चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध | चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय प्रशासन | Charda Gupt Secon Ka Prabandhan
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय प्रशासन
- चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता होने के साथ-साथ सफल शासक भी था। उसने अपने विशाल राज्यों को संगठित कर उनकी शासन व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध किया। उसका शासन एकतन्त्र शासन प्रणाली पर आधारित था। सारे राज्य का प्रशासन साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र से संचालित होता था।
- राजा वंशानुगत होते थे। सारी सत्ता चन्द्रगुप्त के हाथ में होते हुए भी वह निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी सम्राट नहीं था। धर्म, नीति, परम्पराएँ तथा मंत्रिमंडल उसकी निरंकुशता पर अंकुश थे। सम्राट प्रजावत्सल था। वह सेना का स्वयं प्रधान सेनापति तथा राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश भी था। युद्ध के समय वह स्वयं वीर योद्धा के समान युद्ध करता था।
- उसकी सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् थी जिसके मंत्रियों का पद पैतृक होता था। उसका प्रधान मंत्री 'मंत्रिन' कहलाता था।
- शांति विग्रहिक' युद्ध, शांति तथा संधि का मंत्री होता था। वीरसेन उसका ऐसा मंत्री था जो मंत्री प्रशासन संभालता था, वही सेना की भी देखभाल करता था।
- प्रशासन की सुविधा के लिए सारे साम्राज्य को प्रान्तों में विभाजित कर दिया गया था जिन्हें 'देश' या 'मुक्ति' कहते थे। इसके सर्वोच्च अधिकारी को 'गोत्री', मुक्ति के अधिकारी को 'उपरिक' कहा जाता था।
- प्रत्येक प्रान्त जिलों में विभाजित था जिन्हें प्रदेश या 'विषय' कहा जाता था। इसके सर्वोच्च अधिकारी को 'विषयपति' कहा जाता था।
- प्रत्येक विषय कई नगरों तथा गाँवों से मिलकर बना था। गाँव के शासक को 'ग्रामिक' कहते थे। गाँव के मुखिया को यह पद प्राप्त होता था। ग्रामिक की सहायता के लिए गाँव की पंचायतें होती थीं।
- केन्द्रीय तथा प्रान्तीय अधिकारियों की पृथक्-पृथक् पदवियाँ होती थीं। जैसे–'उपरिक', 'बलाधिकरण', 'रण मंडाधि 'करण', 'महादंडनायक', 'महाप्रतिहार', 'मश्वपति' आदि।
- उसके समय सारे न्यायालय चार श्रेणियों में विभक्त थे। सम्राट न्याय का प्रमुख था। वह स्वयं मुकदमें सुनकर फैसला देता था। अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता था। भयंकर अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाता था। राजद्रोहियों का दाहिना हाथ काट लिया जाता था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में शांति और सुव्यवस्था होने के कारण व्यापार तथा उद्योग धन्धों का खूब विकास हुआ। इस समय भारत का पश्चिमी तटीय राष्ट्रों से समुद्री व्यापार भी होता था। आन्तरिक व्यापार भी उन्नति पर था। व्यापार विनिमय के लिए विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता था।
- चन्द्रगुप्त ने सुन्दर तथा कलापूर्ण, सोने, चांदी व ताम्बे के सिक्के प्रचलित किये। वह बड़ा धर्मपरायण, उदार तथा दानी सम्राट था। वह दीन-दुखियों, अनाथों तथा पीड़ितों को सदैव दान देता था। धार्मिक अवसरों पर वह ब्राह्मणों को खूब दान देता था। उसने एक अधिकारी के नियन्त्रण में दान विभाग की स्थापना की।
- चन्द्रगुप्त ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा विष्णु का उपासक था। परन्तु शैव, बौद्ध तथा जैन धर्म आदि सभी के प्रति सहिष्णु था। राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी।
- चन्द्रगुप्त एक मंत्री बौद्ध था तथा दूसरा वैष्णव इस तरह उसने बड़ी योग्यता से अपने विशाल साम्राज्य को लम्बे समय तक कायम रखने के लिए पूर्ण व्यवस्था की स्थापना की तथा प्रशासन के प्रत्येक अंग का प्रजा के हितों को ध्यान में रखते हुए निरीक्षण किया।
Also Read...
गुप्त कौन थे ? गुप्तों की जाति और उत्पत्ति
समुद्रगुप्त की विजय और साम्राज्य का संगठन
समुद्रगुप्त की शासन प्रणाली |समुद्रगुप्त का मूल्यांकन
समुद्रगुप्त के बाद गुप्त वंश का इतिहास -रामगुप्त
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
Post a Comment