सिन्धु सभ्यता के लोगों का आर्थिक जीवन |Economic life of the people of Indus civilization

सिन्धु सभ्यता के लोगों का आर्थिक जीवन

सिन्धु सभ्यता के लोगों का आर्थिक जीवन |Economic life of the people of Indus civilization
 

प्राचीन काल या आधुनिक काल में भी किसी देश की आर्थिक स्थिति का अच्छा या बुरा होना उत्पादन पर निर्भर करता है। आवश्यकता से जितना अधिक उत्पादन होगा आर्थिक अवस्था उतनी ही मजबूत होगी।

 

सिन्धु सभ्यता में कृषि

  • भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। सिन्धु काल में भी वहां के निवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। कृषि सम्बंधी बचत के आधार पर ही वहां के लोगों ने एक सुखदायी सभ्यता का निर्माण किया। इस काल का मानव प्रकृति से अधिक नजदीक था। जो कुछ भी वह पाता था उसमें प्रकृति का बहुत बड़ा हाथ रहता था। 
  • कृषि के लिए समतल मैदान एवं सिंचाई के लिए जल की आवश्यकता थी। सिन्धु नदी के समीप बाढ़ वाले समतल इलाकों में खेती की जाती थी। इस क्षेत्र में जल भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। आरम्भ में तो सिन्धु घाटी के बाढ़ वाले समतल भू-भाग पर मुलायम मिट्टी रहने के कारण खेती आसानी से कर ली जाती थी। लेकिन मुलायम मिट्टी नहीं रहने पर खेत जोतने में काफी दिक्कतों का सामना सिन्धुवासियों को करना पड़ता होगा।
  • खेत जोतने के लिए जहां एक हल का प्रश्न है, कृषि के लिए मौलिक यंत्र का प्रमाण हमें कालीबंगन से पूर्व हड़प्पा काल से प्राप्त हुआ है। लेकिन हल के द्वारा खेत जोतने का प्रमाण हमें बिल्कुल नहीं मिलता है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि सिन्धु काल के पहले आधुनिक भारत-पाकिस्तान के इन क्षेत्रों में इतनी अधिक जनसंख्या एक क्षेत्र में कभी भी एकत्र नहीं हुई थी। फलतः एक विकसित कृषि व्यवस्था ही इतनी बड़ी आबादी का भरण-पोषण कर सकती थी। अतः अनुमान किया जा सकता है कि सिन्धुवासी खेती में हल का भी प्रयोग करते होंगे। हल लकड़ी के बनाये जाते होंगे, जो काल के साथ नष्ट हो गये होंगे। इस क्षेत्र की खुदाई से नहर की भी कोई जानकारी नहीं मिलती हैं। 
  • आधुनिक काल की तरह सिन्धु क्षेत्र की भूमि शुष्क एवं वृष्टिहीन नहीं थी। कुछ नदियों जैसे सिन्धु, मिहरान और उनकी सहायक नदियों से सिंचाई का काम हो जाता था। अतः सिंचाई के लिए किसी औजार की आवश्यकता नहीं पड़ती थी और इसीलिए खुदाई से किसी प्रकार के औजार सिंचाई से सम्बंधित नहीं मिले हैं। 
  • विद्वानों का ऐसा भी मत है कि उस काल में यहां पर्याप्त वर्षा होने के कारण नहरों के निर्माण की आवश्यकता नहीं पड़ी हो। मुख्य अनाजों को बाढ़ का पानी हटने के तुरन्त बाद ही बो दिया जाता होगा। जब ये फसलें बढ़कर पक जाती होंगी तो मार्च-अप्रैल महीने में काट ली जाती होंगी। फिर अन्य फसलों को बांध से सुरक्षित खेतों में बोया जाता होगा। ऐसा प्रायः बाढ़ आने के पहले होता होगा ताकि बाढ़ के पानी से इसकी सिंचाई हो सके। इस समय की फसल को सितम्बर-अक्टूबर में काटा जाता होगा। 


सिन्धु सभ्यता के फल एवं अनाज

  • सिन्धु नगरों में दो प्रकार के गेहूं तथा तीन प्रकार के जौं पाये गये हैं। दो प्रकार के गेहूं में एक था गाँठदार तथा दूसरा बौने आकार का। 
  • हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के क्षेत्रों में छह धारियों वाले जौ बौते थे। मटर एवं छुहारे के अलावे सरसों की भी खेती होती थी। लोथल नामक नगर में खुदाई से चावल पाया गया है परन्तु यह पता नहीं चल सका है कि यह कृषि द्वारा उपजाया जाता था या जंगली अवस्था में मिलता था। अनाजों को गोदामों में रखा जाता था। लोग कपास भी पैदा करते थे। 
  • हड़प्पावासी फलियां, तिल तथा तरबूज से भी परिचित थे खुदाई से खजूर के बीज भी मिले हैं। झुमका नामक आभूषण खुदाई से मिला है। जिसका आकार नींबू के समान हैं। इससे पता चलता है कि यहां लोग नींबू तथा उसकी जाति, फूलों से भी परिचित थे। इस तरह इस क्षेत्र में विभिन्न तरह के अनाज, फल और तरकारियां पैदा की जाती थीं। सिन्धुवासी तरकारी और सागभाजी खाना बहुत पसंद करते थे। 
  • गेहूं या दूसरे अनाजों को पीसकर आटा बनाने के लिए पट्टियां होती थीं। अनाज कूटने के लिए हड़प्पावासी ओखली का प्रयोग करते थे। ओखली और मूसल के सहयोग से कूटने की प्रथा की शुरुआत का सम्बंध अप्रत्यक्ष रूप से विद्वानों ने लिंग और योनि की पूजा से लगाया है, जिसके संयोग से उत्पादन होता है। इसी भावना के आधार पर मिट्टी का बर्तन बनाने के लिए चाक का प्रयोग शुरू हुआ।

 

सिन्धु सभ्यता में पशुपालन

  • आर्थिक दृष्टिकोण से पशुओं का बड़ा महत्त्व था। इसलिए सिन्धुवासी कई तरह के पशुओं जैसेगाय, बैल, भैंस, सूअर आदि पालते थे। 
  • यहां के कई प्राचीन नगरों की खुदाई हुई है और भेड़, सूअर, हाथी, बैल, भैंस, गाय आदि की हड्डियां मिली हैं। 
  • खुदाई से प्राप्त हड्डियों के ही सहारे हमें पता चलता है कि वे लोग कुत्ता, गधा आदि से भी परिचित थे। सिन्धुवासी मांसाहारी थे। वे मछुआ, भेड़, बकरी, सूअर, घड़ियाल और गाय का मांस खाना अधिक पसंद करते थे। मांस ये लोग सीधे आग में डालकर भूनकर नहीं खाते थे बल्कि चकमक पत्थर को घिस कर उसकी धार को तेज किया जाता था और उसी से मांस को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता था। 
  • सिन्धु क्षेत्र में अनेक प्रकार के जंगली पशु भी पाये जाते थे। इन पशुओं में मुख्य थे रीछ, चीता, गैंडा, बन्दर, दरियाई घोड़ा, शेर तथा खरगोश। इतना ही नहीं, ये सिन्धुवासी छोटे-छोटे जानवरों जैसे नेवला, बिल्ली, गिलहरी, मोर, तोता, मुर्गी आदि से भी परिचित थे। सम्भवतः वहां के निवासी घोड़ा से परिचित नहीं थे। पशुओं को मारने के लिए ये लोग शिकार भी करते थे। शिकार से प्राप्त पशुओं को ये मारकर खाया करते थे। अधिक दिनों तक कभी-कभी मांस को रख देने से वह विषैला हो जाता था। फलतः उसे खाने से लोगों की मृत्यु भी हो जाती थी।
  • कभी-कभी कृषि की रक्षा के लिए भी पशुओं को मार दिया जाता था तथा उनकी हड्डियों से कई तरह के सामान बनाये जाते थे। 

सिन्धु सभ्यता में वस्त्र उद्योग

  • मोहनजोदड़ो में खुदाई से कपास से बना हुआ कपड़ा मिला है। सबसे पहले कपास इसी क्षेत्र में पैदा होने के कारण इसका नाम सिन्धु नदी के नाम पर सिन्ध पड़ गया। बाद में चलकर यूनानियों के द्वारा इसे सिण्डन कहा जाने लगा। यहां का सूती कपड़ा मेसोपोटामिया द्वारा आयात किया जाता था। 
  • सिन्धु क्षेत्र में कताई-बुनाई का प्रबन्ध बहुत उत्तम किस्म का था। हड़प्पा में पाये मिट्टी के बर्तनों तथा ईंटों पर यहां के बने हुए कपड़ों की छाप हैं। टूटी-फूटी अवस्था में कुछ मूर्तियां भी मिली हैं, जिनको देखने से यहां के लोगों की वेषभूषा के सम्बंध में थोड़ी बहुत जानकारी होती है। 
  • सिन्धु लोग ऊनी तथा रेशमी वस्त्रों का भी निर्माण करते थे। इन वस्त्रों पर वे लोग कई तरह की आकृतियों का चित्र भी बनाते थे। कपड़ों की छपाई में ये लोग बड़े निपुण थे। कपड़ा बुनने का काम बुनकर करते थे, जिनको अपनी कला में गहरी पैठ थी।

 

सिन्धु सभ्यता में शिल्पकला 

  • सिन्धु घाटी सभ्यता में अनेक प्रकार की शिल्प कलायें देखने को मिलती हैं। कृषि एवं पशुपालन के अलावा शिल्पकला भी यहां विकसित थी। अनेक तरह के शिल्पकारों के बारे में खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर पता चलता है। 
  • खुदाई से प्राप्त सामग्री से ही हम जानते हैं कि यहां के लोग सोने, चांदी, मोती, बिल्लौर, नीलम, हाथी दांत आदि के आभूषण पहनते थे। ये आभूषण स्वर्णकारों के द्वारा बनाये जाते थे। इसकी जानकारी खुदाई से प्राप्त एक घड़े के आधार पर होती है जिसमें सोना-चांदी के अनेक आभूषण के टुकड़े मिले हैं। कुम्हारों द्वारा विभिन्न प्रकार के सामान बनाये जाते थे। 
  • ये लोग चाक पर आकर्षक तथा कलात्मक खिलौना बनाते थे। खाद्य पदार्थ रखने के लिए बर्तन तथा अनाज रखने के लिए मटके व नाद भी ये ही बनाते थे। इन शिल्पकारों द्वारा बनाये गये मिट्टी के बर्तनों की चित्रकला तथा पॉलिश अति उच्च कोटि की थी।
  • मिस्र तथा सुमेर के निवासी भी इनकी कला का मुकाबला करने में असमर्थ थे। ये कुम्हार अपना बर्तन चाक पर बनाया करते थे। मिट्टी के खिलौने के अलावा ये चूहेदान तथा पिंजड़ा भी बनाया करते थे। लोहे का काम करने वाले लोहार भी भिन्न-भिन्न तरह का सामान बनाया करते थे। बढ़ईगिरी का काम भी होता था। लकड़ी के औजार तथा खिलौने बनाये जाते थे। 
  • ये बढ़ई बैल से चलने वाली गाड़ी (बैलगाड़ी) भी बनाते थे, जिस पर सामान लादकर या बैठकर दूर-दूर तक सिन्धुवासी जाते थे। यह गाड़ी लकड़ी की बनी होती थी।
  • कुछ शिल्पकार एवं बुनकर सूती कपड़ा भी काफी मात्रा में बनाते थे, जिन्हें पश्चिम के देशों में निर्यात किया जाता था। 
  • ये लोग ऊनी तथा रेशमी कपड़े भी बनाते थे। ऊनी तथा रेशमी कपड़ों पर सुन्दर सुन्दर फूल तथा आकृतियां बनायी जाती थीं।

 

सिन्धु सभ्यता में तकनीक तंत्र एवं धातु प्रयोग

  • सिन्धु क्षेत्र में अनेक प्रकार के धातुओं जैसे- सोना, चांदी, ताम्बा, पीतल आभूषण एवं दूसरे प्रकार के सामान बनाये जाते थे। 
  • लेकिन इस सम्पूर्ण काल में ताम्बा और पीतल ही प्रमुख धातु थे। सिन्धु घाटी के निवासी ही सबसे पहले चांदी का उपयोग करना सीखे। 
  • सोने के अभाव में यह अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित था। चूंकि इस सभ्यता को पीतल बनाने का ज्ञान प्राप्त हो चुका था इसलिए इसे पीतल युग भी कहा जाता है।
  • खंडहरों एवं खुदाई से जो कुछ भी अवशेष मिले हैं वे हैं- कुल्हाड़ियां, छुरियां, बछें, तीर, आरियां एवं अस्तुरे ये सारे औजार साधारण तौर पर धातु को ढालकर या पीटकर बनाये जा सकते थे। इस काल में पीतल ताम्बे की तुलना में बहुत कम पाया गया हैं।
  • पीतल का ज्ञान भी कुछ दिनों के बाद ही हुआ था। ताम्बे की तुलना में पीतल की जानकारी बाद में होने से पता चलता है कि पीतल बनाने की प्रक्रिया की जानकारी बाद में हुई। ताम्बे में टीन मिलाकर पीतल बनाने का ध्यान सिन्धु क्षेत्र में विकास का एक नया चरण था। 
  • हड़प्पा से प्राप्त ताम्बे और पीतल के बर्तन बहुत ही उच्च कोटि के हैं। बर्तन अधिकतर धातुओं को पीटकर बनाया जाता था। धातुओं की छोटी मूर्तियाँ ढालकर बनायी जाती थीं। इस ढालने की प्रक्रिया को बन्द ढलाई और लुप्त मोम प्रक्रिया कहा जाता है। उदाहरण के लिए भालों में मध्य शलाका नहीं है। मध्य शलाका के अभाव में भाला काफी मजबूत नहीं हो सकता। 
  • सिन्धु समाज में रंगीन मिट्टी की वस्तुएं बनाने की कला भी विकसित थी। ऐसे पदार्थ को फेयाज कहा जाता है। फेयाज से अधिकतर हार के दाने, तावीज, मोहरे एवं छोटे बर्तन बनते थे। हार के दाने एवं मोहरें पत्थर के भी बनते थे। 
  • मोहरे अधिकतर वैसे पत्थर से बनायी जाती थीं जिन पर ताम्बे की छेनी से चिह्न खोदा जाता था। हार के दाने कई पदार्थों से बनाये जाते थे। सीप एवं हाथी दांत पर भी काम किये जाते थे। हाथी दाँत एवं सीप के कंघी, ब्रासलेट इत्यादि बनाये जाते थे। ताम्बे के अतिरिक्त दूसरा महत्त्वपूर्ण धातु पत्थर ही था। 
  • हड़प्पावासियों के लिए ताम्बे के बाद पत्थर का ही महत्त्व था। इस आधार पर इस काल को चालकोलिथिक युग कहा जाता है। चालको का अर्थ है ताम्बा और लिथिक का अर्थ पत्थर होता है। पत्थर की सिल्लियां सक्कर के निकट की पहाड़ियों से काटकर तैयार की जाती थीं। इन्हीं पत्थर की सिल्लियों से तेज औजार बनाये जाते थे। ऐसे औजार हड़प्पा सभ्यता के करीब सभी स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इन पत्थरों को अलवास्टर के बर्तन बनाने के काम में लाया जाता था। चूने पत्थर का भी प्रयोग होता था। नालियों के ढक्कन तो चूने पत्थर से ही बनाये जाते थे। 
  • सिन्धु घाटी के बर्तनों को देखकर ऐसा लगता है कि इनका उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। इन बर्तनों को चाक के माध्यम से बनाया जाता था। जिस प्रकार के चाक का प्रयोग सिन्धु वाले करते थे उसे फूटव्हिल कहा जाता है। 
  • आज भी ऐसे ही फूटव्हिल का प्रयोग दक्षिणी पाकिस्तान के ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है। सिन्धु घाटी के बर्तन आग में पकाये हुए हैं। इनमें सुंदरता का अभाव है। हड़प्पा से प्राप्त मिट्टी के बर्तन की एक मुख्य विशेषता यह है कि इनके कनखे लाल रंग के हैं तथा मुख्य भाग काले रंग का बर्तनों पर रंगीन चित्रकारी में अधिक अंतर देखने को नहीं मिलता है।
  • बलूचिस्तान की त्रिकोणात्मक चित्रकारी हड़प्पा तक अधिक साधारण हो गयी और इस युग की अधिकांश चित्रकारी मछली के च्योटे के समान है। जानवरों, चिड़ियों, मछली तथा अन्य आकर्षक चित्र काफी दुर्लभ हैं। विभिन्न प्रकार के बर्तनों में एक का आकार गोल, लम्बा और छिद्रयुक्त है। इन बर्तनों की उपयोगिता के बारे में संतोषप्रद रूप से कुछ पता नहीं चल सकता है।

 

सिन्धु सभ्यता में माप-तौल के साधन

  • हड़प्पावासी अपने सम्पूर्ण क्षेत्र में वजन एवं माप की एक ही प्रणाली अपनाये हुए थे। खण्डहरों से प्राप्त कई वजनों का अध्ययन करने से पता चलता है कि छोटे अंकों के लिए दो गुणा या द्विभाजन प्रणाली का व्यवहार किया जाता था, जैसे-1, 2, 4, 8, 16, 32 इत्यादि। 
  • बड़े अंकों के लिए दशमलव प्रणाली का व्यवहार किया जाता था, जैसे- 320 620 1600 3200 इत्यादि । 
  • सिन्धु क्षेत्र में मापने के लिए कई स्केल पाये गये हैं। इनमें से एक दशमलव स्केल भी है। इसकी लम्बाई 13.2 इंच है। इसका एक भाग या इकाई 1.32 इंच का है।
  • यह माप लगभग समकालीन एशिया में पाये जाने वाले फूट के बराबर थी। एक दूसरी माप पीतल की छड़ है। इसकी इकाई 0.367 इंच है। 
  • यह एक नजर में एक क्यूविट (52 + 0.5 से०मी०) की इकाई का आधा भाग है। क्यूविट भी समकालीन एशिया में सामान्य रूप में प्रयोग में लाया जाता था। यह 2.7 इंच का होता था। पक्की माप के लिए कुछ विशेष यंत्र भी प्राप्त हुए हैं। लगता है, ये यंत्र भवन बनाने के समय उपयोग में लाये जाते थे। 
  • मोहनजोदड़ो में सामान तौलने के लिए बाट का प्रयोग होता था। इनकी संख्या काफी है। ये स्लेटी पत्थर के बनाये गये हैं। कुछ विद्वानों ने सिन्धु क्षेत्र से पाये गये बाटों के बारे में अपना विचार देते हुए बताया है कि इन बाटों की तौल की समानता एल्म और मेसोपोटामिया के बाटों से भी अधिक सही है। इस क्षेत्र के कुछ बाट तो इतने बड़े हैं कि उन्हें उठाने के लिए रस्सी का सहारा लेना पड़ता था। कुछ बाट इतने छोटे-छोटे मिले हैं जो कि जौहरी लोग आज भी उनका प्रयोग करते हैं। 
  • तौलने की तराजू की डंडी कांसे की बनी है तथा पलड़ा ताम्बे की तराजू में मोटी लकड़ी का प्रयोग सम्भवतः भारी सामान तौलने के लिए किया जाता था।

 

सिन्धु सभ्यता व्यापार और बाह्य सम्पर्क

  • सिन्धु घाटी के निवासी कृषि, पशुपालन एवं विभिन्न प्रकार के कलाकौशल से परिचित होने के कारण माल उत्पादन के कार्यों में भी दिलचस्पी लेने लगे थे। 
  • व्यापार के क्षेत्र में यह इलाका विश्व के अन्य नगरों की तुलना में काफी उन्नतिशील था। इस तरह की उन्नति के लिए प्रशासनिक दृष्टिकोण से सम्पूर्ण सिन्धु प्रदेश में एकरूपता होगी क्योंकि व्यापार में उन्नति हो सके इसके लिए एक ठोस नियम एवं सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है। 
  • वस्तुओं के वास्तविक निर्यात के प्रमाण को आसानी से पाना सम्भव नहीं लेकिन इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्मित अनेक वस्तुओं को देखने से लगता है कि यहां आवश्यकता से अधिक सामान बनाये जाते थे जो निर्यात होते होंगे। यहां के नगरों में चौड़ी-चौड़ी सड़कें पायी हैं। इनके दोनों और छोटी-छोटी दुकानें होती थीं। 
  • इससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यापार काफी उन्नत अवस्था में था। सम्भवतः वे जल एवं थल दोनों मार्गों से व्यापार करते थे। जो कच्चा माल सिन्धु क्षेत्र में नहीं मिलता था उसे यहां के व्यापारी बाहर से मंगाते थे। 
  • सोना वे लोग दक्षिण भारत में स्थित आधुनिक कर्नाटक प्रान्त से मंगाते थे। आज भी कर्नाटक  प्रांत के दक्षिण में स्थित कोलार क्षेत्र में सोने का भंडार है। 
  • ऐसा अनुमान किया जाता है कि यहां के व्यापारी पश्चिम में स्थित फारस एवं अफगानिस्तान से भी सोना आयात करते थे। चांदी का आयात वे लोग सम्भवतः ईरान और अफगानिस्तान से करते थे। चांदी दक्षिण भारत से भी मंगायी जाती होगी। 
  • यातायात के साधन एवं खनिज पदार्थों को ध्यान में रखते हुए ऐसा लगता है कि चांदी की आयात अरब एवं बलूचिस्तान से भी होता था। 
  • बड़े-बड़े भवनों के निर्माण में सिन्धु क्षेत्र में लजावर्त पत्थर का इस्तेमाल पाया गया है। यह पत्थर अफगानिस्तान के पूर्व उत्तर हिस्से में स्थित बदक्शां नामक स्थान से आयात किया जाता था।

 

  • बहुमूल्य पत्थरों को भी मंगाया जाता था। पश्चिम भारत से गोमेद, मूंगा और लाल मंगाया जाता था। इन पत्थरों का एक दूसरा प्रसिद्ध बाजार सौराष्ट्र में भी स्थित था। यहां से भी मूंगा, लाल और गोमेद खरीदकर मंगाया जाता था। जम्बुमणि नामक पत्थर महाराष्ट्र से आता था। फिरोजा का आयात ईरान से किया जाता था। मध्य एशिया में हरे रंग का एक अति बहुमूल्य पत्थर पाया जाता था। जिसे संगयशब कहते हैं।
  • यह पत्थर भी सिन्धु के व्यापारियों द्वारा मध्य एशिया से आयात किया जाता था। सिन्धु क्षेत्र के पूरब एवं पश्चिम में स्थित कई स्थानों से सेलखड़ी मंगाया जाता था। इस तरह सिन्धु क्षेत्र की औद्योगिक कला की विभिन्नता और विशेष पदार्थों के प्रयोग से ऐसा जान पड़ता है कि यहां के व्यापारियों ने बाहर के लोगों से आर्थिक सम्पर्क किया था। ऐसे व्यापार दो प्रकार के होंगे। एक सिन्धु घाटी के आस-पास में बसे ग्रामीण समुदायियों से और जंगली कबीलों से यह व्यापार विशेषकर कच्चे पदार्थों की प्राप्ति के लिए होगा। 
  • कच्चे माल के लिए व्यापार का आन्तरिक जाल भी विस्तृत पैमाने पर बिछा था। उपर्युक्त विवरणों के अलावा हम यह भी जानते हैं कि यहाँ के लोग अपने लिए कुछ ताम्बा राजस्थान में स्थित खेत्री नामक स्थान की खानों से अवश्य ही मंगाते थे। टिन का आयात तो बाहर के देशों से किया जाता था। उपर्युक्त सामानों का आयात जल तथा थल दोनों भागों से होता था। सिन्धु काल की एक मुद्रा पर जहाज बना हुआ है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि विदेशों से सामान जहाज पर लादकर जल के माध्यम से यहां पहुंचता था। जहां से स्थल मार्ग की सुविधा होती थी वहां से माल बैलगाड़ियों पर लादकर मंगाया जाता था।
  • ऐसा लगता है कि मोहनजोदड़ो एक अन्तर्देशीय बन्दरगाह के रूप में अपना स्थान बनाये हुए था। इसका व्यापार उर, किश, मिस्र आदि के साथ चलता था। इस क्षेत्र के व्यापारी बारहसिंगा एवं लकड़ी कश्मीर से मंगाते थे। कच्चे माल एवं विलास की वस्तुओं को बाहर से मंगाने के अलावा यहां के लोग खाने के लिए अरब सागर के तट से मछली भी मंगाते थे। निर्यात के दृष्टिकोण से हम पाते हैं कि यहां से सूती कपड़े तथा बर्तन सुबर मिस्त्र तथा बेबीलोन भेजे जाते थे। 
  • यहां की निर्मित सामग्री दजला-फरात अर्थात मेसोपोटामिया के बाजारों में बिकती थीं। खरीद-बिक्री में विनिमय का माध्यम क्या था, इसकी जानकारी नहीं हो पायी है। मूल्य मापने के लिए कौन-सी प्रणाली अपनाई गयी थी, इसकी भी जानकारी हमें नहीं है। यहां पाये गये अनेक गोदाम से सुसंगठित एवं समृद्धशाली व्यापारियों की जानकारी मिलती है। व्यापारियों की सम्भवतः अपनी मुहर होती थी। 
  • हुंडी एवं साख प्रथा भी व्यापार में प्रचलित थी। निर्यात के दृष्टिकोण से सम्भवतः अकीक के हार के दाने के विशेषकर भारतीय गुर्दे के आकार के दाने, सीप आदि मेसोपोटामिया को निर्यात किये जाते थे। जूं निकालने के लिए हाथी दांत की कंघी, मोती और कश्मीर से मंगायी गई बहुमूल्य लकड़ियों का भी निर्यात होता था। 


उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सर जॉन मार्शल का कथन सत्य ही प्रतीत होता है। वे लिखते हैं, “सिन्धु घाटी के साधारण नागरिक भी उस काल में जिस प्रकार की सुख-सुविधा एवं विलास की सामग्रियों का उपभोग करते थे उनकी तुलना उस काल के सभ्य संसार के किसी भी भाग के निवासियों से नहीं की जा सकती।"

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