गुप्तकाल में शिक्षा और साहित्य (Education and Literature Gupta Empire )
गुप्तकाल में शिक्षा और साहित्य (Education and Literature Gupta Empire )
गुप्तकाल में शिक्षा
- गुप्तकाल में शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व विकास हुआ। अनेक इतिहासकारों ने गुप्त युग की साहित्यिक समृद्धि की तुलना एथेंस के इतिहास के पेरिक्लीयन युग और अंग्रेजी साहित्य के इतिहास के एलिजाबेथ युग से की है।
- यद्यपि उस काल में राज्य की ओर से शिक्षण संस्थाएँ नहीं थीं। गुरु अपने निवास गृहों में व्यक्तिगत रूप से अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान करते थे। प्रसिद्ध आचार्य अपने-अपने आश्रमों में विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। पाटलिपुत्र, मथुरा, उज्जैन, अयोध्या, बनारस, नासिक, वत्सगुल्म और वल्लभी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। इस काल में बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय का उत्कर्ष हो रहा था। सौराष्ट्र में वल्लभी भी महत्त्वपूर्ण विद्यापीठ थी।
- दक्षिण भारत में शिक्षा का केन्द्र काँची था, जहाँ हिन्दू और बौद्ध दोनों धर्मों की शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध विहार भी शिक्षा का प्रचार करते थे। ब्राह्मण वर्ग में शिक्षा का विशेष प्रचलन था। तांत्रिक और व्यावसायिक शिक्षा शिल्पियों के परिवारों को दी जाती थी। इस युग में पुराण, स्मृति महाकाव्य, तर्क, दर्शन, न्याय व्याकरण आदि का विशद् अध्ययन किया जाता था। ज्योतिष, गणित तथा आयुर्वेद जैसे विषय भी पढ़ाये जाते थे। शूद्रों और अछूतों में शिक्षा का अभाव था। प्रारम्भिक शिक्षा के लिए गाँवों में पाठशालाएँ थीं, जिन्हें लिपिशालाएँ कहा जाता था।
गुप्त काल में साहित्य
- इस काल में संस्कृत साहित्य का काफी विकास हुआ। संस्कृत का प्रयोग शिला लेख, स्तंभ लेख, दानपत्र लेख आदि में किया जाने लगा। संस्कृत साहित्य को राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्राप्त हुआ। बौद्ध एवं जैनों ने भी प्राकृत और पाली भाषा को छोड़कर संस्कृत को अपना लिया था। परिणामस्वरूप संस्कृत को नयी स्फूर्ति मिली और उसने इस काल में जितनी उन्नति की उतनी पहले कभी नहीं की थी। वास्तव में गुप्त सम्राटों ने विद्वानों एवं कवियों को अपने दरबार में प्रश्रय दिया। कुछ शासक तो स्वयं विद्वान थे। समुद्रगुप्त में आश्चर्यजनक काव्यात्मक तथा कलात्मक प्रतिभा थी।
- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्नों को संरक्षण दिया गया था। इनमें 'कालिदास' सबसे प्रतिभावान नक्षत्र था, जो भारतीय ही नहीं वरन् विश्व साहित्य की अनुपम विभूति है। वह संस्कृत का अद्वितीय नाटककार तथा कवि था। कालिदास के प्रसिद्ध ग्रंथों में कुमारसम्भव और रघुवंश दो महाकाव्य 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्', 'विक्रमोर्वशीयम्', 'मालविकाग्निमित्र' तीन नाटक, 'मेघदूत' और 'ऋतुसंहार' दो गीति काव्य हैं।
- रामायण तथा महाभारत से जिस महाकाव्य परम्परा का प्रारम्भ हुआ था, कालिदास की लेखनी ने उसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। उन्होंने हिन्दुओं के आध्यात्मिक तथा सामाजिक जीवन के आदर्शों को अपने काव्य का आधार बनाकर उनकी अत्यन्त परिष्कृत रूप में अभिव्यंजना की है। इस काल के अन्य महाकवियों में वत्सभट्टी थे, जिन्होंने 'रावण वध' नामक महाकाव्य की रचना की जिसके प्रत्येक श्लोक में संस्कृत व्याकरण के किसी-न-किसी नियम की समीक्षा की गयी है। दण्डी में 'दशकुमार चरित' तथा 'रीति ग्रन्थ काव्यादर्श' की रचना की।
- वीरसेन साव चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में प्रसिद्ध कवि और महाव्याकरणाचार्य था। 'किरातार्जुनीयम्' का लेखक भारवि इस युग का प्रतिभासम्पन्न कवि था। विद्वानों का मत है कि भर्तृहरि भी इसी काल में हुए, जिनके तीन काव्य-ग्रंथ अतुलनीय हैं.
- 'शृंगार शतक', 'वैराग्य शतक' और 'नीति शतक' इस युग के अन्य कवियों में भ्रातृगुप्त, सौमिल्ल और कुलपुत्र उल्लेखनीय हैं। ममट्ट 'काव्यालंकार' का लेख इस युग की निधि था। यह काल संस्कृत के नाटकों के लिए भी प्रसिद्ध है। कालिदास के अतिरिक्त शूद्रक ने 'मृच्छकटिक' नाटक लिखा।
- विशाखदत्त के 'मुद्राराक्षस' और 'देवी चन्द्रगुप्तम्' नाटक प्रसिद्ध हैं। 'स्वप्नवासवदत्ता' का लेखक भास भी इस युग का प्रसिद्ध नाटककार था।
- इस काल में रचे गये नीति ग्रन्थों में कामन्दक का नीतिसार' ग्रन्थ अनुपम है। इस काल में स्मृति ग्रन्थों या कानून ग्रन्थों की भी रचना हुई। इनमें नारद स्मृति कात्यायन स्मृति, बृहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति आदि प्रसिद्ध हैं।
- इस काल में कोश और व्याकरणों की भी रचना हुई। अमरसिंह ने 'अमर कोश' इसी युग में लिखा। इस काल में पाणिनी, कात्यायन और पातंजलि के व्याकरण ग्रन्थ प्रसिद्ध थे, परन्तु चन्द्रगोपी नामक बौद्ध भिक्षुक का 'चन्द्र व्याकरण' बहुत लोकप्रिय हुआ।
- इस काल में 'पंचतन्त्र' एवं 'हितोपदेश' दो गल्प ग्रन्थ भी लिखे गये। पंचतन्त्र मूल ग्रंथ विष्णु शर्मा द्वारा लिखा गया था। ये गल्प ग्रन्थ विभिन्न कथाओं द्वारा मनोरंजक ढंग से नीति की शिक्षा देते हैं।
- गुप्तकाल में विभिन्न धर्मों के आचार्यों और प्रवर्तकों ने परस्पर वाद-विवाद तथा मनन-चिन्तन के लिए नवीन तर्क और दार्शनिक विचार प्रस्तुत किये। इससे ब्राह्मण, जैन और बौद्ध दर्शन का काफी विकास हुआ तथा तीनों के अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी।
- शवर स्वामी ने मीमांसा दर्शन पर 'शवरभाष्य' सन् 300 के लगभग लिखा। ईश्वर कृष्ण ने सांख्य पद्धति पर 'सांख्यकारिका' ग्रन्थ लिखा। योग दर्शन पर आचार्य व्यास ने 'व्यास भाष्य' की रचना की। वात्स्यायन ने न्याय दर्शन पर 'न्याय भाष्य' लिखा।
- गुप्तकाल में बौद्ध दार्शनिक साहित्य का भी खूब विकास हुआ। आर्य देव ने 'चतुःशतक', आसंग ने 'योगाचार भूमि शास्त्र', 'महायानसूत्रालंकार' और बसुबन्धु ने अनेक ग्रन्थ लिखे; जैसे 'अभिधर्म कोश', 'विंशतिका', 'त्रिंशतिका'। इस काल का सबसे प्रसिद्ध बौद्ध लेखक दिग्नाथ था, जिसके प्रमाण समुच्य' तथा 'न्यायमुख' प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। बुद्धघोष ने त्रिपिटकों पर अनेक भाष्य लिखे।
- इस काल में जैन साहित्य का भी विकास हुआ। जैन आचार्य सिद्धसेन ने न्याय दर्शन पर ग्रंथ लिखे, उनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'न्यायावतार' है। भद्रबाहु द्वितीय ने प्राचीन जैन ग्रंथों पर भाष्य लिखे और नवीन शैली में दार्शनिक विचारों को प्रकट किया। आचार्य उमास्वामी, जिन चन्द्रमणि और देवनन्दनी अन्य प्रसिद्ध विद्वान थे। इस काल में हिन्दू धर्म के साहित्य को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए धार्मिक ग्रन्थों को संशोधित करके ब्राह्मण धर्माचार्यों ने पुनः रचना की। इसके परिणामस्वरूप अनेक स्मृतियों और सूत्रों पर भाष्य लिखे गये।
- पुराण, महाभारत और रामायण आदि महाकाव्यों का अन्तिम सम्पादन इस युग में किया गया। इस काल में दक्षिण भारत में भी साहित्यिक प्रगति हुई। इसी तरह साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के कारण इस युग को भारत का 'आगस्टन युग' कहा जाता है।
गुप्तकालीन भारत में विज्ञान
- गुप्तकालीन भारत में विज्ञान की विशेष प्रगति हुई। खगोलविद्या, गणित तथा चिकित्साशास्त्र में नए-नए अन्वेषण हुए। इनमें वराहमिहिर, आर्यभट्ट, नागार्जुन, वाग्भट्ट प्रथम के नाम उल्लेखनीय हैं।
- वराहमिहिर खगोलविद्या के प्रकांड विद्वान् थे। वृहत्संहिता और पंचसिद्धान्तिका इनके दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
- वृहत्संहिता में ज्योतिष, वास्तु तथा तक्षण कला का विवेचन किया गया है। पंचसिद्धान्तिका में ज्योतिष के पाँच सिद्धान्तों (पैतामह सिद्धान्त, वाशिष्ठ सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत पौलिश सिद्धांत तथा रोमक सिद्धांत) का प्रतिपादन किया गया है। आर्यभट्ट महान् गणितज्ञ थे। उनका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभट्टीयम् है। उन्होंने दशमलव पाई के मूल्य (वृत्त के व्यास एवं परिधि का अनुपात), ग्रहण आदि के बारे में बतलाया। उन्होंने बतलाया कि ग्रहण में राहु तथा केतु का कोई स्थान नहीं है।
- यह सूर्य और चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया का परिणाम है। उन्होंने ही सर्वप्रथम यह बतलाया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की परिक्रमा करती है।
- नागार्जुन एक लब्धप्रतिष्ठ चिकित्सक थे। वे रसायनशास्त्र के आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने रस-चिकित्सा नामक एक नवीन पद्धति का आविष्कार किया। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि लोहा, ताँबा, सोना, चाँदी आदि धातुओं की भस्मों से असाध्य रोगों का उपचार संभव है। उन्होंने ही पारद (पारा) का आविष्कार किया। वाग्भट्ट उच्च कोटि के आयुर्वेदाचार्य तथा चिकित्सक थे। उन्होंने अष्टांगसंग्रह नामक ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता का सारांश है।
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