भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था | जाति व्यवस्था की विशेषताएँ | Bharat Me Jaati Vyastha
भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था
जाति व्यवस्था की विशेषताएँ
जाति व्यवस्था क्या है
- भारतीय समाज की 'जाति-व्यवस्था', अपने आप में एक विशिष्ट 'सामाजिक व्यवस्था है, जो अपनी मूलभूत विशेषताओं के साथ प्राचीन काल से अब तक अस्तित्व में है।
- प्राचीन काल में भारतीय समाज में 'वर्ण-व्यवस्था' सामाजिक स्तरीकरण के रूप में विद्यमान थी, जिसका कालान्तर में अनेक परिवर्तनों के साथ जाति-व्यवस्था में रूपांतरण हो गया। इस प्रकार पहले भारतीय समाज कर्म के आधार पर वर्णों में विभाजित था और बाद में जन्म के आधार पर जातियों में विभाजित हो गया।
जाति शब्द की उत्पत्ति
- जाति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की 'जन' धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'जन्म', ‘भेद', 'प्रजाति' से हैं।
- वैसे, जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के 'कास्ट' का हिन्दी अनुवाद हैं। 'कास्ट' शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली भाषा के (कास्ट) शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ प्रजाति, नस्ल या जन्म से संबंधित है।
- भारतीय साहित्य में जाति शब्द का प्रयोग उत्तर वैदिक कालीन साहित्य (1000ई.पू. 500 ई.पू) से मिलना प्रारंभ हो जाता है, जहाँ जाति शब्द को 'जन समुदाय' या जनसमूह के लिए प्रयोग किया गया हैं।
- जाति शब्द का जाति के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग ‘निरूक्त' (12.13) में 'कृष्ण 'जाति' के लिए किया गया हैं।
- बृहदारण्यकोपनिषद् (1.4.12) में स्पष्ट रूप से 'जाति' शब्द का प्रयोग करते हुए वैश्य जाति का उल्लेख किया गया हैं।
- पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' एवं पतंजलि के 'महाभाष्य' में भी जाति शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। शास्त्रों में एक ही जाति के लोगों के लिए बंधु शब्द का प्रयोग किया गया है।
जाति की परिभाषा
जाति को अनेक विद्वानों ने परिभाषित करने का प्रयास किया है। डॉ. वी0 ए0 स्मिथ का कथन है की -
“जाति परिवारों के समूह को कहते हैं, जो धार्मिक संस्कारों और विशेषकर भोजन और विवाह संबंधी रीतियों की पवित्रता के लिए एकत्र होते हैं।” सामाजिक प्रतिबंध को ही जाति कहते हैं।
- इस प्रकार, 'जाति व्यवस्था' जन्म पर आधारित व्यवस्था है, जिसमें विवाह, खान-पान, ऊँच-नीच, जैसे प्रतिबंध जाति के सदस्यों पर रहते हैं।
- तात्पर्य यह है कि एक जाति का सदस्य, दूसरी जाति में विवाह नहीं कर सकता, दूसरी जाति के व्यवसाय को नहीं अपना सकता, ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के साथ भोजन नहीं कर सकते हैं और एक जाति के सदस्य पर ये नियम कठोरता से लागू होते हैं, इनके उल्लंघन पर जाति से बहिष्कार का दण्ड दिया जा सकता है।
जाति व्यवस्था की विशेषताएँ
जाति व्यवस्था एक विशिष्ट कठोर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती हैं, इसकी अपनी विशिष्टताएँ एवं निर्योग्यताएँ हैं। जाति अपने सदस्यों पर कठोर सामाजिक प्रतिबंध लगाकर अपनी जाति एवं सदस्यों के विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास करती है। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जाति एक गतिशील व्यवस्था है, जिसमें समय के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं, जैसे वर्तमान समय में जाति व्यवस्था के विद्यमान रहने के साथ ही खानपान और व्यवस्था संबंधी जाति व्यवस्था के कठोर नियमों में पूर्णतः शिथिलता आ चुकी हैं। जाति व्यवस्था की विषेषताएँ निम्नलिखित है -
1 वैवाहिक प्रतिबंध
- वैवाहिक प्रतिबंध जाति व्यवस्था की प्रमुख विषेषता है। एक जाति के सदस्य दूसरी जाति में विवाह नहीं कर सकते हैं, अर्थात ब्राह्मण जाति के सदस्य ब्राह्मणों में ही विवाह कर सकते हैं, किसी और जाति में नहीं। यदि कोई ब्राह्मण दूसरी जाति में विवाह करता है, तो उस पर सामाजिक प्रतिबंध लगाकर जाति से बहिष्कार कर दिया जायेगा। जाति पर कठोरता से प्रतिबंध लगाने कारण यह है कि प्रत्येक जाति अपनी विशेषताओं और सुविधाओं को समाज में बनाये रखना चाहती हैं, ताकि समाज में उसकी पृथक पहचान बनी रहे। जाति व्यवस्था में एक जाति अनेक उपजातियों में विभाजित रहती है और इनमें आपस में वैवाहिक संबंध होते रहते हैं।
2 व्यवसाय पर प्रतिबंध
- जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था में परंपरागत वंशानुगत व्यवसाय को एक जाति, पीढ़ी दर-पीढ़ी करती रहती है, अर्थात् तात्पर्य यह है कि, बालक का जन्म जिस परिवार या जाति में हुआ है, वह बालक अपने ही परिवार या जाति के व्यवसाय को करेगा दूसरी जाति के व्यवसाय को नहीं कर सकता हैं। यदि वह दूसरी जाति के व्यवसाय को अपनाने का प्रयास करता है, तो जाति के लोग उस पर कठोरता से सामाजिक प्रतिबंध लगा देते हैं। जाति व्यवस्था में ब्राह्मण का कार्य शिक्षा-दीक्षा देना एवं पौरोहित्य, क्षत्रिय का शासन, प्रशासन एवं सैन्य, वैश्यों का कृषि, पशुपालन एवं व्यापार - वाणिज्य, तथा शूद्र का सभी ऊँची जातियों की सेवा करना रहा है। जाति व्यवस्था में पेशे पर प्रतिबंध का नियंत्रण न केवल व्यक्ति की स्वंय की जाति के लोग आरोपित करते हैं बल्कि दूसरी जाति के लोग भी नियंत्रित करते हैं। जैसे, ब्राह्मण के पौरोहित्य के कार्य को यदि कोई शूद्र अपनाने का प्रयास करता है, तो सबसे पहले तो उसी की जाति को लोग इसका जोरदार विरो करेंगे और फिर ब्राह्मण जाति के लोग उसका विरोध करेंगे साथ ही, क्षत्रिय एवं वैश्य जाति के लोग भी इसका विरोध करेंगें। वह इसलिए कि जाति की निर्धारित व्यवस्था बनी रहे और लोगों में व्यवसाय की खींचतान से भी बचा जा सके।
3 भोजन और खान-पान पर नियंत्रण
- जाति-व्यवस्था में भोजन और खानपान पर कठोरता से नियंत्रण स्थापित होता है। भोजन और खानपान की नियंत्रित व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वे तीनों जातियाँ शूद्रों के यहाँ का भोजन और पानी दोनों ग्रहण नहीं करती हैं, खानपान की कठोरता का आलम यह है कि, कुछ ब्राह्मण अपने ही ब्राह्मण बंधुओं के यहाँ पानी तो पी लेते हैं किन्तु उनके घर का ‘कच्चा खाना’ (दाल, रोटी, चावल, आदि) ग्रहण नहीं करते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रियों और वैश्यों के यहाँ पक्का भोजन ( पूड़ी, सब्जी आदि) ग्रहण करते हैं। किन्तु शूद्र के यहाँ खाना-पीना दोनों नहीं करते हैं, जबकि ब्राह्मण के यहाँ सभी जातियाँ कच्चा-पक्का भोजन ग्रहण कर लेती हैं।
जातियों की सामाजिक धार्मिक विषेषाधिकार एवं निर्योग्यताएँ
- जाति व्यवस्था में कुछ जातियों को सामाजिक-धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं जबकि कुछ अन्यजातियों पर सामाजिक-धार्मिक रूप से अनेक प्रतिबंध लगे होते हैं। जाति व्यवस्था में ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उन्हें अनेक सामाजिक-धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं | जाति व्यवस्था में ब्राह्मण के बाद क्षत्रिय एवं वैष्यों को क्रमशः कम होते विशेषाधिकार प्राप्त हैं किन्तु शूद्रों को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं, उन पर अनेक निर्योग्यताएँ डाल दी गयी हैं। सामाजिक रूप से शूद्र सार्वजनिक स्थलों पर नहीं जा सकते थे, कुएँ या तालाब से पानी नहीं ले सकते थे तथा अपना व्यवसाय छोड़कर ऊँची जातियों का व्यवसाय नहीं अपना सकते थे। दक्षिण भारत में शूद्रों स्थिति और खराब थी, उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, उनकी शक्ल देखना तक अपशगुन माना जाता था, शूद्रों की छाया और स्पर्ष दोनों का निषेध था।
संस्तरण का अर्थ
संस्तरण
- संस्तरण से तात्पर्य ऊँच-नीच या ऊपर-नीचे से है। जाति व्यवस्था में जन्म पर आधारित संस्तरण विद्यमान है, जिसमें क्रमशः ब्राह्मण से शूद्र तक ऊँपर से नीचे स्तर का विधान है अर्थात् संस्तरण में ब्राह्मण सबसे ऊपर और शूद्र सबसे नीचे हैं। यह व्यवस्था जाति व्यवस्था में व्यक्ति के जन्म के साथ ही निर्धारित हो जाति है। ऊँच-नीच की इस कठोर व्यवस्था को ही संस्तरण कहते हैं। इस व्यवस्था में कोई नीची जाति ऊपर उठने की कोशिश करती है, तो उसे उठने नहीं दिया जाता है।
- खण्डों में विभाजन:- खण्ड विभाजन से तात्पर्य, जाति व्यवस्था में समाज के लोगों की भावना संपूर्ण समाज के कल्याण में न होकर अपनी ही जाति विशेष तक सीमित रहती हैं। व्यक्ति का कर्त्तव्य और दायित्व जाति विशेष तक सीमित रहते हैं। व्यक्ति अपनी जाति की प्रगति एवं कल्याण के लिए कार्य करता हैं। व्यक्ति अपनी जाति के प्रति अपने उत्तरदायित्वों और निर्देषों से अपना जुड़ाव रखता हैं। इस प्रकार जाति के खण्डात्मक विभाजन में व्यक्ति समाज और समुदाय के प्रति जवाबदेह न होकर अपनी जाति के प्रति समर्पित रहता हैं।
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