इतिहास की बदलती अवधारणाएँ Changing concepts of history
इतिहास की बदलती अवधारणाएँ Changing concepts of history
भारतीय इतिहास की अवधारणाएँ
- एक धारणा विशेषकर पश्चिमी विद्वानों द्वारा फैलाई गई कि प्राचीन काल के भारतीयों में इतिहास लेखन का कोई बोध नहीं था । मगर यह सही नहीं है । वास्तव में भारतीयों का इतिहास लेखन बोध पश्चिमी लोगों से भिन्न था।
- पश्चिम में घटनाओं को कालक्रम के अनुसार लिखा जाता था जबकि प्राचीन भारत की पद्धति इससे भिन्न थी। इसका उदाहरण हम पुराणों में देख सकते हैं जिनमें चार विभिन्न युगों - सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का उल्लेख है और हर युग के शासकों और राजवंशों की विस्ततृ सूची भी हमें मिलती है। इसके अतिरिक्त उत्कीर्ण लेखों की भी बड़ी संख्या मिली हैं जिनमें विभिन्न राजवंशों के राजाओं की वंशावलियों का और साथ ही उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि भारतीयों को घटनाओं के समय (काल) और स्थान का बुनियादी बोध था ।
- प्राचीन भारत के इतिहास में आधुनिक खोज 1765 में आरंभ हुई जब बंगाल और बिहार ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गए। हिंदू विधि व्यवस्था लागू करने के लिए भारतीय विधि के प्राचीन ग्रंथ 'मनुस्मृति ' का 1776 में अंग्रेजी में अनुवाद किया गया।
- अंग्रेजों ने प्राचीन (भारतीय) नियमों और आचारों को जानने-समझने के जो आरंभिक प्रयत्न किए थे, उन्हें सन् 1784 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना के साथ पूर्णता प्राप्त हुई तथा ऐसी अन्य कई सोसाइटियों के तत्त्वावधान में हिंदू धार्मिक तथा शास्त्रीय लेखन का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ इस के अध्ययन को सबसे अधिक बल जर्मनी में जन्मे विद्वान मैक्समूलर के प्रयत्नों से मिला ।
- अंग्रेजों ने भी जल्द ही समझ लिया कि भारतीयों पर अच्छी तरह से शासन करने के लिए उनके धर्मग्रंथों और समाज व्यवस्थाओं का ज्ञान आवश्यक है।
- ईसाई मिशनरियों ने भी भारतीयों का धर्मांतरण करने और ब्रिटिश शासन को सुदढ़ करने के लिए भारतीय कानूनों और रीति-रिवाजों की अधिक जानकारी हासिल करने की ज़रूरत को महसूस किया था।
- भारतीय लेखन का अनुवाद करते हुए पश्चिमी विद्वानों ने जताया कि भारतीय परिवर्तन के प्रति अनिच्छुक होते हैं और अत्याचारी शासन के अभ्यस्त हो चुके हैं।
- सन 1904 में विन्सेंट ए. स्मिथ ने 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया' लिखी। यह प्राचीन भारत का पहला व्यवस्थित इतिहास था । लेखक ने इसमें इतिहास को ब्रिटिश दृष्टिकोण से देखा है और भारत में ब्रिटिश शासन को आवश्यक ठहराने की चेष्टा की है। अंग्रेजों के तानाशाही शासन को बनाए रखने के लिए इसने अच्छी प्रचार साम्रगी का काम किया।
- भारतीय विद्वान, विशेषकर वे जो पश्चिमी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे, इस बात से बड़े परेशान थे कि अंग्रेज़ लोग भारतीय इतिहास को अपने नज़रिये से अपने हित के अनुसार तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे थे।
- राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उनमें से कुछ ने इतिहास को फिर से लिखने का दायित्व उठाया ताकि भारतीय संस्कृति के वास्तविक गौरव को दुनिया के सामने लाया जा सके । इस प्रकार के दो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय इतिहासकार थे, आर. जी. भंडारकर (1837 1925) और वी. के. राजवाडे (1869-1926) जिन्होंने अनेक स्रोतों से सामग्री एकत्रित करके सामाजिक और राजनीतिक इतिहास की पुनः रचना की ऐसा करते हुए उन्होंने बाल विवाह और जाति प्रथा जैसी कुछ सामाजिक बुराइयों पर प्रहार भी किए और विधवाओं के पुनर्विवाह की हिमायत भी की।
- पी. वी. काणे (1880-1972) का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होने 'हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र शीर्षक एक विराट ग्रंथ रचना की जिसमें प्राचीन भारतीय समाज के प्रमुख तत्वों पर प्रकाश डाला गया था
- इन भारतीय विद्वानों ने राजनीति संबंधी प्राचीन भारतीय ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया ताकि प्राचीन भारतीयों की प्रशासन संबंधी बुद्धि को प्रमाणित किया जा सके।
- डी. आर. भंडारकर (1875-1950) पुरालेख विद्या के विद्वान थे। वे प्राचीन भारतीय सामाजिक संस्थाओं पर लिखे हुए ग्रंथ प्रकाशित किया करते थे।
- एच. सी. रायचौधरी (1892 - 1957) ने प्राचीन भारत के इतिहास का पुनः लेखन किया और इस क्रम में कई बिंदुओं पर वी. ए. स्मिथ की आलोचना की।
- आर. सी. मजूमदार (1888-1980) के लेखन में यह बात और भी मजबूती से उभरती हैं। उन्होंने कई खंडों में 'हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल' का संपादन किया।
- 1960 तक राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित भारतीय विद्वान अपने-अपने क्षेत्रों के और भारत के इतिहास के गौरव को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते रहे ।
- अंग्रेजों ने प्राचीन भारतीय शासकों के अत्याचारी और निरंकुश होने का जो मिथक गढ़ा था, उसे तोड़ने का श्रेय के. पी. जायसवाल (1881-1937) को जाता है। उन्होंने प्राचीन भारत में गणतंत्र और स्वशासन के अस्तित्व के बारे में लिखा ।
स्वतंत्रता के बाद इतिहास लेखन
- स्वतंत्रता के बाद इतिहास लेखन में एक नई प्रवत्ति छाने लगी। अब राजनीतिक इतिहास से हटकर समाज और अर्थव्यवस्था के इतिहास पर अधिक बल दिया जाने लगा । इस प्रकार की पहली रचनाओं में से एक थी ए. एल. बाशम (1914-1986) लिखित 'द वॉण्डर दैट वॉज़ इंडिया' ।
- डी. डी. कोसांबी (1907-1966) के ग्रंथ 'एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में यह परिवर्तन और भी स्पष्ट हुआ उनका लेखन प्राचीन भारतीय इतिहास के सामाजिक-आर्थिक पक्ष को लेकर चला है । उनके पश्चात बहुत सारे इतिहासकारों ने इस प्रव त्ति का अनुसरण किया और अपने लेखन को सामाजिक, आर्थिक और सांस्क तिक इतिहास पर केंद्रित किया। उनका प्रमुख बल उत्पादन के साधनों और विभिन्न समूहों के व्यक्तियों के बीच के सामाजिक तथा आर्थिक संबंधों पर रहा।
भारतीय इतिहास की विषयवस्तु
- अतीत के संपूर्ण ज्ञान के लिए विद्यार्थियों को समाज के विभिन्न पक्षों के प्रति जागरूक करना आवश्यक है। इन पक्षों को 'विषयवस्तु' कहा जाता है।
- सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्क तिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ भी घटनाएँ हुई उनके बारे में हमें जानकारी मिलती है। इन तमाम क्षेत्रों में हुई घटनाएँ परस्पर इतनी अधिक सम्बंधि त होती हैं कि इनके बीच की सीमाएँ अक्सर टूट जाती हैं।
- उदाहरण के लिए, जब प्रारंभिक वैदिक युग का गोपालक समाज उत्तर वैदिक काल में बस्तियों में बसे क षक समाज में बदला तो परिणामस्वरूप राजनीतिक पद्धति में भी परिवर्तन आया । गोपालक समाज में राजा गोपति कहलाता था।
- कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास के साथ वह भूपति कहलाने लगा। साथ ही अब युद्ध दूसरों की गायें छीनने के लिए नहीं बल्कि अधिक भूमि हासिल करने के लिए होने लगे।
- राजा क्रमशः अधिक शक्तिशाली होने लगे और राजा का पद वंश परंपरा से मिलने लगा तो हम देखते है कि विभिन्न क्षेत्रों के परिवर्तन एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं। प्रायः उनका प्रभाव बड़ी-बड़ी घटनाओं पर पड़ता है।
Also Read....
Post a Comment