फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा | Fahiyaan Ke Anusar Bharat Ki Samajik Sthiti
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा | Fahiyaan Ke Anusar Bharat Ki Samajik Sthiti
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक दशा
- गुप्त काल में शान्ति, समृद्धि, सुव्यवस्था, उदारता, सहिष्णुता, विद्यानुराग एवं ललित कलाओं के संरक्षण में जीवन में एक नवीन स्फूर्ति, पुनर्जागरण, आत्मचेतन व सांस्कृतिक सृजन का वातावरण उत्पन्न हो गया था। लोगों का जीवन सुखी व सम्पन्न था। देश के निवासियों की उदारता, धर्मपरायणता, दानशीलता, सुख-सुविधापूर्ण धर्मशालाएँ, समृद्ध कृषि व विभिन्न दान के स्थल इस बात के प्रमाण हैं कि साधारण जनता सुखी व समृद्ध थी।
- फाहियान के अनुसार इस युग के लोगों में शिष्टाचार, दान, अतिथि सत्कार, सदाचारिता, उच्च नैतिकता आदि गुण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे। लोग इतने ईमानदार थे कि लेन-देन के लिए लिखा-पढ़ी नहीं की जाती थी। चोरी, लूट व अपराध बहुत कम होते थे। अधिकतर लोग अहिंसा का सिद्धान्त मानते थे। मदिरापान बुरा माना जाता था। लोग मांस, लहसुन, प्याज भी नहीं खाते थे। चाण्डाल समाज से बहिष्कृत होते थे। भारत में जो विदेशी जातियाँ जैसे शक पल्लव, हूण, यूनानी व कुषाण आदि आयी थीं, वे धीरे-धीरे भारतीय समाज में विलीन हो गयी थीं।
- समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के अतिरिक्त चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम को समाज के सभी वर्ग मानते थे। ब्राह्मणों का समाज में सबसे अधिक सम्मान था। वे वैदिक मंत्रों, सूत्रों, भाष्यों व प्रवचनों में प्रवीण होते थे और समाज के सभी धार्मिक कार्य सम्पन्न कराते थे। क्षत्रिय प्रजा की रक्षा करते थे। वैश्य व्यापार, वाणिज्य तथा शूद्र सेवा कार्य करते थे। कुछ हीन व्यवसाय करने वाली जातियाँ भी थीं जैसे- चाण्डाल आदि। ये लोग नगर के बाहर रहते थे और जब नगर में प्रवेश करते थे तो उन्हें लकड़ी बजाते हुए चलना पड़ता था जिससे कोई उनसे स्पर्श न हो जाये।
- समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। परिवार का मुखिया वयोवृद्ध व्यक्ति होता था, जो परिवार के सारे सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार होता था। समाज में दास प्रथा का भी प्रचलन था। ये खरीदे या बेचे जाते थे अथवा जो ऋण नहीं दे पाते थे वे स्वयं को बेच देते थे या दास हो जाते थे पर्दे की प्रथा का प्रचलन नहीं के बराबर था। स्त्रियाँ स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण करती थीं, हाँ उच्च कुल की स्त्रियाँ घर से बाहर निकलने पर घूँघट का प्रयोग करती थीं। स्त्रियाँ पुरुषों के साथ-साथ सामाजिक व धार्मिक कार्यों में भाग लेती थीं। साधारणतया वे गान, नृत्य व गृह कार्य में प्रवीण होती थीं। कभी-कभी वे शासन संचालन में भी योगदान दिया करती थीं। दक्षिण भारतीय स्त्रियाँ तो सार्वजनिक रूप से नृत्य कला का प्रदर्शन किया करती थीं।
- समाज में एक विवाह की प्रथा प्रचलित थी परन्तु उच्च वर्ग में बहु-विवाह का प्रचलन भी था। विधवा विवाह तथा कुछ अंशों तक बेमेल विवाह भी प्रचलित थे। विभिन्न जातियाँ तथा सम्प्रदायों में अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे। माज में लोम व प्रतिलोम दोनों प्रकार के विवाह का था।
- स्त्री और पुरुष दोनों ही सूती, ऊनी और रेशमी वस्त्रों का प्रयोग करते थे। पुरुष एक ऊपरी वस्त्र तथा नीचे धोती का प्रयोग करते थे। स्त्रियाँ साड़ी, लुंगी व चोली धारण करती थीं। कहीं-कहीं स्त्रियाँ छोटा-सा घाघरा व दुपट्टा पहनती थीं। शकों के प्रभाव से कोट, ओवर कोट व पाजामे का प्रयोग भी होने लगा था। पगड़ी बाँधने का प्रचलन था। स्त्रियाँ या पुरुष प्रायः नंगे पैर रहा करते थे।
- स्त्री व पुरुष दोनों ही शृंगार तथा आभूषण प्रिय थे। मुख व होंठों की सौंदर्य वृद्धि हेतु विभिन्न प्रकार के सुगन्धित लेपों का प्रयोग किया जाता था। मुख पर चन्दन का पाउडर लगाया जाता था। फाहियान को जब पहली बार एक उत्सव में इत्र लगाया गया तो वह उसकी सुगंध से बहुत प्रसन्न हुआ था। केशों में सुगंधित तेलों का प्रयोग होता था तथा स्त्रियाँ केश विन्यास विभिन्न प्रकार से करती थीं। आभूषणों में कान की बालियाँ, मोतियों की मालाएँ, चम्पाकली व तरह-तरह के हार, दस्तबन्ध, बाजूबन्द, रत्नजड़ित चूड़ियों व अंगूठियों का बहुत प्रचलन था। नथ या नाक की लौंग का प्रयोग नहीं किया जाता था।
फाहियान के अनुसार की भारत की आर्थिक दशा
- आर्थिक दशा फाहियान लिखता है कि इस काल में देश धन-धान्य से पूर्ण था और आर्थिक समृद्धि चारों ओर विराजमान थी। लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। गेहूँ, दाल, चावल, जूट, मक्का, कपास, विभिन्न फल व सब्जियाँ, मसाले, सुपारी, नील आदि की खेती की जाती थी। देश का प्रमुख व्यवसाय कपड़ा उद्योग था जो गुजरात, बंगाल, आसाम व तमिल देश में बनाए जाते थे। रेशमी वस्त्र बनारस व मथुरा में बनाए जाते थे।
- धातुओं को गला कर विभिन्न वस्तुएँ बनाई जाती थीं। महरौली का लौह स्तम्भ उस युग की धातुकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जो आज भी बिना जंग लगे शताब्दियों से विद्यमान है। विभिन्न प्रकार के रत्नों को काटने छाँटने व चमकाने की कला उन्नत दशा में थी। जलपोत भी बनाए जाते थे। हाथी दाँत की बहुत सुन्दर मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। इस काल में विभिन्न व्यवसाय करने वाले शिल्पियों, जुलाहों, कुम्हारों व महाजनों की व्यापारिक श्रेणियाँ थीं। बड़े नगरों में वणिकों, महाजनों तथा शिल्पियों के निगम भी होते थे। इस काल में वैशाली में एक व्यापक निगम था जिनके नियम, उपनियम तथा विधियाँ थीं।
- गुप्तकाल में जल व स्थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। व्यापार की वस्तुओं में सूती व रेशमी वस्त्र, सोना, चाँदी, रत्न, नमक व मसाले मुख्य थे। व्यापार के प्रमुख केन्द्र विदिशा, उज्जैन, मथुरा, साकेत प्रयाग, बनारस, गया, ताम्रलिप्ति, भृगुकच्छ (भड़ौंच), पुष्पपुरा, मदुरा आदि थे। देश के आन्तरिक व्यापार के लिए पर्याप्त राजमार्ग थे। एक थल मार्ग जबलपुर से होता हुआ दक्षिण की ओर होता हुआ पूर्वी समुद्रतट के नगरों की ओर जाता था तथा दूसरा विदिशा, उज्जैन, नासिक होता हुआ पश्चिमी समुद्र तट के बन्दरगाहों व नगरों को जाता था। पाटलिपुत्र से एक थल मार्ग पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत को जाता था। इस थल मार्ग से उत्तर-पूर्व में तिब्बत, खोतान, चीन आदि देशों से और पश्चिम में ईरान, अरब व अन्य देशों से व्यापार होता था। नौकाओं द्वारा गोदावरी, कृष्णा व ब्रह्मपुत्र नदी से व्यापार होता था। इसके अलावा समुद्री मार्ग से पूर्वी तथा पश्चिमी देशों से व्यापार होता था। रोमन साम्राज्य को श्रृंगार-प्रसाधन की विभिन्न वस्तुएँ भेजी जाती थीं। चीन से रेशमी वस्त्र आता था। व्यापार विनिमय में विभिन्न प्रकार के सोने, चाँदी व ताँबे की मुद्राओं का उपयोग किया जाता था। क्रय-विक्रय में कौड़ियों का उपयोग भी होता था।
फाहियान के अनुसार की भारत की धार्मिक दशा
- फाहियान के लेखों से भारत की तत्कालीन धार्मिक अवस्था का भी पता चलता है। इसके विवरण से यह पता चलता है कि उस समय ब्राह्मण धर्म बड़ी उन्नत दशा में था और मध्य भारत में उसका बड़ा जोर था। चन्द्रगुप्त स्वयं वैष्णव धर्म का अनुयायी था। परन्तु पंजाब, मथुरा और बंगाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी और महायान एवं हीनयान दोनों ही सम्प्रदाय विद्यमान थे। फाहियान ने स्वयं देश के विभिन्न भागों में अनेक बौद्ध विहार देखे थे।
- फाहियान शान-शान गया जहाँ उसे हीनयान धारा के 4,000 बौद्ध भिक्षु मिले। तारतार प्रदेश में उसने कई बौद्ध भिक्षुओं को भारतीय भाषा तथा पुस्तकें पढ़ते देखा। खोतान में उसने महायान धारा के हजारों भिक्षु देखे। केवल गोमती विहार में ही 3,000 भिक्षु थे और खोतान में इस प्रकार के चौदह विहार थे। काशगर में उसने एक हजार बौद्ध भिक्षु देखे और वहाँ का राजा भी बौद्ध था जो हीनयान धारा का अनुयायी था।
- फाहियान ने गान्धार, तक्षशिला और पेशावर की यात्रा भी की और इन स्थानों में असंख्य बौद्ध स्मारक थे। अफगानिस्तान में उसने महायान और हीनयान धाराओं के 3,000 भिक्षु देखे। उसने बन्नू की यात्रा भी की और वहाँ भी बहुत से बौद्ध भिक्षु थे। पंजाब में उसने कई बौद्ध विहार देखे और इनमें अनुमानतः 10,000 से भी अधिक भिक्षु थे। केवल मथुरा में ही उसने 10 विहार देखे जिनमें 3,000 बौद्ध भिक्षु थे। फाहियान ने मध्यदेश नामक प्रदेश की भी यात्रा की। श्रावस्ती में उसने कई बौद्ध स्मारक देखे। लुम्बिनी, वैशाली, नालन्दा, गया, बोधगया और राजगृह आदि बौद्ध स्थानों की उसने यात्रा की। उसने लंका की यात्रा भी की और वहाँ दो वर्ष रहा। लंका से वह जावा गया और वहाँ से वापस चीन पहुँचा।
- फाहियान के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त काल में भारतीयों को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी।
फाहियान के अनुसार की भारत में शिक्षा
- फाहियान के शब्दों में, गुप्तकाल में शिक्षा का भी पर्याप्त प्रचार था। यद्यपि राज्य की ओर से सुसंगठित शिक्षण संस्थाएँ नही थीं फिर भी गुरु अपने आश्रमों में विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे। ये आचार्य अधिकतर पवित्र तीर्थ स्थानों, राजधानियों व विशाल नगरों में निवास करते थे। पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा तथा राज्य के सहयोग से उनका खर्च चलता था। उस समय के प्रमुख शिक्षा केन्द्र पाटलिपुत्र, पद्मावती, मथुरा, उज्जयिनी, अयोध्या वस्तगल्म, वाराणसी, नासिक व ललमी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। मन्त्र, सूत्रों व भाष्यों में अयोध्या के विद्वान बहुत प्रसिद्ध थे।
- तक्षशिला जो प्राचीन काल में शिक्षा का केन्द्र रहा अब अवनत दशा में था किन्तु नालन्दा एक महान् विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हो गया था, जहाँ बौद्ध धर्म के अलावा ब्राह्मण व जैन धर्म का भी व्यापक एवं विशद् अध्ययन किया जाता था। सौराष्ट्र में वल्लभी भी प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था। ब्राह्मणों में शिक्षा का अधिक प्रचार था किन्तु शूद्र अशिक्षित ही रहते थे।
- इस युग में वेदों के स्थान पर पुराण, स्मृति, तर्क, दर्शन, न्याय व व्याकरण आदि का अध्ययन किया जाता था। लौकिक विषयों में ज्योतिष, गणित व आयुर्वेद भी पढ़ाये जाते थे। शिक्षा समाप्ति पर परीक्षा की उपाधि नहीं दी जाती थी। इस काल में शिक्षा के साथ-साथ साहित्य की भी अपूर्व प्रगति हुई और संस्कृत भाषा का उत्कर्ष हुआ। इस समय के उत्कीर्ण लेख काव्यमयी संस्कृत में लिखे गये हैं।
फाहियान का पाटलिपुत्र वर्णन
- पाटलिपुत्र का वर्णन फाहियान ने पाटलिपुत्र का भी एक विवरण उपस्थित किया है। पाटलिपुत्र नगर और अशोक के महल से फाहियान अत्यन्त प्रभावित हुआ। उसके विचार में कई भवनों वाला महल आत्माओं ने बनाया था जो पत्थरों पर पत्थर रखती गईं, दीवारें और द्वार बनाए, चित्रकारी की और अमानुषिक ढंग से कढ़ाई तथा नक्काशी की फाहियान की यात्रा के समय भी अशोक का महल बना हुआ था।
- अशोक के बनवाए एक स्तूप के निकट फाहियान ने दो विहार देखे जिनमें से एक में महायान धारा के और दूसरी में हीनयान धारा के बीच भिक्षु रहते थे। दोनों विहारों में कुल छः सात सौ भिक्षु रहते थे। किन्तु अपनी विद्वत्ता के लिए वे इतने प्रसिद्ध थे कि दूर-दूर से विद्यार्थी तथा जिज्ञासु उनके भाषण सुनने आते थे।
- स्वयं फाहियान ने संस्कृत भाषा सीखने में तीन वर्ष लगाए। भिक्षुओं की नीति पुस्तकें प्राप्त करके वह अति प्रसन्न हुआ। बीस बड़े और सुसज्जित रथों वाले विशाल जुलूस की उसने बहुत सराहना की। ये जुलूस हर साल निकाले जाते थे और दूसरे महीने की आठवीं तिथि को इसे शहर में घुमाया जाता था। उनमें शासक और संगीतज्ञ भी होते थे। फाहियान ने हमें बताया है कि ऐसे जुलूस और शहरों में भी निकाले जाते थे।
- फाहियान से हमें ज्ञात होता है कि धनी लोगों ने अपनी राजधानियों में निःशुल्क औषधालय बना रखे हैं और सभी निर्बल या असहाय रोगी, अनाथ, विधवाएँ और पंगु वहाँ आते हैं। वहाँ इनकी अच्छी देख-रेख की जाती है एवं वैद्य उनकी चिकित्सा करता है और खाना तथा औषधियाँ उनके आवश्यकतानुसार निःशुल्क दी जाती हैं, उन्हें आराम पहुँचाया जाता है और जब वे ठीक हो जाते हैं तो वे चले जाते हैं। "
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फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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