ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ | भारत की प्रमुख ताम्रपाषाण बस्तियाँ | Chaleolithic Cultures in Hindi
ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ Chaleolithic Cultures in Hindi
ताम्रपाषाण काल के बारे में जानकारी
नवपाषाण काल के अन्त का वह काल खण्ड है जबकि कुछ स्थानों पर पाषाण के साथ-साथ सीमित स्तर पर धातु का इस्तेमाल किया जाता था।
वास्तव में नवपाषाण काल धातुरहित स्तर माना जाता है क्योंकि इस काल में धातु के व्यापक उपयोग के संकेत नहीं मिलते, किन्तु जिन कुछ स्थानों पर पाषाण के साथ-साथ सीमित मात्रा में धातु के उपयोग के उदाहरण विद्यमान हैं। उन्हें पुरातत्ववेत्ता ताम्रपाषाण काल खण्ड के नाम से पुकारते हैं ।
अर्थात वह काल खण्ड जिसमें पाषाण व ताम्र दोनों का उपयोग होता हो। नवपाषाण युग के इस काल खण्ड में विकसित हुई संस्कृतियां ताम्रपाषाण संस्कृतियां कहलाती हैं। (क) उत्तर पश्चिम
उत्तर पश्चिम भारत की ताम्रपाषाणकालीन बस्तियाँ
(Chaleolithic Settlements of North-West India)
भारत में नवपाषाण के अन्तिम काल खण्ड में जब धातु युग प्रारम्भ हुआ, तब अनेक स्थानों पर पत्थर के साथ-साथ तांबे का इस्तेमाल प्रारम्भ हो गया। कुछ स्थानों पर पत्थर के बाद सीधा लोहे का ही इस्तेमाल हुआ।
उत्तर भारत की प्रमुख ताम्रपाषाण बस्तियों का वर्णन
(1) कश्मीर का 'बुर्जहोम'
- कश्मीर ने नवपाषाण काल में एक समृद्ध संस्कृति को जन्म दिया था। श्रीनगर के निकट 'बुर्जहोम' नामक स्थान मिला है जहाँ नवपाषाण कालीन अनेक चीजें प्राप्त हुई हैं। इस युग पहले काल खण्ड में हाथ के बने मिट्टी के बर्तन तथा आरियाँ, काँटे, छुरियाँ व सुईयाँ आदि हाथ से काम करने में इस्तेमाल आने वाले औजार प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त फसल काटने वाले पत्थर के औजार भी मिले हैं। नवपाषाण काल के अगले चरण में गारे व कच्ची ईंट के घर, चाक से बनाए गए मिट्टी के बर्तन तथा सीमित मात्रा में तांबे का उपयोग मिलता है।
( 2 ) मेहरगढ़-बलूचिस्तान
- बलूचिस्तान का का मेहरगढ़ सबसे पुराना स्थान है। ताम्रपाषाण कालीन वस्तुओं से पता चलता है कि यहाँ पत्थर के साथ-साथ ताँबे का इस्तेमाल होता था। इतना ही नहीं, मेहरगढ़ का ईरान, अफगानिस्तान तथा मध्य भारत से व्यापारिक सम्बन्धों की जानकारी भी मिलती है।
( 3 ) 'किली गुल मुहम्मद' तथा 'दंब सादात'
- क्वेटा घाटी में स्थित ये दो स्थान ताम्रपाषाण संस्कृति के केन्द्र थे। ईसा पूर्व 4000 के लगभग यहाँ विकासशील ग्रामीण जीवन विद्यमान था। नवपाषाण काल के दूसरे चरण में यहाँ विभिन्न प्रकार के हाथ के बने चित्रित बर्तन व हाथ के औजार मिले हैं। यहाँ पत्थर के साथ-साथ सीमित मात्रा में तांबे का भी इस्तेमाल किया जाता था। इस काल में इन स्थानों का अफगानिस्तान तथा ईरान से सम्पर्क स्थापित था।
( 4 ) राना घुंडाई-
- जोब लोरलाई क्षेत्र में स्थित राना घुंडाई नामक स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है। यहाँ चित्रित मिट्टीके बर्तन प्राप्त हुए हैं। बाद में धातु के उपयोग के प्रमाण भी मिले हैं। राना घुंडाई का अन्त के चरण में ईरान से सम्बन्ध स्थापित था किन्तु ग्राम्य जीवन के विकास के स्पष्ट चिह्न नहीं मिलते हैं।
(5) 'कुल्ली व नाल' -
- दक्षिणी बलूचिस्तान में स्थित कुल्ली व नाल नामक स्थान दो विशिष्ट संस्कृतियों से जुड़े हुए हैं। यहाँ चित्रित मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल होता था तथा धातु का व्यापक रूप में उपयोग किया जाता था। इन संस्कृतियों का फारस की खाड़ी के क्षेत्रों से सम्पर्क स्थापित था। पश्चिम से बड़ी मात्रा में व्यापार होने के पर्याप्त संकेत मिलते। कुल्ली व नाल संस्कृतियों की एक मुख्य विशेषता यह है कि ये हड़प्पा संस्कृति से भी पुरानी हैं।
( 6 ) 'गुमला व रहमान ढेरी
- उत्तर पश्चिम की गोमल घाटी में गुमला व रहमान ढेरी भी ताम्रपाषाण युग के मुख्य | गुमला अपने पहले चरण में ययावर (घुमक्कड़) या अर्धययावर स्तर पर विद्यमान था क्योंकि यहाँ एक स्थल हैं। ओर थोड़े से मिट्टी के लिपे-पुते गड्ढे व अन्य छोटे-छोटे पत्थर के उपकरण मिले हैं और दूसरी ओर पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं। किन्तु अगले चरण में ग्राम्य जीवन के प्रमाण मिलते हैं। कच्चे घर, चित्रित बर्तन, तांबे का उपयोग आदि यहाँ की अन्य विशेषताएँ थीं। 'रहमान ढेरी' का उत्खनन कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है किन्तु यहाँ हड़प्पा पूर्व की बस्ती विद्यमान थी इसके पर्याप्त संकेत विद्यमान हैं।
(7) 'सराय खोला तथा जलीलपुर
- पश्चिमी पंजाब में रावलपिण्डी के निकट सराय खोला तथा चेनाब व रावी नदियों के संगम के पास जलीलपुर दो महत्त्वपूर्ण ताम्रपाषाण कालीन स्थल हड़प्पा पूर्व युग के हैं। इनके पहले काल खण्ड में हाथ के बने मिट्टी के बर्तन, पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, पत्थर के फलक आदि मिलते हैं किन्तु दूसरे काल खण्ड में हड़प्पा सभ्यता से पूर्व के विभिन्न उपकरणों के अतिरिक्त तांबे व कांसे के व्यापक उपयोग के प्रमाण मिले हैं।
(8) वैदिक सरस्वती नदी
- हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा गुजरात के क्षेत्रों में जो खुदाई हुई है उसने प्राचीन भारत के इतिहास पर विशेष प्रकाश डाला है। वैदिक वांगमय में जिस सरस्वती नदी का विस्तार से उल्लेख मिलता है वह पाषाण व ताम्रपाषाण युग के पश्चात लम्बे समय तक भारत के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में बहती रही।
- वर्तमान काल में सूखी हुई घग्गर नदी के जो चिह्न मिलते हैं वह उस काल की सरस्वती नदी थी। बहावलपुर में यह 'हकरा' के नाम से प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं सरस्वती नदी की सहायक नदियों के सूखे हुए मार्ग भी यहाँ खोजे जा चुके हैं।
- यद्यपि इस क्षेत्र का उत्खनन नहीं हुआ है किन्तु विभिन्न स्रोतों से जो खोजें हुई हैं उन्होंने यहाँ एक अत्यन्त विकसित सभ्यता को उजागर किया है। इस नदी के राजस्थान वाले क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है, जहाँ सिन्धु सभ्यता के भरपूर अवशेष मिले हैं और इन अवशेषों के नीचे हड़प्पा पूर्व की सभ्यता के संकेत मिले हैं। यह सभ्यता अत्यन्त विकसित थी तथा यहाँ की बस्ती के चारों ओर कच्ची ईंटों की किलाबन्दी थी।
- पक्की ईंटों का भी इन्हें ज्ञान था। मकानों का स्वरूप आज के ग्रामों के मकानों से मिलता-जुलता था। घर में आंगन और उसके किनारे पर काम होते थे, आंगन में खाना पकाने का भी प्रबन्ध था। उस काल में जमीन के ऊपर तथा नीचे तंदूर मिले हैं जो आधुनिक तंदूर से मिलते हैं। खेती में हल का प्रयोग होता था। अन्न को भण्डार में इकट्ठा किया जाता था।
- इस युग में पत्थर व तांबे दोनों का उपयोग होता था क्योंकि दोनों के उपकरण प्राप्त हुए हैं। पत्थर का अधिक इस्तेमाल किया जाता था। पत्थर के फलक में लकड़ी का हत्था लगाकर दरांती की तरह इस्तेमाल किया जाता था। इस युग में तांबे की चूड़ियां व तांबे के मनके भी बनाए जाते थे। सीपियाँ व पक्की मिट्टी का भी उपयोग होता था।
( ख ) भीतरी भारत की ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ
(Chaleolithic cultures of Inner India)
भीतरी भारत की ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ मुख्यतः निम्नलिखित थीं
(1) अहाड़ संस्कृति या बनास संस्कृति
- राजस्थान के उदयपुर, जयपुर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, भीलवाड़ा तथा टोंक आदि जिलों में तथा मध्य प्रदेश के मंदसौर क्षेत्र में ताम्रपाषाण संस्कृति के विस्तृत अवशेष मिले हैं। यद्यपि यहाँ पर्याप्त खुदाई नहीं की जा सकी है किन्तु उदयपुर के निकट अहाड़ और गिलुंद में खुदाई से प्राप्त ताम्रपाषाण संस्कृति 'अहाड़ संस्कृति' कहलाती है।
- बनास नदी घाटी में स्थित होने के कारण इसे 'बनास संस्कृति' भी कहते हैं। अहाड़ व बनास दोनों बहुत बड़ी बस्तियाँ थीं। ये बस्तियाँ अत्यन्त विकसित प्रकार की थीं। मकान पत्थर व कच्ची मिट्टी के बने थे। नींव में पत्थर का इस्तेमाल होता था। छतें ढलवां होती थीं। मकानों में कई मुँह वाले तंदूर मिले हैं जो आज के तंदूरों के समान ही हैं।
- गिलुंद में पक्की ईंटों के उपयोग के साक्ष्य मौजूद हैं। यहाँ तांबे का व्यापक इस्तेमाल होता था। यहाँ के लोग खानों से कच्चा तांबा लाकर घरों पर पिघलाते साफ करते तथा उपकरण बनाते थे। तांबे की वस्तुओं में चूड़ियाँ, अंगूठियाँ, चाकू के फल, कुल्हाड़ियाँ तथा सुरमे की सलाइयाँ मिली हैं। पशुओं की मूर्तियाँ, मनके व मोहरें भी मिली हैं। यहाँ चावल की खेती होती थी व पशुपालन होता था।
- यह संस्कृति ईसा पूर्व 3000 वर्ष के आस-पास मौजूद थी और राजस्थान ताम्रधातु के काम का केन्द्र बना हुआ था।
( 2 ) मध्य प्रदेश के मालवा पठार की संस्कृतियाँ
- मालवा की उर्वरा भूमि में क्षिप्रा, बेतवा, केन, चम्बल तथा नर्मदा आदि नदियाँ बहती हैं। यहाँ के अनेक स्थानों की खुदाई में ताम्रपाषाण कालीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। कायथा तथा नवदाटोली की खुदाई में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है।
- कायथा संस्कृति वाले क्षेत्र में चाक से बनाए मिट्टी के बर्तन तथा तांबे की कुल्हाड़ियाँ और चूड़ियाँ मिली हैं। कायथ के दूसरे काल खण्ड में अहाड़ संस्कृति से मिलते-जुलते अवशेष मिले हैं और तीसरे काल खण्ड को मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति के नाम से पुकारा गया है। इसके साक्ष्य नवदाटोली में पाए गए हैं। इस काल के मकानों व बस्तियों के अवशेष भी प्राप्त हैं। यहाँ प्राप्त मिट्टी के बर्तन अन्य क्षेत्रों की संस्कृतियों के समान ही हैं। तांबे का भी उपयोग किया जाता था। तांबे की बनी छेनियाँ, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ, सुए तथा कांटे आदि प्रमुख हैं।
- नवदाटोली ताम्रपाषाण युग का एक विस्तृत ग्राम था जहाँ आजकल जैसे गेहूँ, दालें, चना, मटर व चावल की फसलें होती थीं।
( 3 ) महाराष्ट्र की ताम्रपाषाण युगीन बस्तियाँ
- यहाँ का दायमाबाद क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के उत्खनन के आधार पर कहा गया है कि यहाँ के चौथे काल खण्ड में ताम्रपाषाण संस्कृति पाई गई है जो जोखे संस्कृति के नाम से जानी जाती है। यही वर्तमान महाराष्ट्र की संस्कृति है। जोखे के उत्खनन में वर्गीकरण, आयताकार व वृत्ताकार घर मिले हैं। घरों की बनावट ग्रामों के कच्चे घरों जैसी थी।
- यहाँ भी तांबे की वही वस्तुएँ मिली हैं जो मालवा संस्कृति में मिली हैं। दायमाबाद में तांबे के बने रथ चलाते मनुष्य, सांड, गैंडे व हाथी मिले हैं। ये ठोस हैं और कई किलो के हैं। यहां भी भिन्न-भिन्न अनाज उगाए जाते थे और पशुपालन होता था।
( 4 ) दक्षिण भारत की ताम्रपाषाण संस्कृति
- उत्तर व मध्य भारत के समान दक्षिण भारत में भी बाद के चरणों में ताम्रपाषाण युगीन जीवन के संकेत मिलते हैं। कर्नाटक, आंध्र व तमिलनाडु के क्षेत्रों के उत्खनन से जो वस्तुएँ मिली हैं वह इस युग के जीवन को प्रदर्शित करती हैं। तुंगभद्रा व कृष्णा नदियों के बीच का रायचूर दोआब का क्षेत्र इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- मुख्यतः नागार्जुनकोंडा, ब्रह्मगिरि, उतनूर, यायमपल्ली मास्की व कोडेकल आदि में खुदाई हुई है। यहाँ के सांस्कृतिक विकास के तीसरे चरण में चाक निर्मित मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ धातु के बर्तन भी बनाए जाते थे। घरों की बनावट का आधार उत्तर जैसा ही था किन्तु स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप उनमें परिवर्तन कर लिए गए थे। इस काल में पत्थर व मिट्टी के साथ-साथ तांबे की वस्तुएँ बनती थीं तथा अन्य क्षेत्रों में भेजी जाती थीं। सम्भवतः इस काल में यहाँ सोने का इस्तेमाल होने लगा था।
(5) पूर्वी भारत तथा ताम्रपाषाण संस्कृति
- यहाँ के स्थलों के उत्खनन के अभाव में ताम्रपाषाण युगीन संस्कृतियों का वर्णन प्राप्य नहीं है। पश्चिमी बंगाल के बीरभूम, बर्दवान, मिदनापुरी व बांकुरा से ताम्रयुगीन जीवन के संकेत अवश्य मिले हैं। जो साक्ष्य मिले हैं उनके माध्यम से चावल पर आधारित एक विस्तृत ताम्रपाषाण युगीन ग्राम-संस्कृति का पता चलता है जो ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व की है। बिहार के चिरांद व सोनपुर जैसे स्थलों के उत्खनन से ताम्रपाषाण युगीन जीवन के संकेत मिलते हैं जो बाद का कालखण्ड है।
प्रागैतिहासिक काल सारांश
प्रारम्भिक मानव का जीवन पशु तुल्य था किन्तु हजारों वर्षों के व्यतीत होने के पश्चात उसने सभ्य जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया। इस काल की जानकारी निश्चित प्रमाणों से प्राप्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, अतः यह जानकारी अन्य साधनों पर आधारित है। सभ्यता से पूर्व के इस सम्पूर्ण लम्बे काल को प्रागैतिहासिक काल (Pre historic Age) के नाम से पुकारा जाता है।
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