भारत पर बौद्धधर्म का प्रभाव | भारतीय संस्कृति को बौद्धधर्म की देन (Buddhism Gift to Indian Culture)
भारतीय संस्कृति को बौद्धधर्म की देन (Buddhism Gift to Indian Culture)
बौद्धधर्म की भारत को देन
यह सत्य है कि बौद्धधर्म एक सशक्त सम्प्रदाय के रूप में अपनी जन्मभूमि भारत से ही विलुप्त हो गया। फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि इसने भारत के इतिहास को किसी तरह प्रभावित नहीं किया। बौद्धधर्म अपने में एक महान क्रांति था। इसलिए इसने भारतीयों के सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला। इस धर्म का उदय भारतीय संस्कृति के लिए बड़ा ही हितकर प्रमाणित हुआ। भारतीय संस्कृति की सम्पन्नता में इस धर्म के कारण काफी अभिवृद्धि हुई और इस देश के लोगों को जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण का विकास करने में काफी सहायता प्राप्त हुई।
भारतीय राजनीतिक इतिहास पर बौद्धधर्म का प्रभाव
- बौद्धधर्म ने अहिंसा के सिद्धांत पर सर्वाधिक जोर दिया और 'अहिंसा परमो धर्म:' का नारा बुलन्द किया। भारत की राजनीति पर इस उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप भारत के राजाओं नरेशों के दिल में हिंसा तथा रक्तपात के खिलाफ एक प्रतिक्रिया हुई। बौद्धधर्म से प्रभावित होकर अशोक ने युद्ध को तिलांजलि दे दी और धर्म प्रचार को राज्य का लक्ष्य निर्धारित किया। अशोक की इस नीति के कारण भारत में सैनिक दुर्बलता आयी और मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। बाद के इन राजाओं की नीति भी बौद्धधर्म के इस सिद्धांत से प्रभावित होती रही। भारतीय इतिहास के लिए इसका प्रभाव अच्छा नहीं हुआ। लेकिन जहाँ बौद्धधर्म भारतीय संस्कृति के पतन का कारण सिद्ध हुआ, वहाँ उसने भारतीय राजाओं में लोक सेवा की भावना जागृत करके राजाओं को सार्वजनिक कार्य की और उन्मुख किया।
हिन्दू धर्म पर बौद्धधर्म का प्रभाव
- बौद्धधर्म ने हमें एक सर्वप्रिय धर्म प्रदान किया जिसे निरर्थक नियमों, विधि विधानों तथा पुरोहितों की आवश्यकता नहीं थी। इस दृष्टि से हिन्दू धर्म पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा। बौद्ध धर्म से पहले हिन्दूधर्म में कर्म कांड व यज्ञाडंबर आदि की विशेष प्रधानता थी। यह धर्म साधारण जनता की कल्पना के परे हो गया था। शूद्रों के साथ घोर अन्याय किया जाता था। महात्मा बुद्ध ने सरल भाषा का प्रयोग कर हिन्दूधर्म के मानने वालों को अपनी ओर आकर्षित किया। उनका व्यक्तित्व बहुत उन्नत था, जिसका प्रभाव उन समस्त व्यक्तियों पर शीघ्रता से पड़ जाना स्वाभाविक था, जो उनके सत्संग में आते थे। उनके अनुयायियों ने बाद में उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करना आरम्भ की। उन्होंने पवित्रता, सत्य, अहिंसा आदि पर विशेष बल दिया जिसके कारण यज्ञ आदि की प्रधानता कम होने लगी। उन्होंने धर्म को बहुत सरल बना दिया, जिसका प्रभाव हिन्दू धर्म पर विशेष रूप से पड़ा ।
भारत में मूर्तिपूजा का प्रारम्भ
- बहुत सम्भव है कि मूर्तिपूजा को बौद्ध धर्म ने ही आरम्भ किया हो। यह ठीक है कि आरम्भ में युद्ध के कुछ चिह्नों को लेकर संतोष कर लिया गया था, किन्तु तत्पश्चात् बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियों की एक बाढ़ सी आ गयी। गंधार देश तो इन मूर्तियों से भरा पड़ा है और अब भी वहाँ ये मूर्तियाँ पायी जाती हैं। इन मूर्तियों के लिए बहुत से भवनों का निर्माण हुआ और परिणाम स्वरूप एक महती संख्या में बिहार अस्तित्व में आए। इस प्रकार मूर्तिपूजा की यह पद्धति बौद्धों के द्वारा ही हिन्दुओं को प्राप्त हुई। पुरानी आर्य पूजा पद्धति का स्थान बौद्धों की मूर्तिपूजा ने ले लिया।
भारत में मठ प्रणाली का प्रारम्भ
- मठ प्रणाली के जन्मदाता भी बौद्ध थे। बौद्ध से पूर्व भी अनेक हिन्दू वनों को जाया करते थे, किन्तु यह मठ प्रणाली उस समय न थी। बुद्ध ने एक तटस्थ भ्रातृ धर्म को भी जन्म दिया। सभी भिक्षु परस्पर बन्धुओं की तरह रहते थे और एक ही साथ सर्वप्रिय गुरु के नीचे रह कर अनुशासन का जीवन व्यतीत करते थे। बौद्ध प्रचारकों को किसी प्रकार का कोई वेतन नहीं दिया जाता था। बुद्धमत के प्रचार में धन का व्यय अधिक नहीं होता था।
संघ व्यवस्था
- संघ का संगठन बौद्ध धर्म का हिन्दू समाज को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन माना जा सकता है। भिक्षुक संघों की स्थापना की परम्परा बौद्ध काल से शुरू हुई। संघ धर्म का प्रचार बौद्धों ने किया। हिन्दू धर्म में पहले इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस तरह धर्म के प्रचार के कार्य में एक नये तरीके का सूत्रपात हुआ। बौद्ध लोग विहार में रहते थे तथा एक निश्चित अनुशासन का पालन करते थे। ये बौद्ध विहार शिक्षा प्राप्ति के प्रधान केन्द्र बन गये।
राजनीतिक और सामाजिक एकता
- बौद्ध धर्म के द्वारा ही भारत में कुछ अंश तक जातिपात का बन्धन टूटा और पृथकता की भावना पर आघात हुआ। इस कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भारत जातीय बन्धनों को छिन्न-भिन्न करके और अन्धविश्वासों को दूर करके इसने आर्यों के समस्त राजनीतिक संगठन को एक सूत्र में बांधने के एक आन्दोलन का सूत्रपात कराया। इतिहासकार हेवेल ने लिखा है "बौद्धधर्म ने आर्यावर्त्त के जातीय बंधनों को तोड़कर उसके आध्यात्मिक वातावरण में घुसे हुए अन्धविश्वासों को दूर कर सम्पूर्ण आर्य जाति को एकरूपता प्रदान करने में योग दिया और मौर्य वंश के विशाल सम्राज्य की नींव रखी। "
वैदेशिक सम्बन्ध में बौद्ध धर्म की भूमिका
- भारत का अन्य देशों के साथ गहरा सम्बन्ध स्थापित कराने में बौद्धधर्म ने एक मजबूत कड़ी का काम किया। बौद्ध धर्म भारत की ओर से विदेशों के लिए अमूल्य भेंट था। यह एक ऐसा धर्म था जिसको अनेक देशों ने जातिपांत के बंधनों को त्यागकर स्वीकार किया। इस धर्म को विश्वव्यापी आंदोलन कहा जा सकता है। भारत के भिक्षुओं और विद्वानों ने ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दी से विदेशों में बौद्धधर्म का प्रचार करना शुरू कर दिया। फलतः बौद्धधर्म के दीक्षित विदेशी लोग भारत को एक तीर्थस्थान मानने लगे। इस प्रकार सांस्कृतिक स्तर पर विदेशों के साथ भारत का सम्बन्ध स्थापित हुआ।
आर्थिक परिणाम
- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बौद्ध भिक्षुओं ने भारत के कोने-कोने का भ्रमण किया तथा यातायात के साधनों को सुलभ किया, जिससे एक स्थान के निवासी सुगमतापूर्वक दूसरे स्थान तक जा सकें। इसके अतिरिक्त भारत की सीमाओं के बाहर जाकर इन भिक्षुओं ने भारत की पृथकता को भंग कर दिया तथा विश्व के अनेक भागों से भारत का धार्मिक सम्बन्ध कायम हुआ। इन्हीं धार्मिक सम्बन्धों के पश्चात् भारत के आर्थिक सम्बन्ध भी अन्य देशों से स्थापित हुए अथवा भारत का व्यापार अन्य देशों के साथ होने लगा।
नैतिक और बौद्धिक आदर्श
- महात्मा बुद्ध ने आचरण की पवित्रता पर बड़ा बल दिया था। दया, त्याग, सत्य, अहिंसा आदि पर उन्होंने बड़ा जोर दिया था। साथ ही नैतिक उत्थान के लिए भी उन्होंने कई सिद्धांत प्रतिपादित किये थे। इसका प्रभाव भी भारतीय समाज पर पड़ा था। इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म के कारण बौद्धिक स्वतंत्रता के वातावरण का भी सृजन हुआ। हिन्दू धर्म के लोग वेदों का प्रमाण स्वीकार करते थे। लेकिन गौतम बुद्ध ने इसका विरोध किया और लोगों को स्वतंत्र चिन्तन का उपदेश दिया। उनका कहना था कि कसौटी पर कसकर ही किसी सिद्धांत को अपनाना चाहिए। हिन्दू समाज पर इसका भी प्रभाव पड़ा।
दर्शन की उन्नति
- बौद्ध धर्म के उदय के फलस्वरूप भारत में एक नवीन दार्शनिक साहित्य का सृजन हुआ। शून्यवाद तथा माध्यमिक दर्शन के प्रतिपादक नागार्जुन का भारत में ही नहीं, अखिल विश्व के दार्शनिकों में गौरवपूर्ण स्थान है। बौद्धों का दार्शनिक साहित्य केवल प्रचुर और समृद्ध ही नहीं अपितु विचारोत्तेजक भी था। स्वयं बौद्ध धर्म के अन्तर्गत ही अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय उत्पन्न हो गए। प्रतीत्य समुत्पाद, शून्यवाद, योगाचार, सर्वास्तिवाद, सोत्रान्तिक विज्ञानवाद और अनित्यवाद आदि कितनी ही दार्शनिक विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हो गया। असंग, वसुमित्र, दिग्नाग और धर्मकीर्ति आदि बौद्ध दार्शनिकों की कृतियों का अध्ययन बिना किये हुए कोई भी व्यक्ति भारतीय दर्शन का आचार्य नहीं कहा जा सकता। बौद्धों के दार्शनिक विचारों का खंडन करने के लिए अन्य अनेक दार्शनिक उत्पन्न हुए जिसमें शंकराचार्य का नाम अग्रगण्य है। यदि हम भारत के परवर्ती दार्शनिक साहित्य की विवेचना करें तो यह सिद्ध हो जाता है कि उसके सृजन में बौद्ध दर्शन का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष योगदान रहा है।
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Thanks sir for your hard work
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