी ईसा पूर्व का भी एक प्रमाण है जिससे पता चलता है कि वासुदेव की पूजा होनी आरम्भ हो गयी थी। यह बात मेगास्थनीज द्वारा सिद्ध होती है जो यह बताता है कि मथुरा क्षेत्र के लोग हेराकुलिस का विशेष आदर करते थे। हेराकुलिस वासुदेव कृष्ण की यूनानी संज्ञा बताया गया है।
- इस बात में कोई संकोच नहीं कि वासुदेव कृष्ण एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। वासुदेव के पिता वसुदेव थे। वासुदेव के पिता यादव वंश के वृष्णि या सत्वत् शाखा के स्वामी थे। वासुदेव कृष्ण इस वंश के एक महान नायक हुए। इन्होंने एक समकालीन धर्म आन्दोलन का नेतृत्व किया और अपने जीवन काल में ही एक देवता का अस्तित्व प्राप्त किया। इन्हें भागवत की संज्ञा दी गई जिसका अर्थ होता है एक ऐसा व्यक्ति जिसके प्रति भक्ति दिखायी जाये। ऐसा ज्ञात होता है कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक एक देवता के रूप में इन्हें पूजा जाने लगा था। यह बात हेलिओडोरस के वैसे नगर स्तम्भ लेख से सिद्ध हो जाती है जिसमें हेलिओडोरस को वासुदेव के उपासक के रूप में प्रकट किया गया।
- कृष्ण के जीवन पर छांदोग्य उपनिषद् भी प्रकाश डालती है। कृष्ण को इस उपनिषद् में देवकी का पुत्र और ऋषि घोर का शिष्य बताया गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि कृष्ण पर इस ऋषि का प्रभाव पड़ा था; विशेषकर भक्ति धर्म का कृष्ण और उनके शिक्षक सूर्य के प्रति भक्ति दिखाने में विश्वास रखते थे और इस समय सूर्य विष्णु के रूप में पूजे जाने लगे थे।
- कृष्ण का धार्मिक दर्शन जो स्पष्ट रूप में गीता में प्रगट होता है ऋषि घोर पशुबलि इत्यादि का खण्डन करते थे और एक चमकते हुए रूप पर ध्यान लगाने में विश्वास रखते थे, यद्यपि घोर के विचारों प्रभावित लगता है, क्योंकि ऋषि घोर के इस उपदेश का प्रभाव गीता का मूल आधार बन गया। इस धार्मिक पुस्तक में अन्य दार्शनिक बातें पायी जाती हैं जो घोर और कृष्ण के बाद उनके उपासकों द्वारा इसमें जोड़ी गयीं। अतः भागवत धर्म जिस प्रकार वासुदेव कृष्ण ने प्रसारित किया, बाद में वैष्णव धर्म का आधार बन गया। सम्भवतः यह धर्म सूर्य पूजा का ही विकास था।
- धीरे-धीरे कृष्ण के व्यक्तित्व से सम्बन्धित अनेक रोचक कहानियाँ बन गयीं जिसमें उनकी बाल्यावस्था और रासलीला सर्वप्रसिद्ध है। साथ ही साथ उन्हें एक चरवाहा के रूप में दिखाया गया। चरवाहे के रूप में उन्हें सम्भवतः पुराणों में इसलिये दिखया गया है कि ऋग्वेद में और अन्य वैदिक कथाओं में विष्णु (जिसके अवतार कृष्ण थे) को गोप कहा गया है या मवेशी के रक्षक।
- एक दूसरे कारण से भी सम्भवतः इन्हे चरवाहे के रूप में दर्शया गया है। मथुरा क्षेत्र जिससे कृष्ण का घनिष्ठ सम्बन्ध है अपने मवेशियों के लिये वैदिक युग से ही प्रसिद्ध रहा।
- तैत्तिरीय संहिता में तो गोबाल नामक एक धार्मिक शिक्षक का नाम भी मिलता है और जिसे मथुरा के वृष्णि परिवार का बताया जाता है। लेकिन कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित बहुत सारी छोटी-छोटी कथाएं उस समय के कुछ कबीलों के देवताओं की कथाओं से लिया गया है।
- वासुदेव कृष्ण किस काल में थे यह निर्धारित करना कुछ कठिन है लेकिन छान्दोग्य उपनिषद् के आधार पर इन्हें सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व और छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच का बताया जाता है। ऐसा ज्ञात होता है कि भागवत धर्म का आरम्भ तब होता है जब सन्त वासुदेव कृष्ण को वैदिक देवता विष्णु का ही एक रूप या अवतार माना जाने लगा। यह क्रम भागवत गीता की रचना होने के समय तक समाप्त हो चुका था और भागवत धर्म वैष्णव धर्म के नाम से भी जाना जाता था। यह सुझाव दिया गया है कि शायद वासुदेव कृष्ण को विष्णु का अवतार जान-बूझकर ब्राह्मणों ने माना ताकि इस नये लोकप्रिय धर्म का प्रभाव कम हो जाये और वैदिक धर्म का एक अंग बन जाये।
- शतपथ ब्राह्मण एवं बौधायन धर्मसूत्र से यह पता चलता है कि इस समय एक और महान ऋषि थे, जिनका नाम था नारायण और जो बाद में कृष्ण का ही एक रूप समझे गये क्योंकि यह भी सूर्यपूजा को प्रोत्साहन देते थे।
- सम्भवतः (नारायण) इनका दूसरा नाम हरि था और महाभारत में एक अति शक्तिशाली भगवान माने गये। आरम्भ में देव के समान ऋषि नारायण के मानने वाले पंचरात्रिक कहे जाते थे। किंतु ऐसा लगता है कि बाद में चलकर पंचरात्रिक भागवत धर्म के उपासकों से मिल-जुल गये और वासुदेव कृष्ण की ही पूजा करने लगे; क्योंकि वासुदेव कृष्ण और नारायण दोनों ही सूर्यपूजा करते थे और विष्णु के अवतार माने जाते थे। इसलिए वासुदेव कृष्ण, विष्णु नारायण सब एक ही समझे जाने लगे।
- भागवत धर्म, जिसकी उत्पत्ति मथुरा के यादव लोगों के बीच हुई धीरे-धीरे पश्चिम भारत की ओर फैल गया जब अनेक यादव कबीले उस दिशा में स्थानान्तर करने लगे। संत वासुदेव कृष्ण को सम्पूर्ण रूप से भगवान का अस्तित्व प्राप्त करने में कुछ शताब्दियाँ बीत गयीं और इन्हें पूरी तरह विष्णु का अवतार और इनकी मूर्तिपूजा पहली शताब्दी ई. से ही सम्भवतः आरम्भ हुई।
- यहाँ तक कि गीता में भी वासुदेव कृष्ण को एक ऐसे भगवान के रूप में नहीं दिखाया गया है, जो सम्पूर्ण ढंग से प्रभावकारी हो और जिससे गलती हो ही नहीं सकती।
भागवत् दर्शनभागवत् दर्शन क्या है
- भागवत् दर्शन का सर्वोत्तम उदाहरण भागवत गीता में मिलता है, जिसे प्रथम या द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का बताया जाता है। भागवत धर्म का मूल तत्व कर्मयोग का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का सबसे अच्छा उदाहरण अर्जुन के संकोच में मिलता है जब अर्जुन अपने कर्त्तव्य से भाग रहे थे। कर्मयोग एक ऐसा सिद्धान्त है जिसमें कर्म करना या कर्त्तव्य का पालन करना आवश्यक है; यद्यपि कर्म के फल से लगाव रखना या उसकी इच्छा करना निषेध है।
- योग मस्तिष्क का ऐसा संतुलन है जिसमें स्वार्थ की कोई गुंजाइश नहीं और कर्म के फल का कोई लोभ नहीं। योग से लाभ यह है कि एक कर्मयोगी सदैव सही कर्म को पहचानेगा और उसे करेगा तथा अपने कर्म को कार्यान्वित करने में एवं कर्त्तव्य का पालन करने में हद से आगे नहीं बढ़ेगा। दूसरे शब्दों में उसका कर्म सही मात्रा में होगा क्योंकि कर्म के फल के लोभ में ही एक व्यक्ति अपने कर्त्तव्य की सीमा से आगे बढ़ जाता है, जिससे मोक्ष प्राप्ति में उसे बाधा उत्पन्न होती है इसलिए यह कहा जा सकता है कि गीता निवृत्ति और प्रवृत्ति के बीच का एक रास्ता अपनाती है जो मोक्ष प्राप्ति का स्वर्ण साधन है।
- गीता के अनुसार कर्म या कर्त्तव्य करते हुए भी फल को त्यागना सम्भव है। गीता के अनुसार कर्म अपने आप में एक बन्धन या बाधा नहीं है, जो मोक्ष प्राप्ति से रोकता है क्योंकि एक कट्टर संन्यासी भी अपने जीवन के सभी कर्म को नहीं रोक सकता। जब तक वह जीवित है तब तक उसकी श्वांस तो चलती रहेगी और गीता के अनुसार श्वांस लेना भी एक कर्म है। इसलिए कर्म अपने आप में खराब नहीं है वरन् कर्म के फल का लोभ करना ही सबसे बड़ा दोष और सभी बुराई की जड़ है। इसलिए कर्म करते हुए संन्यास अपनाना गीता का बताया हुआ स्वयं मार्ग है। लेकिन ऐसा हो सकता है कि प्रेरणा के अभाव से आदमी अपने कर्त्तव्य को पूरी तरह नहीं निभाये और बिल्कुल ही निकम्मा हो जाये।
- गीता ऐसी परिस्थिति की सम्भावना से पूरी तरह अवगत है। इसलिये कर्म को दो प्रकार की प्रेरणा बताती है जो एक कर्मयोगी को सही राह पर रख सकती है।
- पहली प्रेरणा ज्ञानमार्गियों के लिये है जिसका लक्ष्य आत्मशुद्धि और आत्मा को पहचानना है, जिसके द्वारा आत्मा ब्रह्म से मिलकर एक हो जा सकती है। अतएव भिन्न-भिन्न कर्मों के लिये भिन्न-भिन्न प्रेरणा या लक्ष्य नहीं बताये गये हैं। वरन् सभी कर्मों का एक ही लक्ष्य बताया गया है और वह ब्रह्म से मिलकर एक हो जाना।
- दूसरा लक्ष्य जो भक्तों के लिये है वह यह कि कर्मयोगियों को सभी कर्म ईश्वर की सेवा में करना चाहिए और ऐसे सभी कर्मों के फल ईश्वर के लिये होने चाहिए। ऐसी प्रेरणा का लक्ष्य ईश्वर से सम्पूर्ण सम्पर्क स्थापित करना है। कर्मयोगी के ये दोनों ही मार्ग का अन्त परिणाम या अंतिम लक्ष्य ईश्वर के सम्पर्क में आकर एक शांतिमय एवं पूर्ण दशा को प्राप्त करना है।
गीता का अध्यात्म
गीता का आध्यात्मिक ज्ञान
- गीता एक अमर और अपरिवर्तनशील गुण एवं परिवर्तनशील और नश्वर गुण में स्पष्ट अन्तर मानती है जो अंतिम सत्य है। वह परिवर्तनशील प्रकृति नहीं है। वह है एक अनन्त जीव जो हर एक चीज के भीतर निवास करता है और इसलिए यह भौतिक चीजों से अलग नहीं है वरन् उनका मूल आधार है और उनमें जान डालता है। ।
- शुद्ध ब्रह्म या परमात्मा सदा से है और सदा रहेगा लेकिन उसका भौतिक रूप या जो प्रकृति है वह सदैव क्षण-क्षण में बदलती रहती है। वह ज्ञान हमें बाहरी दुनिया को देखने से प्राप्त होता है। अपनी व्यक्तिगत विवेचना से जब हम स्वयं अपने आप को पहचानते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कुछ चीजें हमारे शरीर के विनाश हो जाने के बाद भी रह जाती है।
- यही है आत्मा जो न जन्म लेती है और न मरती है। न तो यह शरीर है और न अनुभविक मस्तिष्क । प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा परमात्मा का अंश है। आत्माभिमान का भ्रम इसलिये है क्योंकि हम यह नहीं समझ पाते कि हमारी आत्मा परमात्मा का एक अंश है; वास्तव में उसी पर आत्मा का एक रूप है और हम इस दुनिया में जो भी कर्म करते हैं वह हम एक आत्मा के रूप में नहीं करते हैं वरन् प्रकृति के रूप में करते हैं जो एक माया है और क्षण-क्षण में बदलती रहती है।
- गीता के उपदेश के अनुसार एक रूपधारी ईश्वर अपने आप में ब्रह्म की अपरिवर्तनशीलता और प्रकृति की परिवर्तनशीलता दोनों ही का सामन्जस्य है। दोनों की प्रकृति या माया और ईश्वर का कोई प्रारम्भ नहीं और दोनों ही एक-दूसरे पर आश्रित हैं।
- गीता पुनर्जन्म का सिद्धांत भी बताती है जिसके अनुसार हरेक दूसरा जन्म पहले जन्म के कर्म का ही परिणाम होता है और सही रास्ते पर चलने से पुनर्जन्म के चक्र का अन्त हो जाता है तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
- अन्त में यह कहा जा सकता है कि गीता का भागवत दर्शन उस समय की भिन्न भिन्न विचारधाराओं के बीच एक संतुलन स्थापित करता है। इसके अनुसार मोक्ष के तीन मार्ग हैं-कर्म, ज्ञान और भक्ति |
- कर्म मार्ग वैदिक यज्ञ एवं पशुबलि का एक नया अर्थ है। भेंट या बलि चढ़ाने की बात वैदिक युग की तरह इसमें भी होती है परन्तु इसमें ईश्वर को भेंट पशुओं का नहीं अपने स्वार्थ का दिया जाता है। गीता के अनुसार वास्तविक भेंट प्रपत्ति या ईश्वर के सामने आत्मसमर्पण करना है। एक कर्मयोगी ईश्वर के आगे अपने सभी कर्म एवं उसके फल की बलि चढ़ाता है।
- ज्ञान मार्ग द्वारा प्रकृति से ओझल अंतिम सत्य को पहचाना जा सकता है, जो ब्रह्म है। लेकिन गीता का विशेष झुकाव भक्ति मार्ग की ओर है जो ईश्वर से प्रेम और भावात्मक लगाव से समझा जा सकता है। गीता के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का यह सबसे उत्तम और आसान मार्ग है जिसे सब अपना सकते हैं। एक निराकार ब्रह्म पर ध्यान लगाना जैसा कि ज्ञान मार्गी कहते हैं सबके लिए सम्भव नहीं है वरन् ब्रह्म को अगर एक रूपधारी ईश्वर के रूप में पूजा जाये तो ये सबके लिए सम्भव है और इससे सभी भक्तों को भावमय संतोष हो सकता है। भागवत धर्म की लोकप्रियता का यही रहस्य रहा।
- फिर हम यह भी पाते हैं कि भक्ति मार्ग को कर्मयोग से पृथक् भी नहीं बताया गया है। दोनों को साथ-साथ अपनाया जा सकता है। एक सच्चा भक्त एक कर्मयोगी भी हो सकता है अगर वह अपने सभी कर्मों में व्यस्त रहकर अपना ध्यान ईश्वर पर से एक क्षण के लिए भी नहीं हटाये। इस प्रकार भागवत गीता में कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग एवं ज्ञानमार्ग का एक अच्छा सामंजस्य पाया जाता है।
- वासुदेव कृष्ण के अतिरिक्त उनके चार और सम्बन्धियों का भी नाम मिलता है। जिन्हें देवता का रूप प्रदान किया गया। वे हैं- संकर्षण, प्रद्युम्न, साम्ब और अनिरूद्ध। भागवत धर्म ने न केवल वैष्णव धर्म को जन्म दिया वरन् पश्चात् के हिन्दू धर्म पर भी इसका काफी प्रभाव रहा।
- जैसे मूर्तिपूजा सर्वप्रथम इसी धर्म के बीच आयी और भक्ति प्रथा भी इसी धर्म से आरम्भ हुई।
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