गुप्तकालीन भारत की आर्थिक अवस्था (Economical Conditions in Gupta Empire)
गुप्तकालीन भारत की आर्थिक अवस्था (Economical Conditions in Gupta Empire)
गुप्तकालीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई। गुप्तों के विशाल साम्राज्य में शान्ति व्यवस्था व्याप्त थी। अतः कृषि, उद्योग-धन्धे एवं व्यापार व्यवसाय का प्रभूत विकास हुआ। देश धन्य धान्य से परिपूर्ण था और लोग सुखी सम्पन्न थे। आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलू निम्नलिखित थे-
कृषि
- गुप्तकाल और उसके परवर्ती काल तक आकर कृषि अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गई थी। उसका विस्तार बढ़ गया था। वराहमिहिर ने तीन फसलों का उल्लेख किया है गर्मी (रबी), पतझड़ (खरीफ) और साधारण समय में होने वाली फसलें । अमरकोश में भी ऐसी फसलों का उल्लेख हुआ है। गेहूँ, धान, जुआर, ईख, बाजरा, मटर, दाल, तिल, सरसों, अलसी, अदरख, सब्जी, काली मिर्च आदि विभिन्न अनाज उपजाए जाते उस युग में धान नीवार, शालि और कलम नामक अनेक प्रकार हो गए थे। चावल की एक फसल साठ दिन में तैयार कर ली जाती थी। मगध में उत्पन्न होने वाले चावल की सुगन्ध बहुत सुन्दर होती थी। यह महँगा पड़ता था। इसका व्यवहार उच्च वर्ग के लोग करते थे। सेब, अंगूर, अनार आदि भी उपजाए जाते थे। केला, आम, द्राक्षा, कटहल आदि भी भारत के विभिन्न प्रदेशों में पाए जाते थे। केसर की खेती दाटेल (अफगानिस्तान) और कश्मीर में होती थी। गरम मसालों में काली मिर्च, इलायची, लौंग आदि भी बोये जाते थे पांड्य देश (आधुनिक केरल) के तटीय भागों में इनकी खेती अधिकता से होती थी।
- सिंचाई के लिए लोग वर्षा पर निर्भर करते थे। वर्षा के अभाव में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। झील, कूप, तड़ाग, कुल्पा आदि का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता था। वराहमिहिर ने ज्योतिष के आधार पर नक्षत्रों का अध्ययन करके वर्षा के विषय में विस्तृत विवरण दिया है। सिंचाई के लिए बड़ी-बड़ी कृत्रिम झीलें बनायी जाती थीं। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़-अभिलेख से विदित होता है कि सौराष्ट्र के गिरिनार नगर की सुदर्शन झील का पुनरुद्धार किया गया।
- उपलब्ध प्रमाणों से पता चलता है कि भूमि पर व्यक्ति का स्वामित्व था। जो भूमि बेकार पड़ी रहती थी, वह राज्य की सम्पत्ति समझी जाती थी। बहुत से गाँवों में कृषि योग्य कुछ ऐसी भूमि होती थी जो राज्य की भूमि समझी जाती थी। राजा ऐसी भूमि को दान में देता था, दान पाने वाले व्यक्ति इस भूमि के मालिक हो जाते थे। जो भूमिपति स्वयं खेती नहीं कर सकते थे, वे अपनी भूमि किसानों को दिया करते थे। ऐसी दशा में किसान को उपज का 33 से 50 प्रतिशत तक मिलता था। भूमि का मूल्य उसकी उर्वरा शक्ति पर निर्धारित होता था। जंगलों से सागौन, सन्दल तथा आबनूस की लकड़ी मिलती थी।
उद्योग धन्धे
- कृषि एवं पशुपालन के अतिरिक्त विविध प्रकार के उद्योग-धन्धे भी होते थे। देश के विभिन्न भागों में सूत की कताई एवं कपड़े की बुनाई के काम होते थे। बढ़ई, लोहार, कुम्हार आदि व्यवसायी अपने-अपने कार्यों में सदा व्यस्त रहते थे। मोती, सोना, चाँदी के आभूषण बनते थे। ताम्बे एवं काँसे की मूर्तियाँ एवं बर्तन बनते थे। लौह-व्यवसाय बड़ा ही उन्नत था। लौहकार बड़े ही निपुण होते थे। दिल्ली के पास का लौह-स्तम्भ उस समय की उत्कृष्ट लौह-कला का सर्वोत्तम नमूना है। यह सदियों की धूप एवं वर्षा की चपेट को सहते हुए भी जंग से मुक्त है। नाव जहाज भी बनते थे। हाथी दाँत से अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएँ बनायी जाती थीं।
- व्यापारियों के निगम तथा शिल्पियों की श्रेणियाँ जिनका हम पहले कई बार उल्लेख कर आए हैं इस युग में भी पूर्ववत कार्य करती रहीं। उनका महत्त्व कम नहीं हुआ था, बल्कि बढ़ गया था। ये संस्थाएँ बैंकों का भी काम करती थीं। लोग उनके पास अपना धन जमा करते थे और नियमित रूप से ब्याज पाते थे। यदि किसी निगम अथवा श्रेणी के लोग सामूहिक रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान को चले जाते तो भी लोगों का उनमें विश्वास बना रहता। इन संस्थाओं का प्रबन्ध छोटी-छोटी समितियों के हाथ में रहता था, जिनमें चार पाँच सदस्य और एक सभापति होता था। राज्य उनके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। वे स्वयं अपने नियम तथा उपनियम बनाती थीं। सदस्यों के पारस्परिक झगड़े उन्हीं की कार्यपालिकाएँ तय कर देती थीं। राज्य के न्यायालयों में उन्हें नहीं जाना पड़ता था।
नगर-
- गुप्तकाल में नगर व्यापार व्यवसाय और संस्कृति के केन्द्र थे। इनमें पाटलिपुत्र, वैशाली, उज्जयिनी, दशपुर, भृगुकच्छ, ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख थे। फाहियान ने पाटलिपुत्र के राजप्रासाद का बड़ा रोचक वर्णन किया है। वैशाली तीर भुक्ति ( तिरहुत ) की राजधानी थी। फाहियान इस नगर में आया था। वह लिखता है कि इसके भीतर एक विहार था जिसे आम्रपाली नामक सुप्रसिद्ध वेश्या ने गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण उनके निवास के निमित्त बनवाया था। पश्चिम भारत में उज्जयिनी का नगर सबसे प्रसिद्ध था। मृच्छकटिक के वर्णन से लगता है कि गुप्तकाल में यह नगर अत्यन्त समृद्धशाली था। यहाँ अनेक विहार, देवालय, सरोवर, कूप तथा यज्ञयूप विद्यमान थे जिनके कारण इसकी शोभा अवर्णनीय थी। नगर वेश्या वसन्तसेना का भव्य प्रासाद बड़ा मनमोहक था। रघुवंश में उज्जयिनी के राजप्रासाद, महाकाल मन्दिर, शिप्रा नदी एवं उपवनों का बड़ा सुन्दर वर्णन हुआ है। दशपुर भी पश्चिम भारत का एक प्रसिद्ध नगर था । मन्दसोर लेख में इसका बड़ा मनोरम और सजीव वर्णन है। मेघदूत में भी दशपुर का वर्णन मिलता है। भृगुकच्छ (भड़ौंच) पश्चिम समुद्रतट का सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह था। पेरिप्लस के वर्णन के अनुसार यह नगर भारतीय आयात निर्यात का सुप्रसिद्ध केन्द्र था। ताम्रलिप्ति पूर्वी समुद्रतट का सबसे बड़ा बन्दरगाह था। पैठन, विदिशा, प्रयाग, बनारस, गया, कोशाम्बी, मथुरा, पेशावर आदि भी इस काल के प्रमुख नगर थे।
गुप्त काल के व्यापार के बारे में जानकारी
व्यापार
- गुप्तों के पूर्व व्यापार की काफी उन्नति हुई थी, अतः नगर बढ़े और समृद्ध हुए। गुप्तकाल के आरम्भिक दौर में यह समृद्धि जारी रही। न केवल भारत के भीतर और पश्चिमी एशिया के साथ, बल्कि दक्षिणी-पूर्व एशिया के साथ भी व्यापार होता था। बहुत से व्यापारी माल लेकर विदेशों में जाने लगे और उसे भारी मुनाफा पर बेचने लगे। व्यापार में वृद्धि के साथ-साथ समुद्री यात्रा और जहाज निर्माण के ज्ञान में भी वृद्धि हुई। पहले से बड़े जहाज बनाए जाने लगे और पश्चिमी और पूर्वी तटों के बन्दरगाहों में पहले से अधिक जहाज आने-जाने लगे।
- गंगा के डेल्टा में स्थित ताम्रलिप्ति (तामलुक) बंदरगाह से दक्षिण-पूर्व एशिया के सुवर्णभूमि (बर्मा), यवद्वीप (जावा) और कम्बोज (कंपूचिया) जैसे देशों के साथ सबसे ज्यादा व्यापार होता था। भड़ौंच, सोपारा और कल्याण पश्चिमी तट पर मुख्य बंदरगाह थे और वहाँ से भी दक्षिण-पूर्व को जहाज भेजे जाते थे। व्यापार के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म, संस्कृत भाषा, कला तथा भारतीय संस्कृति के अन्य रूप दक्षिण-पूर्व एशिया में पहुँचे। दक्षिण-पूर्व एशिया के लोगों ने भारतीय संस्कृति के कुछ पहलुओं को पसंद किया और उन्हें अपना लिया। किन्तु उन्होंने अपनी परम्पराओं तथा संस्कृति को भी कायम रखा। आज भी भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृति के बीच अनेक बातें समान हैं।
- मालाबार तट के कालीकट और कोचीन जैसे बंदरगाहों से भारतीय माल अफ्रीका, अरब, ईरान तथा भूमध्यसागरीय देशों को ले जाए जाते थे। व्यापारियों के काफिले और धर्म प्रचारकों के दल भी स्थल मार्ग से मध्य एशिया और चीन जाया करते थे।
- आन्तरिक की वस्तुएँ कपड़े, खाद्य पदार्थ, मसाले, नमक तथा बहुमूल्य धातुएँ थी। भड़ौंच, उज्जयिनी, पैठन, विदिशा, ताम्रलिप्ति, प्रयाग, बनारस, गया, पाटलिपुत्र, वैशाली, कौशाम्बी, मथुरा, पेशावर आदि नगर एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। वे व्यापार के केन्द्र थे। वस्तुएँ सड़कों तथा नदियों दोनों के द्वारा भेजी जाती थीं। सामान बैलगाड़ियों और जानवरों की पीठ पर ढोया जाता था। बड़ी-बड़ी नावों का निर्माण किया जाता था। गुप्तकाल में जलमार्ग का अधिक प्रचलन था। आन्तरिक व्यापार में नदियों का उपयोग किया जाता था, जिनमें छोटी-बड़ी सभी प्रकार की नावें चला करती थीं। सिन्धु, रावी, चेनाब, गंगा, यमुना, सरयू आदि नदियों में नावें चलती थीं। कालिदास ने लिखा है कि व्यापारियों के कारवाँ पहाड़ी मार्ग में इस प्रकार चलते थे जैसे वे उनके भवन हों, नदियों पर ऐसे विहरते थे मानों वे कूप हों तथा वनों के मार्ग में ऐसे जाते थे जैसे वे उपवन हों।' बड़े-बड़े जलपोत सागरों और महासागरों में चलते थे।
- बालि, सुमात्रा, जावा, सुवर्णभूमि जैसे देशों में भारतीय व्यापारी समुद्री मार्ग से जा सकते थे। ताम्रलिप्ति बंगाल का सबसे बड़ा बन्दरगाह था। यहाँ से चीन, लंका, जावा तथा सुमात्रा से व्यापार होता था। दक्षिण में गोदावरी और कृष्णा नदियों के मुहाने पर बहुत अच्छे-अच्छे बन्दरगाह थे, जिनके द्वारा पूर्वी द्वीपसमूह तथा चीन से व्यापार होता था। कल्याण, चोल, भड़ौंच तथा काम्बे-दक्षिण व गुजरात के प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। बहुमूल्य पत्थर, कपड़े, सुगंधित वस्तुएँ, मसाले, नील, औषधियाँ, नारियल, हाथी दाँत आदि वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। सोना, चाँदी, तांबा, टिन, शीशा, रेशम, कपूर, मूँगा, खजूर, घोड़े आदि का आयात किया जाता था। भृगुकच्छ (भड़ौंच) बन्दरगाह से निर्यात की जाने वाली भारतीय विलास सामग्रियों की रोम में बड़ी माँग थी। वहाँ के बाजारों में भारतीय मलमल, जवाहरात, मोती तथा सिल्क भरे रहते थे। प्लिनी ने हार्दिक क्लेश प्रकट किया है कि उसके देशवासी अपनी विलासिता के कारण देश की अतुल धनराशि भारत भेज देते थे। उसके अनुसार प्रतिवर्ष रोम की लगभग पाँच करोड़ मुद्राएँ भारत आती थीं।
- परन्तु गुप्तकाल के अन्तिम दौर में उत्तर भारत में व्यापार का पतन हुआ। गंगा के मैदान के नगरों में इस पतन के लक्षण प्रकट होते हैं। इसका आंशिक कारण था हूणों की हलचल से मध्य एशिया में पैदा हुई अस्थिर परिस्थितियाँ। एक अन्य कारण हो सकता है बाढ़ों से और नदी मार्गों में परिवर्तन गंगा की द्रोणी के वातावरण में आया परिवर्तन।
- लेन-देन में प्रायः वस्तु विनिमय प्रथा प्रचलित थी। प्रतिदिन की वस्तुओं को खरीदने में कौड़ी का प्रयोग किया जाता था। गुप्त सम्राटों ने विभिन्न तरह की स्वर्ण, रजत ताम्ब्र आदि मुद्रायें प्रचलित कीं। इससे उनके ऐश्वर्य एवं सम्पन्नता का पता चलता है।
गुप्त कौन थे ? गुप्तों की जाति और उत्पत्ति
समुद्रगुप्त की विजय और साम्राज्य का संगठन
समुद्रगुप्त की शासन प्रणाली |समुद्रगुप्त का मूल्यांकन
समुद्रगुप्त के बाद गुप्त वंश का इतिहास -रामगुप्त
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था | गुप्त कालीन केन्द्रीय शासन
गुप्तकालीन भारत की आर्थिक अवस्था
Post a Comment