चन्द्रगुप्त मौर्य के विजय अभियान | Chandra Gupta Ke Vijay Abhiyaan
चन्द्रगुप्त मौर्य के विजय अभियान
- चाणक्य और चन्द्रगुप्त नन्द साम्राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाने लगे और तुरंत मगध पर आक्रमण कर दिया। लेकिन नन्दों की शक्ति के समक्ष वे टिक नहीं सके और उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। वे अपनी जान लेकर भागे और गुप्त वेश में इधर-उधर घूमने लगे। नन्द राजा घनानन्द ने उसके प्राणदण्ड की घोषणा की।
- गुप्त वेश में घूमते हुए एक दिन चन्द्रगुप्त को प्रेरणा मिली। एक बार वह किसी घर में टिक गया था। गृहस्वामिनी एक वृद्धा थी। भोजन करते समय उसके बच्चे ने उतावलेपन में आकर गरम और भाप से फूली हुई रोटी को बीच से खाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप उसका मुख जल गया। वृद्धा माँ ने उसे समझाते हुए बताया किया तुमने चन्द्रगुप्त जैसी भूल की है। बीच से खाने के बदले तुम्हें किनारे से खाना आरम्भ करना चाहिए था। चन्द्रगुप्त को अपनी राजनीतिक और सैनिक भूल ज्ञात हुई और उसे इस बात का अनुभव हुआ कि नन्द साम्राज्य के केन्द्र पर आक्रमण करके उन्होंने एक बड़ी राजनीतिक और सैनिक भूल की थी।
- साम्राज्य और शक्ति केन्द्र के पास प्रबल होती है। वहाँ उसका सामना करना और उसे हराना कठिन होता है। इसके विपरीत साम्राज्य की सीमा और उसके बाहर के प्रदेशों में साम्राज्य के प्रति असंतोष होता है और साम्राज्य की शक्ति वहां दुर्बल होती है। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि साम्राज्य के बाहर कहीं सैनिक आधार बनाकर वहां से साम्राज्य के सीमान्त पर आक्रमण शुरू करना चाहिए। इस विचार से चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर उत्तरापथ चला गया और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए तैयारी करने लगा। चाणक्य उत्तरापथ की परिस्थिति से परिचित था और वहां पर उसको आक्रमण का आधार बनाना सरल था।
- भारत से सिकन्दर के लौट जाने के बाद उत्तरापथ की स्थिति चन्द्रगुप्त के अनुकूल हो गयी। यूनानियों के द्वेष और घृणा तो जनता में थी ही, सिकन्दर के वापस जाने के बाद यूनानी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह प्रारम्भ हो गया।
- विद्रोहाग्नि को प्रज्वलित करने में चाणक्य और चन्द्रगुप्त का बहुत बड़ा हाथ था। यूनानी लेखक इस बात को मानते हैं कि चन्द्रगुप्त ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों को भारत से निकालकर दम लिया और उसके बहुत बड़े भाग पर आधिपत्य भी स्थापित किया। किन्तु उसके उद्देश्य की पूर्ति इससे नहीं होती थी। वह तो नन्द साम्राज्य को भंग कर वृहत साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था।
- पंजाब पर विजय प्राप्त कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त पूरब की ओर बढ़ा और केवल दो वर्षों के अन्तर्गत हरिद्वार से इलाहाबाद तक गंगा की सम्पूर्ण उत्तरी और मध्य घाटी पर अपना आधिपत्य कायम करने में सफल रहा। इतने विस्तृत प्रदेश का स्वामी बन जाने से चन्द्रगुप्त की सेना और शक्ति में अपूर्व वृद्धि हुई। अब वह पंजाब तथा गंगा की ऊपरी घाटी का एकछत्र नरेश था। उसके पास अब युद्ध के दांव-पेचों से परिचित एवं अनुभवी सैनिकों की एक विशाल सेना थी और कुछ पड़ोसी राज्य भी उससे मित्रता की सन्धि में आबद्ध हो गये थे।
चन्द्रगुप्त की मगध विजय
- इन विजयों ने चन्द्रगुप्त की शक्ति को बढ़ा दिया। अब उसने तथा चाणक्य ने मगध सम्राट को परास्त करने की योजना बनाई। कहा जाता है कि प्रारम्भ में उन्होंने गलत समरनीति से काम लिया। साम्राज्य के केन्द्र स्थल पर आक्रमण किया गया सीमांत प्रदेशों को चन्द्रगुप्त ने पहले जीतकर अपने अधिकार में करने को प्रयत्न नहीं किया। परिणामस्वरूप आक्रमण विफल रहा। तब दूसरी बार चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य की सीमाओं से आक्रमण आरम्भ किया और मार्ग से जो नगर तथा सैनिक चौकियाँ पड़ीं उन पर अधिकार करते हुए आगे बढ़ा और पाटलिपुत्र को घेर लिया। युद्ध में सम्राट घनानन्द मारा गया। घनानन्द की पराजय के अनेक कारण थे। वह निकम्मा था और प्रजा उससे घृणा करती थी। उसके पास अपार धन था। सम्भवतः जनता को लूटखसोट कर उसने अपना खजाना भरा होगा। जो भी हो, घनानन्द का विनाश कर 321 ई.पू. में चन्द्रगुप्त मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ।
चन्द्रगुप्त मौर्य की दिग्विजय
- कुछ वर्ष पूर्व का एक साधारण युवक मगध के सुविख्यात राज्य के सिंहासन पर आरुढ़ हुआ, निश्चय ही यह एक बहुत बड़ी बात थी। अब तक के भारतीय इतिहास का सम्भवतः यह पहला उदाहरण था कि अपने बलबूते एवं पौरुष पर साधारण स्थिति का व्यक्ति सम्राट बना।
- चन्द्रगुप्त के लिए सन्तोष का अधिक अवसर था, किन्तु महत्त्वाकांक्षी चन्द्रगुप्त के हृदय में एक अत्यंत विस्तृत एवं सुगठित साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा थी। वह किसी प्रकार भी इस सीमित मगध राज्य से सन्तुष्ट नहीं हो सकता था।
- चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर कालीन भारत की राजनीतिक अवस्था का भली-भांति अध्ययन किया था। उसने यह देखा था कि देश का छोटे-छोटे विभिन्न राज्यों में विभक्त रहना कितना हानिप्रद होता है और इससे बाह्य आक्रमणकारी की सफलता तथा देशी राज्यों की असफलता को कितना प्रोत्साहन मिलता है। चन्द्रगुप्त ने जिस परिश्रम द्वारा मगध का राज्य प्राप्त किया था, उसे स्थायित्व तथा दृढ़ता प्रदान करने के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार करे जिससे विशाल साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् सैनिक तथा आर्थिक स्थिति काफी अच्छी हो सके।
- सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त ने पंजाब पर आक्रमण किया और वहां से यूनानी विजय के अवशेष चिह्नों का सर्वदा के लिए अंत कर दिया। अब भारतवर्ष में यूनानी राज्य का नाम तक अवशेष नहीं रह गया था। देश को विदेशियों के हाथ से मुक्त कराने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने भारत के अन्य प्रान्तों को जीतने का निश्चय किया।
- चन्द्रगुप्त की अन्य विजयों का हमें विस्तृत वृतांत नहीं मिलता किन्तु उसके साम्राज्य के विस्तार से ही स्पष्ट है कि उसका लगभग सम्पूर्ण जीवन सैनिक कार्यों में ही बीता होगा।
- यूनानी लेखक जस्टिन तथा प्लूटार्क ने तो यह लिखा है कि उसने छः लाख सेना को लेकर समस्त भारत को पदाक्रांत कर दिया। अन्य साधनों से भी इस मत की पुष्टि होती है। अशोक के लेखों से विदित होता है कि उसका साम्राज्य दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार ने कोई विजय की हो इसका उल्लेख नहीं मिलता और अशोक ने केवल कलिंग को जीता। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के प्रदेशों को चन्द्रगुप्त ने ही जीता होगा।
- प्राचीन तमिल साहित्य में मौयों के सुदूर तिनेवली प्रदेश पर आक्रमण करने का उल्लेख है। मालवा तथा सौराष्ट्र चन्द्रगुप्त के राज्य के अंग थे, इसमें संदेह नहीं।
- जूनागढ़ में रूद्रदामन प्रथम का एक उत्कीर्ण लेख है जिससे पता लगता है कि चन्द्रगुप्त ने उस प्रदेश पर शासन करने के लिए पुष्यगुप्त नामक एक व्यक्ति को सूबेदार नियुक्त किया था और वहां सिंचाई के लिए सुदर्शन नामक झील का निर्माण कराया था।
- अशोक के समय में राजा पुशाष्क नामक एक यूनानी व्यक्ति उस प्रदेश का सूबेदार था। थाना जिले में सुपारा नामक स्थान पर अशोक का एक उत्कीर्ण लेख मिला है, इससे स्पष्ट है कि वह प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का सेल्यूकस के साथ संघर्ष
- चन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस के साथ हुआ। जिस समय चन्द्रगुप्त भारत को विजय करने में लगा हुआ था, उसी समय पश्चिम एशिया में सेल्यूकस भारत पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा था। सेल्यूकस सिकन्दर के उन सेनानायकों में था जिन्होंने उसकी मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य को आपस में बांट लिया था। उसने सिकन्दर का अनुक्रमण करते हुए 305 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर दिया। सिकन्दर द्वारा जीते गये जिन प्रदेशों पर चन्द्रगुप्त ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया था उन्हें सेल्यूकस पुनः प्राप्त करना चाहता था। लेकिन सिकन्दरकालीन भारत तथा चन्द्रगुप्तकालीन भारत में महान अंतर था। सिकन्दर को छोटे-छोटे दुर्बल भारतीय राजाओं का सामना करना पड़ा था। उसका संघर्ष उन राज्यों से हुआ था जिसमें न केवल सैनिक दुर्बलता थी, प्रत्युत् उनमें पारस्परिक द्वेष एवं ईर्ष्या भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। इसके विपरीत सेल्यूकस एक ऐसी शक्ति का सामना करने जा रहा था जो अपने राजनीतिक एवं सैनिक संगठन में अब तक भारतीय इतिहास में अद्वितीय था। आक्रमण के उद्देश्य से सेल्यूकस सिंध पहुंचा। उधर चन्द्रगुप्त ने भी देश की पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था कर ली थी। निश्चय ही यूनानी रणप्रणाली विश्व विख्यात थी और इस प्रणाली से अपरिचित किसी भी शक्ति के लिए यूनानी सेना का दमन कठिन अवश्य था। किन्तु चन्द्रगुप्त ने यूनानी शिविर में इस रणप्रणाली की शिक्षा प्राप्त की थी। अतः वह इसके चालों, नियमों और सिद्धांतों से पूर्णतया परिचित था। उसकी सेना ने सिन्ध के उस पार ही सेल्यूकस की सेना को रोक दिया। बाद में दोनों पक्षों के बीच भीषण संग्राम हुआ। इस युद्ध में चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को बुरी तरह पराजित कर दिया। सेल्यूकस को चन्द्रगुप्त के साथ संधि करनी पड़ी। इस संधि की चार शर्त थीं
चन्द्रगुप्त सेल्यूकस संधि
- वर्तमान अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान का सम्पूर्ण प्रदेश जो खैबर दर्रे से हिन्दुकुश पर्वत तक फैला था सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को दे दिया।
- सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया।
- दूत विनिमय करने का निश्चय किया गया। एक यूनानी राजदूत पाटलिपुत्र में आया।
- चन्द्रगुप्त ने पांच सौ हाथी उपहार के रूप में सेल्यूकस को भेंट किये।
चन्द्रगुप्त की इस विजय का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उत्तर पश्चिम में चंद्रगुप्त के साम्राज्य की एक निश्चित भौगोलिक सीमा निर्धारित हो गयी। इस विजय के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए वी. ए. स्मिथ ने लिखा है कि
इसके परिणामस्वरूप दो हजार वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएँ इस कदर विस्तृत हो गयीं कि उससे सैकड़ों वर्ष बाद आने वाले अंग्रेज भी इस नियमानुकूल सीमाओं को स्थापित न कर सके और मुगल सम्राट भी सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दियों में उस साम्राज्य को अक्षुण्ण नहीं रख सके।
इन विजयों के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त का राज्य काफी विस्तृत हो गया। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में मैसूर तक तथा पूर्व में कामरूप से लेकर पश्चिम में हिरात, काबुल, कंधार, बलूचिस्तान तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमाएँ हिन्दुकुश पर्वत के पश्चिम से दूर तक फैली हुई फारस की सीमा को स्पर्श कर रही थीं। इतना बड़ा साम्राज्य इससे पहले भारत में किसी राजा ने कायम नहीं किया था।
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