चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय | चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन | Chandra Gupta Ka Jeevan
चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय (Rising of Chandragupta Maurya)
चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन अनुश्रुति -01
- चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर प्रकाश डालने के लिए हमें बौद्ध अनुश्रुतियों का ही सहारा लेना पड़ता है। बौद्ध परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त का पिता अपनी पत्नी (चन्द्रगुप्त की मां) को असहाय अवस्था में छोड़कर चल दिया था। इस दु:खी अवस्था में उसने पाटलिपुत्र में जाकर आश्रय लिया और कुछ समय उपरान्त उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसे एक चरवाहे ने पाला। इस चरवाहे ने भी बाद में उसे एक शिकारी के हाथ बेच दिया।
- शिकारी के यहां रह कर चन्द्रगुप्त उसके पशुओं की देखभाल किया करता था। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त इस शिकारी के यहां रहता। हुआ गांव के बच्चों से मिलकर राजसी खेल खेला करता था। खेल ही खेल में यह राजा बन जाया करता था और जनता से न्याय करने का अभिनय किया करता था। एक बार जब चाणक्य उस मार्ग से गुजरा और उसने चन्द्रगुप्त को इस प्रकार की क्रीड़ा करते देखा तो उसने उसे शिकारी से मोल ले लिया। इसके बाद चाणक्य उसे तक्षशिला ले गया और थोड़े ही समय में उसे आवश्यक शिक्षाओं से सम्पन्न कर दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त का यौवनकाल तक्षशिला में ही बीता।
- बताया जाता है कि चाणक्य वाद-विवाद और ज्ञान प्राप्ति के लिए पाटलिपुत्र जाया करता था। वहां धनानन्द राज्य करता था। वह दानशाला से बहुत सा धन दान में दिया करता था। इस दानशाला का प्रबन्ध एक छोटी सी सभा के हाथों में था और इस सभा के मुखिया ब्राह्मण हुआ करते थे। चाणक्य को दानशाला का प्रबन्धक नियुक्त कर दिया गया, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसे यह कह कर निकाल दिया गया कि वह स्वभाव का कटु और शक्ल से डरावना है। चाणक्य जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए यह बात असा थी। अतः उसने व्रत लिया कि वह नन्द वंश का नाश कर डालेगा। जब वह नन्दवंश के विनाश के साधनों पर विचार कर रहा था तब उसकी भेंट चन्द्रगुप्त से हुई।
चंद्रगुप्त मौर्य का जीवन अनुश्रुति -02
- इस सम्बन्ध में एक और अनुश्रुति है। मौर्य वंश के दुर्दिन में चन्द्रगुप्त ने मगध के तत्कालीन नन्द शासक के यहां नौकरी कर ली। यह क्षत्रिय राजकुमार बाल्यकाल से ही बड़ा योग्य एवं प्रतिभा सम्पन्न था और इसने अपनी योग्यता के बल पर मगध के नन्दवंशी राजा को आकर्षित कर लिया। फलतः उसने उसे अपनी अपार सेना का सेनापतित्व प्रदान करके विशेष रूप से सम्मानित किया। कहा जाता है कि इसी समय सिंहल द्वीप के शासक ने नन्द राजा के दरबार में एक पिंजड़े में मोम का बना हुआ सिंह भेजा और उसे यह सन्देश किया कि जो व्यक्ति बिना पिंजड़े को खोले हुए ही सिंह को बाहर निकालने में सफल होगा वह वस्तुतः अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्ति होगा। वह सिंह इतने असाधारण कला कौशल से बनाया गया था कि वह वास्तविक सिंह के सदृश शक्तिशाली एवं भयंकर प्रतीत होता था। इस सिंह को देखकर जब अन्य सभासद् किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहे थे तो उस समय चन्द्रगुप्त ने अपनी युक्ति से काम लिया। उसने एक लौह शलाका को ज्यों ही अग्नि में तपाकर मोम के बने हुए उस सिंह के शरीर से स्पर्श कराया, त्यों ही वह पिघल कर लुप्तप्राय हो गया। यह कथोक्ति इस बात को प्रमाणित करने में पर्याप्त है कि ही चन्द्रगुप्त ने कुछ समय के लिए नन्द राजसभा में नौकरी की थी।
- अब कुछ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई कि नन्द राजा चन्द्रगुप्त से असंतुष्ट हो गया। अतः उसने उसे प्राणदण्ड दे दिया। फलतः अपनी प्राण रक्षा के लिए चन्द्रगुप्त मगध से भाग निकला, किन्तु इसके साथ ही साथ उसने नन्दवंश का पूर्ण विनाश करने का दृढ़ संकल्प भी ले लिया। इधर तक्षशिला का सुप्रसिद्ध विष्णुगुप्त चाणक्य भी जो किसी धार्मिक अनुष्ठान में नंद राजा के द्वारा आमन्त्रित किया गया था. इस अवसर पर मगध नरेश पद्मनन्द द्वारा स्पष्ट रूप से अपमानित किये जाने के कारण उससे अत्यन्त असन्तुष्ट बैठा था। उसने क्रुद्ध होकर अपने अपमान का भीषण प्रतिरोध लेने का दृढ़ संकल्प बनाया। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त ने एकमत होकर नंदवंश के विरुद्ध भीषण विद्रोह भड़काई । यद्यपि नंद राजा ने इस विद्रोह का बलपूर्वक दमन कर दिया तथापि वह अपने इन दोनों कट्टर बैरियों को बन्दी करने में विफल रहा।
- पद्मनन्द के अत्याचारों में पीड़ित चन्द्रगुप्त ने पहले तो उससे प्रत्यक्ष युद्ध करने का विचार किया तत्पश्चात् उसने यवन आक्रांता सिकन्दर की शक्ति को तौलने एवं सैनिक संगठन का ढंग सीखने के उद्देश्य से उससे सम्पर्क स्थापित करना चाहा। प्लूटार्क ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि वह सिकन्दर महान के पास भी गया था। कुछ विद्वानों का मत तो यह है कि वह सिकन्दर को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करने के विचार से ही उसके पास गया था किन्तु यह धारणा तर्कसंगत नहीं है और न कोई विश्वस्त प्रमाण ही उपलब्ध हैं। इस उदण्ड एवं निर्भीक नवयुवक की चाल-ढाल से ही सिकन्दर इतना अप्रसन्न हो उठा कि उसने भी उसे प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी किन्तु इस आज्ञा के कार्यान्वित किये जाने के पूर्व ही वह सिकन्दर के पंजे से निकल भागा। अन्त में वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि मगध नरेश पद्मनन्द एक आततायी शासक है तो यूनानी राजा सिकन्दर भी पूर्ण निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासक होने के कारण प्रजापीड़क भी है। इस धारणा को स्थायी रूप देकर उसने इन दोनों के राज्यों का अन्त करने के दृढ़ निश्चय से इस अकांक्षा पूर्ति के यथानुकूल साधनों को ढूंढना आरम्भ कर दिया। उसने अनुभव किया कि यदि उसने सीमान्त प्रान्तों को जीतने के उपरान्त ही मगध राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया होता तो वह अपने लक्ष्य पूर्ति में अवश्य सफल हो चुका होता। वर्तमान स्थिति में उसके पास युद्ध के प्रत्यक्ष साधनों का अभाव था।
- अपने इस पर्यटन काल में चन्द्रगुप्त तक्षशिला के नीति विशारद ब्राह्मण आचार्य कौटिल्य से भी विन्ध्याचल के वनों में आ मिला। कौटिल्य अथवा विष्णुगुप्त 'चाणक्य' की जन्मभूमि भी तक्षशिला थी किन्तु वह वहां से मगध की राजधानी (पाटलिपुत्र) आ चुका था और जिस प्रकार उसका मगध सम्राट द्वारा अपमान हुआ उसका उल्लेख ऊपर किया गया है। कहा जाता है कि जिस समय चन्द्रगुप्त अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ति के साधनों के अभाव में चिंतातुर हो विन्धाचल की घोर वनस्थली में इधर-उधर भटक रहा था तो उसी समय उसकी चाणक्य से भेंट हो गई। घूमते-घूमते इसी वन में क्लांत होकर चन्द्रगुप्त भूमि पर प्रगाढ़ निद्रा में सोया हुआ था तब एक भयानक सिंह उसके समीप आकर उसके शरीर को चाटने लगा। सिंह उसके स्वेद को चाटकर वापस चला गया और उसने राजकुमार को तनिक भी क्षति नहीं पहुँचाई। शकुन विचारकों का कथन था कि यह उसकी राज्य प्राप्ति का शुभ लक्षण था। इसी समय चाणक्य को भू मार्ग के अपार कोष की उपलब्धि हुई। इस असीम धन राशि से चन्द्रगुप्त के लिए जिसके गुणों से यह अत्यन्त प्रभावित हो चुका था, डाकुओं और सैनिकों की एक सुविशाल सेना एकत्र कर दी। वे सभी चन्द्रगुप्त को अपना स्वामी एवं नेता समझकर उसके कट्टर अनुयायी गये और अब चन्द्रगुप्त जैसे अजेय सेनानायक को अपनी आकांक्षा पूर्ति का दुर्लभ साधन भी उपलब्ध हो गया।
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