चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य Chandragupta dwitiya Vikramaditya
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ( Chandragupt II Vikramaditya)
- समुद्रगुप्त के पश्चात् गुप्तवंश का सबसे महान सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' हुआ। अपने पिता के ही समान वह योग्य सेनानी एवं कूटनीतिज्ञ था। सम्भवतः इसके इन्हीं गुणों से प्रसन्न होकर उसके पिता ने रामगुप्त को गद्दी से च्युत कर दिया था तथा चन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था।
- विशाखदत्त रचित देविचन्द्रगुप्तम् नाटक से ऐसा आभास होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त की हत्या कर गद्दी पर अधिकार कर लिया था तथा रामगुप्त की विधवा ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया था। यद्यपि इस नाटक की ऐतिहासिकता संदेहास्पद है, पर यह निश्चित है कि समुद्रगुप्त का वास्तविक उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय ही हुआ जिसकी माता का नाम दत्तदेवी था।
- चन्द्रगुप्त के विषय में जानकारी 6 महत्त्वपूर्ण अभिलेखों से मिलती है मथुरा स्तम्भलेख, उदयगिरि गुहा लेख, गढ़वा शिलालेख, सांची लेख, उदयगिरि गुफालेख, मथुराशिलालेख एवं महरौली का लौह स्तम्भलेख
- इन स्रोतों के आधार पर यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त लगभग 380 से 414-15 ई. तक शासक बना रहा। चन्द्रगुप्त द्वितीय की माता का नाम दत्तदेवी था। उसका प्रारम्भिक नाम चन्द्रगुप्त था, परन्तु सम्राट बनने के पश्चात् उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की।
- गुप्त एवं वाकाटक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का दूसरा नाम देवराज और देवगुप्त भी था। उसकी प्रथम रानी का नाम कुबेरनागा था जो एक नाग कन्या थी। इसी रानी की पुत्री प्रभावती गुप्त थी। ध्रुवदेवी अथवा ध्रुवस्वामिनी उसकी दूसरी पत्नी थी जिससे गोविन्दगुप्त एवं कुमारगुप्त का जन्म हुआ था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के वैवाहिक सम्बन्ध
- अपने समकालीन महत्त्वपूर्ण राजवंशों से विवाह सम्बन्ध स्थापित करके अपनी स्थिति को दृढ़ करना गुप्त सम्राटों की वैदेशिक नीति का एक मुख्य अंग था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवियों से नाता जोड़कर अपनी शक्ति तथा साम्राज्य का विस्तार किया था।
- समुद्रगुप्त ने भी यही नीति अपनाई थी। उसने अपने अनेक अधीन सामन्तों की कन्याओं से विवाह किया। इन सम्बन्धों से उसे नये देशों को जीतने तथा विजित देशों पर अपनी सत्ता कायम रखने में बड़ी सहायता मिली होगी।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए तत्कालीन महत्त्वपूर्ण शक्तियों के साथ वैवाहिक संबंध कायम किए।
- सर्वप्रथम उसने नाग वंश की एक राजकुमारी कुबेरनागा से अपनी शादी की। इससे उसे प्रभावतीगुप्त नामक पुत्री की उत्पत्ति हुई जिसका विवाह उसने वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया। इन वैवाहिक संबंधों से नागों एवं वाकाटकों की मैत्री सहज ही प्राप्त हो गयी। नागों से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण वाकाटकों से वैवाहिक संबंध था।
- गुप्तकाल में वाकाटक नरेश काफी शक्तिशाली थे। यद्यपि समुद्रगुप्त ने वाकाटक नरेश रुद्रसेन (रुद्रदेव) को पराजित कर उसे कमजोर बना दिया था फिर भी रुद्रसेन द्वितीय ने मध्य दक्षिणी भारत में अपनी शक्ति काफी बढ़ा ली थी और वह एक महत्त्वपूर्ण शासक बन गया था। उसका प्रभाव भी ऐसे क्षेत्र में था, जहाँ से वह गुजरात और सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों के विरुद्ध किसी भी उत्तर भारतीय राजा के अभियान में मदद या बाधा पहुँचा सकता था।
- संभवत: चन्द्रगुप्त ने इस स्थिति का अन्दाज कर लिया था और इसीलिए उसने वाकाटक नरेश से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। इस विवाह के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त की बिना कठिन परिश्रम के ही एक महत्त्वपूर्ण शक्ति से मित्रता हो गयी।
- वाकाटकों के अतिरिक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कुन्तल नरेश से भी मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। कुन्तल (बम्बई का दक्षिणी तथा मैसूर का उत्तरी भाग) पर कदम्ब वंश के शासकों का अधिकार था। कुन्तलेश्वर के साथ चन्द्रगुप्त द्वितीय के घनिष्ठ संबंध का प्रमाण उपलब्ध है। महाकवि भोज के शृंगार प्रकाश में कालिदास तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच कुन्तल के राजा के विषय में बात चीत होने का उल्लेख किया गया है।
- सम्भवतः कालिदास को अपना राजदूत बनाकर चन्द्रगुप्त ने कुन्तल शासक के यहाँ भेजा था। कदम्ब शासक मयूरशर्मन का पुत्र और पौत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय के समवर्ती शासक थे। तालगुण्डा प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कुन्तल नरेश (संभवतः ककुत्स्यवर्मन) ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से किया था।
- क्षेमेन्द्र की औचित्य विचार चर्चा से भी इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि होती है, इसके अलावा शान्तिवर्मन के तालगुण्डा अभिलेख के अनुसार कदम्ब शासक ककुत्स्यवर्मन ने गुप्तवंश एवं अन्य वंशों के साथ वैवाहिक संबंध कायम किए।
- डॉ. दिनेशचन्द्र सरकार का सुझाव है कि कदम्ब राजा ने अपनी एक पुत्री का विवाह नरेन्द्रसेन (वाकाटक) तथा दूसरी का विवाह चन्द्रगुप्त के पुत्र या पौत्र के साथ किया था। इन वैवाहिक संबंधों के द्वारा 'विक्रमादित्य' ने तत्कालीन महत्त्वपूर्ण शासकों को अपना हितैषी बना लिया। इन शासकों की मित्रता ने गुप्त साम्राज्य को भरपूर सुरक्षा प्रदान की। कुछ विद्वानों ने तो चन्द्रगुप्त के विजय अभियानों से भी ज्यादा महत्त्व उसके वैवाहिक संबंधों को ही दिया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के विजय अभियान
- हिन्दू अनुश्रुतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय को एक अत्यन्त पराक्रमी विजेता के रूप में याद किया जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने पिता की ही तरह वीर और महत्त्वाकांक्षी था। किन्तु उसे एक विशाल साम्राज्य विरासत में मिला था, इसलिए साम्राज्य निर्माण का कार्य उसे प्रारम्भ से नहीं करना पड़ा था फिर भी देश की सीमाओं के भीतर अनेक ऐसे शासक थे जो केवल नाम मात्र को गुप्त सम्राट की प्रभुता स्वीकार करते थे। इनमें मालवा और सौराष्ट्र के शक और पश्चिमी पंजाब के कुषाण अधिक शक्तिशाली थे शकों पर विजय प्राप्त करने के लिए चन्द्रगुप्त ने एक विशाल सेना का निर्माण किया और पूरी तैयारी के बाद उन पर आक्रमण किया। चन्द्रगुप्त के युद्ध तथा शान्ति मन्त्री वीरसेन का मालवा में उदयगिरि की पहाड़ी में एक लेख प्राप्त हुआ है। वीरसेन सम्राट के साथ स्वयं मुहिम पर गया था। लेख से पता लगता है कि भिलसा के मार्ग से गुप्त सेनाओं ने प्रयाण किया था। युद्ध में क्षत्रप रुद्रसिंह तृतीय हारा और मारा गया। चन्द्रगुप्त की यह विजय हर दृष्टि से पूर्ण निर्णायक सिद्ध हुई।
- मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र गुप्त साम्राज्य के अंग बन गये साम्राज्य की सीमाएँ पश्चिमी समुद्र तक फैल गयीं। इससे आन्तरिक तथा वैदेशिक दोनों प्रकार के व्यापार को बहुत प्रोत्साहन मिला। पश्चिमी समुद्रतट के व्यापारिक नगर तथा बन्दरगाहों पर गुप्त सम्राटों का अधिकार हो जाने से साम्राज्य की आर्थिक दृष्टि से बहुत उन्नति हुई। इन बन्दरगाहों के द्वारा पश्चिमी देशों के साथ अच्छा व्यापार चलता था। विजित प्रदेश अत्यन्त उर्वर थे। इससे राज्य की आय बहुत बढ़ गयी। इस विजय का एक और भी महत्त्वपूर्ण परिणाम हुआ। उज्जैन, जो विद्याकला और साहित्य का केन्द्र थी, साम्राज्य की दूसरी राजधानी बन गयी।
- इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय ने और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त कीं। दिल्ली में कुतुबमीनार के पास लौह स्तम्भ है, उस पर चन्द्र नामक एक राजा की विजयों का वर्णन है उसमें लिखा है कि चन्द्र ने बंग में शत्रुओं के एक संघ का नाश किया और सिन्धु के सात मुहानों को पार करके वाह्नीक को जीता। यह चन्द्र सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ही था। इतिहास में अन्य किसी ऐसे चन्द्र राजा का पता नहीं है जिसने पूर्व में बंगाल तक और पश्चिम में सिन्धु नदी के उस पार तक विजयपताका फहरायी हो। ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल के छोटे-छोटे सामन्तों ने, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने अधीन कर लिया था, गुप्त सम्राट के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा खड़ा किया और उसने प्रभुत्व का जुआ उतार फेंकने की कोशिश की, किन्तु वे पराजित हुए और सम्भवतः अब सम्पूर्ण बंगाल सीधा गुप्त शासन के अन्तर्गत आ गया।
- पश्चिमोत्तर में चन्द्रगुप्त ने पश्चिमी पंजाब तथा अफगानिस्तान के कुषाण शासकों पर आक्रमण किया होगा। यदि हम वाह्लीक का अर्थ बलख (बैक्ट्रिया) लगायें, तब तो हमें मानना पड़ेगा कि चन्द्रगुप्त को जो सफलता मिली वह कभी किसी हिन्दू राजा को न प्राप्त हो सकी थी, यहाँ तक कि चन्द्रगुप्त मौर्य भी वहाँ तक न पहुँच सका था। किन्तु चन्द्रगुप्त का यह दावा सत्य भी हो तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी विजयों के कोई स्थायी राजनीतिक परिणाम क्योंकि इस बात का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है कि बंगाल की भाँति सम्पूर्ण पंजाब और अफगानिस्तान कभी गुप्त साम्राज्य के अंग थे। इसीलिए कुछ विद्वानों ने वाह्लीक का अर्थ व्यास नदी की घाटी लिया है। यदि यह भी मान लिया जाये तो भी चन्द्रगुप्त की सैनिक सफलताएँ आश्चर्यजनक थीं, इसमें सन्देह नहीं कहा जाता है कि इन विजयों के स्मारकस्वरूप ही चन्द्रगुप्त ने विष्णुपद पहाड़ पर लौह स्तम्भ खड़ा किया था, जिसे ग्यारहवीं शताब्दी में राजा अनंगपाल दिल्ली उठा ले गया।
- इन विजयों के फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य का विस्तार काफी अधिक हो गया। उसमें समस्त बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश का कुछ भाग, समस्त मध्यभारत, गुजरात और कठियावाड़ के प्रदेश सम्मिलित थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधियाँ
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पराक्रम, प्रताप तथा दिग्विजयों के कारण अनेक उपाधियाँ धारण कीं। जैसे विभिन्न छोटे-छोटे गणराज्य का अन्त करके 'गणारि' और शकों पर विजय के पश्चात् 'शकारि' की उपाधि धारण की। अपनी दिग्विजयों के उपरान्त उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। उसकी अन्य उपाधियों में 'नरेशचन्द्र’, ‘सिंहचन्द्र', 'सिंहविक्रम', 'देवराज', 'देवश्री' तथा 'देवगुप्त' भी कहा गया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की राजधानियाँ
- प्रायः यही माना जाता है कि चन्द्रगुप्त के समय पाटलिपुत्र ही गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी परन्तु जब शकों ने आक्रमण की तैयारी की तो उसने गुप्त साम्राज्य की अस्थायी राजधानी पूर्वी मालवा में विदिशा बनायी। शकों के प्रभाव के पश्चात् उनकी राजधानी उज्जैन हो गयी। चन्द्रगुप्त द्वितीय को श्रेष्ठतम नगर उज्जैन का स्वामी' और 'सर्वश्रेष्ठ नगर पाटलिपुत्र' का स्वामी कहा गया है। सम्भवतः पश्चिमोत्तर क्षेत्र में विजय अभियान के समय अयोध्या भी उसकी राजधानी रही हो। ऐसा वसुबन्धु की जीवन कथा में उल्लेख किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि उसने उज्जैन से उत्तरी भारत की ओर जाने वाले प्रमुख राजमार्ग पर स्थित कोशाम्बी को भी अपनी अस्थायी राजधानी बनाया था। एलन के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वारा चलाये गये ताँबे के सिक्के प्रायः अयोध्या तथा उसके निकट पाये गये हैं।
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चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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