चन्द्रगुप्त का शासन प्रबन्ध | Chandra Gupta Maurya Ka Shasan Prabandhan
चन्द्रगुप्त का शासन प्रबन्ध
- चन्द्रगुप्त एक महान विजेता ही नहीं वरन् एक योग्य शासक भी था। उसने अपने विशाल साम्राज्य को सुव्यवस्थित शासन से दृढ़ किया। चन्द्रगुप्त स्वयं एक कुशल शासक तो था ही, उसे चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ का सहयोग भी प्राप्त था। इन दोनों ने मिलकर जिस शासन व्यवस्था की स्थापना की वह अत्यंत सुव्यवस्थित एवं उच्च कोटि की थी और जो उसके बाद शताब्दियों तक भारतीय नरेशों और सम्राटों के लिए अनुकरणीय बनी रही।
- चन्द्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का ज्ञान हमें मेगस्थनीज की 'इंडिका' तथा कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से प्राप्त होता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मेगस्थनीज की यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है, पर रोमन तथा यूनानी लेखकों द्वारा उद्धृत अंशों से हमें चन्द्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का विवरण प्राप्त होता है।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र से तो चन्द्रगुप्त के शासन की मूलभूत प्रवृत्तियों का स्पष्ट रूप हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है। कुछ विद्वान अर्थशास्त्र के रचयिता को तथा इस ग्रंथ को चन्द्रगुप्तकालीन नहीं स्वीकार करते हैं। किन्तु उनका यह संदेह अधिक मान्य नहीं है और अर्थशास्त्र को चन्द्रगुप्तकालीन अथवा उसके काफी निकट का मानना ही युक्तिसंगत है। इन दोनों साधनों के अवलोकन से हमें चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था और राजत्व काल में नागरिक जीवन के सम्बन्ध में निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती हैं
राजा की स्थिति
- मौर्य सम्राट निरंकुश होते थे। सम्राट सम्पूर्ण शासन का प्रधान होता था साम्राज्य की सारी शक्ति उसी में केन्द्रित रहती थी। व्यवस्थापिका, कार्यकारिणी, न्याय तथा सेना सम्बन्धी सभी विषयों में अन्तिम सत्ता सम्राट के हाथ में थी। वह प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश और प्रधान दण्डाधिकारी होता था। वह राजाज्ञा निकालता तथा प्रधान कर्मचारियों की नियुक्ति करता था। राज्य के आय-व्यय का निरीक्षण वह स्वयं करता था। युद्ध संचालन तथा न्याय कार्य उसके प्रधान कार्य थे, उसकी स्थिति वैधानिक राजा की नहीं थी और न जनता उस पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखती थी। यद्यपि वह अपने मंत्रियों की सलाह से ही शासन का कार्य संभालता था, परन्तु वह मंत्रियों की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं था। फिर भी वह स्वेच्छाचारी नहीं होता था। इस युग तक भारत में ऐसे अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके थे जिसमें सम्राट के कर्त्तव्यों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया गया था। सम्राट उन्हीं आदर्शों पर चलने का प्रयास करते थे।
- कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है “सुकर्म वह नहीं है जिससे केवल राजा का मनोरंजन हो, वास्तविक सुकर्म वह है जिससे प्रजा सुखी तथा प्रसन्न हो।" अतएव राजा अपनी प्रजा को पुत्र के समान समझते थे। वे अपनी शक्ति को ईश्वर प्रदत्त नहीं मानते थे और न वे अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि ही मानते थे। देश की धार्मिक तथा सामाजिक परम्पराओं का उन्हें आदर करना पड़ता था। अतएव मौर्य शासन को हम उदार निरंकुश शासन कह सकते हैं।
- राजा अपने मंत्रियों की सलाह से बहुत सोच-विचार के पश्चात ही अपना निर्णय देता था। वह प्रजा के सुख-दुःख का बड़ा ध्यान रखता था और प्रजा की शिकायतों को सुनने के लिए सदा तत्पर रहता था। चाणक्य का विचार था कि राजा को अपने द्वार पर किसी न्यायाकांक्षी प्रजाजन को अधिक समय तक प्रतीक्षा में खड़ा नहीं रहने देना चाहिए। चन्द्रगुप्त चाणक्य के इस विचार का समर्थक था। इसलिए हर समय वह अपनी प्रजा की शिकायत सुनने के लिए तैयार रहता था। मेगस्थनीज के अनुसार उसे अपने किसी भी प्रजा की शिकायत सुनने में कोई संकोच नहीं था। वह प्रजा का शोषक न होकर उनका पोषक था। संक्षेप में, उसके शासन में उदारता, न्याय और निरंकुशता का समुचित समन्वय था।
मंत्रिमण्डल
- एक व्यक्ति के लिए इतने बड़े साम्राज्य का संचालन करना सम्भव नहीं था। अतएव सम्राट की सहायता के लिए मंत्रियों की एक समिति होती थी जो मंत्रिपरिषद कहलाती थी। इसमें बारह से लेकर बीस तक अथवा आवश्यकता अनुसार कम या अधिक मंत्री रहते थे। सभी मंत्री सुयोग्य विद्वान और अनुभवी होते थे, परन्तु वे सम्राट द्वारा नियुक्त होने के कारण जनता के प्रतिनिधि नहीं थे। सम्राट अपने इच्छानुसार उन्हें नियुक्त या पृथक् कर सकता था।
- मंत्रिपरिषद् के सदस्यों का कर्त्तव्य केवल सलाह देना था। ऐसे परामर्शों को मानना या न मानना राजा के ऊपर निर्भर करता था। चाणक्य के अनुसार मंत्रियों का कार्य बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। उन्हें अड़तालीस हजार पण वार्षिक वेतन मिला करता था। वे आमात्यों की परीक्षा और उनकी नियुक्ति में सम्राट की सलाह दिया करते थे। राजकुमार पर भी उनका नियंत्रण रहता था। वे साम्राज्य की अत्यन्त गोपनीय बातों की जानकारी रखते थे और उन पर सम्राट को सलाह दिया करते थे। मंत्रिपरिषद के प्रमुख मंत्रियों के अतिरिक्त कुछ और मंत्री होते थे जिन्हें बारह सौ पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। इनका पद मंत्रिपरिषद के सदस्यों के पद से कुछ निम्न कोटि का था। इनको केवल अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण विषयों के उपस्थित होने पर ही बुलाया जाता था तथा उस समय उपस्थित सभी मंत्रियों के बहुमत के अनुसार सम्राट उपस्थित विषय पर अपना निर्णय दिया करता था। राजदूतों के स्वागत सत्कार एवं अन्य समारोहों के अवसर पर मंत्रिपरिषद के सभी सदस्य उपस्थित रहते थे।
आमात्य मंडल
- मंत्रिपरिषद के मंत्रियों के अतिरिक्त आमात्यों का एक अलग वर्ग होता था। शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय शासन कई भागों में विभक्त था, जिसको 'तीर्थ' कहते थे। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था जो आमात्य कहलाता था। इन आमात्यों के नीचे कई उपविभागों के अध्यक्ष भी होते थे। इनकी स्थिति बड़ी ही महत्त्वपूर्ण होती थी। वे मजिस्ट्रेटों का काम किया करते थे। इनमें से कुछ हाट का कुछ नगर का और कुछ सेना का प्रबंध किया करते थे। कुछ लोग नदियों का निरीक्षण करते थे और कुछ भूमि की नाप का कार्य किया करते थे। आखेट का भी इन्हें प्रबंध करना पड़ता था। वे दण्ड तथा पुरस्कार भी दे सकते थे। वे कर वसूलने का कार्य भी करते थे।
केन्द्रीय शासन में कुल अठारह विभाग थे। अतएव अठारह आमात्य रहते होंगे। इनके नाम इस प्रकार हैं
- (1) पुरोहित (2) मंत्री (3) सेनाध्यक्ष, (4) दण्डपाल अर्थात पुलिस का प्रधान, (5) दौवारिक अथवा द्वारपाल, (6) युवराज (7) दुर्गपाल अथवा गृह अधिकारी (8) अन्तपाल अर्थात् सीमारक्षाधिकारी (9) अन्तर्वशिक अथवा अन्तःपुर रक्षाधिकारी, (10) सन्निधात्री, अर्थात् राजकोष, अस्त्रागार और कोष्ठागार का अधिकारी, (11) प्रशस्त अर्थात् कारागार का अधिकारी (12) समाहर्ता अर्थात् राज्य की सम्पत्ति एवं आय-व्यय का अधिकारी (13) नायक अर्थात् नगर रक्षक, (14) प्रदेष्टा अर्थात् कमिश्नर (15) व्यावहारिक अर्थात प्रधान न्यायाधीश, (16) पौर अर्थात् कोतवाल (17) मंत्रिमण्डलाध्यक्ष तथा (18) कार्मातिक अर्थात् कारखानों का अधिकारी।
- उपर्युक्त विभागों के पदाधिकारियों के अतिरिक्त कुछ अन्य पदाधिकारी भी थे, जो निम्नलिखित विभागों के अध्यक्ष थे कोष आकार (खान) लौह (धातुएँ) लक्षण (टकसाल), लवण, सुवर्ण कोष्ठागार (भण्डार) पण्य (राजकीय व्यवसाय) कुष्प (वन विभाग) आयुधागार (शस्त्रालय), पोतब (बटखरे) शुल्क सूत्र ( कताई बुनाई), सुरा, सूना (कसाईखाना) मुद्रा (पासपोर्ट), विवीत (चारागाह) द्यूत (जुआ) बंधनागार (जेल) गौ (मवेशी), नौ (नौका), पत्तन (बन्दरगाह), गणिका, संस्था (व्यापार) देवता (मन्दिर) मान (स्थान एवं काल का माप और समय सम्बन्धी विभाग) अश्व, हस्ति पदाति तथा रथ विभाग।
Also Read....
Post a Comment