गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ और उपदेश | गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य | Gautam Budh Ki Shiksha Aur Sidhant
गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ और उपदेश
बौद्ध धर्म की शिक्षा और सिद्धांत
गौतम बुद्ध के सिद्धांत
- गौतम बुद्ध के सिद्धांतों को समझने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ये ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे, आत्मा को नित्य नहीं मानते थे, किसी ग्रन्थ को स्वतः प्रमाण नहीं मानते थे तथा जीवन प्रवाह को इसी शरीर तक परिमित नहीं मानते थे।
- महात्मा बुद्ध ने सामाजिक ऊँच-नीच के प्रतिबन्धों का कट्टरतापूर्वक खण्डन किया। उन्होंने छुआछूत की भावना को अत्याचारपूर्ण बतलाया।
- उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र लोगों और उनसे भी निकृष्ट जातियाँ, यहाँ तक कि वेश्याओं को भी अपना शिष्य बनाया। उनका कथन था कि विशेष माता के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण में उसे ब्राह्मण नहीं कहूँगा। इस सम्बन्ध में बुद्ध से भेंट करने के लिए आये हुए दो ब्राह्मण को महात्मा बुद्ध ने किसी व्यक्ति को जन्म से अथवा कर्म से ब्राह्मण होने के सम्बन्ध में जो उपदेश दिये उसका सारांश हम निम्नांकित शब्दों में प्रस्तुत करते हैं।
- यह कथा हमें बौद्ध साहित्य में विस्तार से मिलती है- "वह व्यक्ति जिसकी किसी वस्तु पर ममता नहीं है, जिसके पास कुछ नहीं है, मैं तो उसी को ब्राह्मण कहूँगा। जो भी व्यक्ति क्रोधरहित, सत्याभिलाषी, सत्कर्म करने वाला और इन्द्रियों को पूर्ण निग्रह करने में समर्थ है, मैं तो उसी को ब्राह्मण कहूँगा।" उनके कथन का अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण के घर में जन्म लेने से न तो कोई ब्राह्मण हो सकता और न ही वह ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न न होने के कारण अब्राह्मण हो सकता है। उनका ब्राह्मण होने का करण एकमात्र कर्म ही है।
- महात्मा बुद्ध के उपदेशों का मूल मंत्र अहिंसा था। वह केवल यज्ञानुष्ठानों में पशुबलि का ही कठोर विरोध न क थे वरन् जीवों का किसी रूप में भी प्रतिपादित करके उन्हें हानि पहुँचाने को भी हिंसा समझते थे और उसका प्रबल विरोध करने के लिए ही उन्होंने अपने अष्टांगिक मार्ग का दिग्दर्शन कराया था।
- इस सम्बन्ध में उन्होंने 'वासत्य' नामक ब्राह्मण को उपदेश देते हुए यह स्पष्ट किया था कि यदि एक त्रयी विद्या का पूर्ण निष्णात ब्राह्मण उस विद्या के गुणों को सदाचार में सन्निविष्ट नहीं करता है, अब्राह्मण का कार्य करता है परन्तु मुख से यह प्रार्थना करता है मैं ब्रह्मा प्रजापति का आह्वान करता हूँ, मैं इन्द्र का आह्वान करता हूँ, मैं महेश और यम को बुलाता हूँ तो क्या वे उसके पास सजीव मूर्तिमान होकर चले आयेंगे? वस्तुतः ऐसी प्रार्थना में न कोई लाभ ही है और न कोई कर्तव्य पालन ही है।
- बुद्ध विचारस्वातन्त्र्य के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने लोगों को अन्धानुकरण के स्थान पर स्वयं उचित-अनुचित पर विचार करने की अनुमति दी। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति उनके धर्म का अन्धानुकरण नहीं करे वरन् तर्क की कसौटी पर यदि बौद्ध धर्म खरा उतरे तभी उसका अनुयायी बने। महात्मा बुद्ध बुद्धिवादी थे तथा अन्धविश्वास का उनके धर्म में कोई स्थान नहीं था।
गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्यचत्वारि आर्य सत्यानि
चत्वारि आर्य सत्यानि / चार आर्य सत्य
गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्यों का निरूपण इस प्रकार किया (1) दुख (2) दुख समुदाय, (3) दुखनिरोध और (4) दुखनिरोधगामी आष्टांगिक मार्ग
दुख
- बुद्ध का कहना था कि यह संसार दुखों का आगार है। संसार में दुख ही दुख है- 'सर्वे दुख दुखम'। संसार में आकर प्रत्येक व्यक्ति को दुख भोगना पड़ता है। बुद्ध ने कहा “जन्म भी दुख हैं, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोकरूदन, मन की खिन्नता, हैरानी दुख है अप्रिय से संयोग, प्रिय से वियोग भी दुख है। इच्छा करके नहीं पाना वह भी दुख है।" इस नश्वर संसार में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। अतः इस संसार में आकर दुखों से निवृत्ति नहीं हो सकती। एक न एक दुख मनुष्य को भोगना ही पड़ता है।
दुख समुदाय
- बुद्ध ने संसार के लोगों को केवल दुख का ही बोध नहीं कराया बल्कि उसका समुदाय (कारण) भी बतलाया। संसार में जिन दुखों का मनुष्य अनुभव करता है उनका कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इस प्रकार मृत्यु का कारण जन्म है। यदि आत्मा को नया शरीर धारण करने से मुक्ति मिल जाये तो उसे मृत्यु का दुख न भोगना पड़े। जिस प्रकार अनुभवी वैद्य रोग दूर करने के पहले कारण ढूंढ निकालता है वैसे संसारव्यापी दुख का कारण भी बुद्ध ने खोज निकाला। उनके अनुसार सांसारिक दुखों का मुख्य कारण तृष्णा है। इसी तृष्णा से अहंकार, ममता, राग, द्वेष, कलह आदि दुख उत्पन्न होते हैं। मनुष्य अनेक इच्छाएं करता है जिनमें से कुछ इच्छाएं अपूर्ण रह जाती है। इसी कारण उसको दुख होता है। यदि इच्छाओं का दमन कर दिया जाये तो दुःख से छुटकारा मिल सकता है।
दुख निरोध
- जो दुख मनुष्य प्राप्त करता है उनका निरोध अथवा निवारण या शमन भी किया जा सकता है। यदि दुख का कारण ही न रहे तो दुख अपने आप ही दूर हो जायगा। अविद्या के नाश से ज्ञान प्राप्त होता है और उसी ज्ञान को निर्वाण कहते हैं। इस प्रकार मनुष्य को जीवन में ही निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है किन्तु निर्वाण का अर्थ अकर्मण्य होना नहीं है। राग, द्वेष तथा मोह से रहित होकर ज्ञानवान व्यक्ति यदि कर्म करता है तो भी वह बन्धनों में नहीं फंस सकता तथा अन्त में उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है और आवागमन के चक्कर से मुक्ति मिल जाती है। सम्पूर्ण तृष्णाक्षय और दुख रहित अवस्था का नाम निर्वाण है।
गौतम बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग
दुख निरोधगामी अष्टांगिक मार्ग
दुख निरोध के अष्टांगिक मार्ग का प्रथम उपदेश गौतम बुद्ध ने अपने पाँच साथियों को दिया था जो धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से विख्यात है। बुद्ध ने यह मत प्रतिपादित किया कि तृष्णा, वासना या इच्छा ही दुख का मूल कारण है और इससे छुटकारा पाने के लिए इन्हें दबाना परम आवश्यक है। मृत्यु भी दुख के बन्धन को नहीं काट पाती है क्योंकि वासना और कर्म के कारण मानव जीवन को आवागमन के चक्कर में सदा पड़ा रहना पड़ता है। अतएव तृष्णा के दमन के हेतु बुद्ध ने आठ मार्गों का प्रतिपादन किया। इसे अष्टांगिक मार्ग कहते हैं।
अष्टांगिक मार्ग की आठ बातें
- सम्यक् दृष्टि
- सम्यक् संकल्प,
- सम्यक् वाक्,
- सम्यक् कर्म,
- सम्यक् आजीव,
- सम्यक् व्यायाम,
- सम्यक् स्मृति तथा
- सम्यक् समाधि
इसमें प्रथम दो ज्ञान, अन्य तीन शील तथा अन्तिम तीन समाधि के अन्तर्गत आते हैं।
अष्टांगिक मार्ग का पूर्ण विवेचन इस प्रकार है
(1) सम्यक् दृष्टि
- बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की घोषणा की थी अर्थात् दुख दुख का कारण दुख का दमन तथा दुख के दमन के उपाय इन चार आर्य सत्यों का ज्ञान प्राप्त करना सम्यक् दृष्टि कहलाती है।
(2) सम्यक् संकल्प
- सभी प्रकार के भोगविलास और सांसारिक सुखों की कामनाओं का त्याग करना तथा अपने आपको सुधारने का संकल्प करना सम्यक् संकल्प कहलाता है। इसके लिए सांसारिक वस्तुओं, सगे-सम्बन्धियों और मित्र आदि मोह त्यागना तथा दूसरों को हानि पहुँचाने से बचने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
(3) सम्यक् वाक्
- सदैव सत्य बोलना और अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर झूठ बोलने से बचना ही सम्यक् वाक् अथवा सम्यक् वचन कहलाता है। किसी की निन्दा न करने कठोर वचनों का प्रयोग न करने और अपशब्दों को मुख से न निकालने देने से सम्यक् के पालन में बड़ी सहायता मिलती है।
(4) सम्यक् कर्म
- इसका तात्पर्य शुभ कर्म करना है। मनुष्य को अच्छे-अच्छे काम करने चाहिए और बुरे तथा निन्दनीय कर्मों जैसे-चोरी, जुआ खेलना आदि का त्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार का प्रयत्न करते-करते मनुष्य सदाचारी बन जाता है और अहिंसाप्रिय तथा जितेन्द्रिय कहलाने लगता है।
(5) सम्यक् आजीव
- मनुष्य को अपनी जीविका कमाने में पूर्णरूप से ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिये। जीविका कमाते समय ऐसे कर्मों से बचना चाहिये, जिनसे दूसरों को हानि पहुँचने की सम्भावना हो और जिसमें हिंसा का भी मिश्रण हो।
( 6 ) सम्यक् व्यायाम
- सम्यक् व्यायाम का तात्पर्य सम्यक् उद्योग से है। मनुष्य को कुविचारों और दुष्ट प्रवृत्तियों के दमन और सद्विचारों एवं सद्वृत्तियों को पुष्पित तथा पल्लवित करने के लिए सदा सदुद्योग करते रहना चाहिये ।
( 7 ) सम्यक् स्मृति
- इसका तात्पर्य उन सभी अच्छी-अच्छी बातों को याद रखना है जिन्हें कोई महात्मा बुद्ध के उपदेशों द्वारा ग्रहण कर चुका है। उसे सदा अपने मन, वचन, कर्म और कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखनी चाहिये, जिससे वह पथभ्रष्ट न हो सके।
(8) सम्यक् समाधि
- इसका तात्पर्य मन को एकाग्र कर ब्रह्म में लीन होना और परमानन्द की प्राप्ति है। इसकी चार अवस्थाएं हैं। इन चारों अवस्थाओं को पार करके ही मनुष्य निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसकी प्रथम अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध करने के लिए शुद्ध एवं पवित्र विचारों में लीन होने के निमित्त प्रयत्नशील रहता है। द्वितीय अवस्था उस समय आती है जब मनुष्य का हृदय शुद्ध होकर महात्मा बुद्ध के बतलाये चार आर्य सत्यों में पूर्ण रूप से आस्था रखने लगता है।
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