गुप्तकाल में कला | गुप्त कालीन कला | Gupt Kaal Me Kala
गुप्तकाल में कला | गुप्त कालीन कला
- गुप्तकाल में कला की बड़ी प्रगति हुई। डॉ. वी. एस. अग्रवाल के शब्दों में, "इस काल की दृष्टिगत कलाकृतियों ने गुप्तकाल के गौरव को स्थायित्व प्रदान किया। "" गुप्तकालीन कला में ओज, संयम तथा प्राविधिक सौष्ठव पाया जाता है।
- डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार के शब्दों में, “सामान्यतः उच्च कोटि का आदर्श माधुर्य तथा उच्च कोटि की सौन्दर्य भावना गुप्तकला की विशेषता है।"
- गुप्तकालीन कला में विदेशीपन का अभाव है और यह शुद्ध भारतीय कला के रूप में विकसित हुई। इसमें गांधार शैली की तरह न तो भारतीय विषय और न ही यूनानी हाथ है। यूनानी, कुषाण, सीथियन आदि विदेशी जातियों की कला से गुप्तकालीन कला अप्रभावित है।
- इस युग की कला की एक दूसरी विशेषता सरलता है। गुप्तकालीन मूर्तियों में न तो वस्त्राभूषण का भार है और न कोमलांगों का उभार ही एक तीसरी विशेषता कलाकारों की सौन्दर्यप्रियता है।
- गुप्तकालीन कलाकारों ने पारदर्शक वस्त्रों का निर्माण ऐसी कुशलता के साथ किया है कि उनमें स्वाभाविक सौन्दर्य तथा मनोहरता दृष्टिगोचर होती है।
- एक अन्य विशेषता आध्यात्मिकता है। उदाहरणस्वरूप सारनाथ में पद्मासीन महात्मा बुद्ध की जो शान्त एवं गम्भीर मुद्रा में निर्मित मूर्ति है, उससे आध्यात्मिकता प्रकट होती है।
- एक अन्य विशेषता भद्रता तथा शालीनता है। फलतः इस काल में नग्न मूर्तियों का निर्माण बन्द सा हो गया था। एक अन्य विशेषता समानुपात और संतुलन है। इस काल की मूर्तियों का प्रत्येक भाग नपा- तुला है, न ही अधिकता है न न्यूनता.
गुप्तकालीन कला के विभिन्न अंग
गुप्त कालीन स्थापत्य कला
- इस युग में देवी-देवताओं के अनेक मंदिर छोटे और पाषाण के बनाये जाते थे, केवल मूर्तियों को प्रतिष्ठित करने के लिए होते थे। इनमें भक्तों के बैठने के लिए कोई विशाल सभा भवन नहीं थे। शुरू में इनकी छतें चपटी होती थीं। परन्तु बाद में इनके ऊपर शिखर निर्मित किये जाने लगे। प्रवेश द्वार के स्तम्भों और चौखटों पर असाधारण कला उत्कीर्ण होती थी। इन मन्दिरों में कई अभी भी विद्यमान हैं। जैसे- देवगढ़ जिला झांसी में विष्णु का मन्दिर जिसका 12 मीटर ऊँचा शिखर भारत में सबसे प्राचीन है। भूमरा (मध्य प्रदेश) का शिव मन्दिर, नचना कुठार (मध्य प्रदेश) का पार्वती मन्दिर, भीतर गाँव (कानपुर) का मन्दिर, बीजापुर का ऐहोल मन्दिर, उदयगिरि (विदिशा) का विष्णु मन्दिर, चित्तौड़ और माँडू का सूर्य मन्दिर ।
- इस काल में बौद्ध धर्म के भी अनेक विहार, स्तूप और चैत्य निर्मित किये गये। सारनाथ में गुप्तकालीन अनेक बौद्ध विहारों के अवशेष पाये गये हैं। राजगीर का स्तूप, जौलियान और पुष्कलावती का बौद्ध विहार और स्तूप, साँची और बोध गया के बौद्ध मन्दिर भी गुप्तकालीन हैं।
- उदयगिरि की पहाड़ी में वैष्णव और शैवमत की अनेक गुफाएँ काटकर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयीं। अजन्ता, ऐलोरा (महाराष्ट्र), बाघ (मध्य प्रदेश) की गुफाएँ, विहार, चैत्य और स्तूप पहाड़ी काटकर बनाये गये हैं। अजन्ता की गुफा नम्बर 16, 17, 19 गुप्तकाल की सर्वोत्कृष्ट कलाकृति प्रस्तुत करती हैं। दक्षिणी भारत की भोगलराजपुटम् और अखन्न मदन्न की गुफाएँ भी गुप्तकाल में निर्मित की गयीं। इस काल में प्रस्तर स्तम्भ और ध्वज स्तम्भ भी निर्मित किये गये। दुर्भाग्यवश वास्तुकला के क्षेत्र में गुप्तों की उपलब्धियों के अधिक अवशेष प्राप्त नहीं हैं।
गुप्त कालीन चित्रकला
- चित्रकला गुप्तकाल में चित्रकला की बड़ी प्रगति हुई। डॉ. वासुदेव अग्रवाल के शब्दों में, “गुप्तकाल में अपने पूर्ण विकास को पहुँच गई थी। " महाकवि कालिदास ने चित्रकला की शिक्षा देने के लिए 'चित्राचार्य' शब्द का प्रयोग किया है। वात्स्यायन ने चित्रकला की गणना 64 कलाओं में की है। अपने कामसूत्र में उन्होंने कला के रूप भेद, प्रमाण भाव, लावण्य-योजन, सादृश्य तथा वणिका-भंग आदि छः अंगों का उल्लेख किया है। अजन्ता और बाघ की चित्रकारी गुप्तकालीन चित्रकला के अनुपम उदाहरण हैं। प्रसिद्ध कलाविद् राथेन्सटीन के शब्दों में, “इन चट्टानों से कटे मन्दिरों की सैकड़ों दीवारों और स्तम्भों पर हम एक विशाल नाटक देखते हैं जिसे राजकुमारों, ऋषियों और नायकों तथा प्रत्येक प्रकार के पुरुषों एवं स्त्रियों ने विभिन्न पृष्ठभूमि में अभिनीत किया है।"
- डॉ. अग्रवाल के शब्दों में, “रेखाओं का समाश्वासन तथा उनकी कमनीयता, रंगों की शुभ्रता, अभिव्यंजना की समृद्धता के साथ-साथ उदितव्य भावनाओं और स्पंदित जीवन ने इस कला को सभी कालों के लिए सर्वोत्कृष्ट बना दिया है। 2 जलगाँव स्टेशन से 35 मील दूर फर्दापुर नामक गाँव से दक्षिण-पश्चिम चार मील की दूरी पर अजन्ता स्थित है। वहाँ चट्टान को तराशकर 29 गुफाएँ बनाई गई थीं। 10वीं गुफा के स्तम्भलेख तथा 16वीं 17वीं गुफाओं में प्राचीर चित्र गुप्तकालीन हैं। 10वीं गुफा से स्तम्भों पर पुरुषों तथा स्त्रियों के चित्र व वेशभूषा गांधार कला से प्रभावित हैं। 16वीं और 17वीं गुफाओं में कथानक को चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। अलंकरण के अन्तर्गत फल पत्तियाँ, पशु-पक्षियाँ उत्कीर्ण हैं। 16वीं गुफा प्राचीर-चित्र में एक मरणासन्न राजकुमारी का चित्र अंकित है। यह चित्र बड़ा ही स्वाभाविक है। चतुर्दिक खड़े उसके स्वजन अत्यन्त विवश तथा दुःखी दिखाये गये हैं। यह चित्र आख्यानात्मक अथवा भावात्मक चित्र का एक सुन्दर उदाहरण है। 17वीं गुफा के चित्र वर्णनात्मक हैं और इनमें विभिन्न कथाओं को चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। ये चित्र बड़े ही ओजपूर्ण, सजीव तथा स्वाभाविक हैं। इसमें भगवान् बुद्ध को अत्यन्त ही निर्लिप्त मुद्रा में दिखाया गया है। इस गुफा में चित्रों में माता तथा पुत्र नामक चित्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इस चित्र में गौतम बुद्ध की पतनी यशोधरा अपने पुत्र राहुल को अपने पति को समर्पित करती हुई प्रदर्शित की गई है। इसमें माता की ममता तथा पुत्र-वत्सलता दर्शनीय है। इस गुफा के अन्य चित्र में कोई सम्राट एक सुनहले राजहंस की बातों को बड़ी ही अभिरुचि के साथ सुनता हुआ चित्रित किया गया है। 17वीं गुफा के एक-दूसरे चित्र में गौतम बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का दृश्य दिखाया गया है। यह काफी स्वाभाविक है।
- बाघ की चित्रकला भी अनुपम है। बाघ ग्वालियर के समीप एक छोटा-सा ग्राम है। यहाँ पर विंध्य की पहाड़ियों को तराश कर गुफाएँ बनाई गई हैं। इनकी भीतरी दीवार के चित्र गुप्तकालीन हैं। अजन्ता के चित्र प्रधानतया धार्मिक विषय से सम्बन्धित हैं, किन्तु बाघ के चित्र मनुष्य के लौकिक जीवन से लिए गए हैं। इन चित्रों से तत्कालीन वेशभूषा, केश विन्यास तथा अलंकार प्रसाधन को समझने में सुविधा होती है। एक चित्र में महिलाओं को नृत्य-गान करते हुए दिखलाया गया है। बाघ की चित्रकला की प्रमुख विशेषता यह है कि इसके चित्रों को बनाने की कल्पना एक ही समय की गई थी। फलतः ये चित्र दर्शकों के समक्ष समरूपता का भाव प्रकट करते हैं। मूर्तिकला - इस युग की सबसे बड़ी देन हिन्दू, जैन और बौद्ध की कलापूर्ण प्रतिमाएँ हैं। सारनाथ, मथुरा और पाटलिपुत्र में अनेक बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियाँ निर्मित की गयीं। ताँबे और काँसे की भी मूर्तियाँ बनायी गयीं। यहाँ अनेक प्रस्तर खण्डों पर बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाएँ उत्कीर्ण की गयीं।
- इस काल में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और पार्वती की मूर्तियाँ भी बनाई गयीं। कलाकारों ने विष्णु और शिव के अनेक अवतारों की पौराणिक गाथाएँ पाषाणों में उत्कीर्ण कीं; जैसे देवगढ़ के मन्दिर में कृष्णलीला, कृष्ण का गोकुल जाना, कंस वध, कृष्ण-सुदामा मिलन आदि। रामलीला के दृश्य, राम वनगमन आदि। बंगाल के राजशाही जिले में कृष्ण लीला सम्बन्धी अनेक दृश्य उत्खनन में प्राप्त हुए हैं।
- इस काल की मथुरा और गोरखपुर में जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी उपलब्ध होती हैं। इस युग में पकाई हुई मिट्टी और मसालों की भी मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। इस युग की मूर्तियों में आकृति, मुद्रा और हाव-भाव पूर्णतया भारतीय हैं।
गुप्त काल में धातुकला
- इस कला में अनेक धातुओं को गलाकर उन्हें मिश्रित कर अनेक वस्तुएँ तथा मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। ताँबे की प्रतिमाएँ बनाने का कार्य विशेष प्रगति पर था। सुल्तानगंज (बिहार) में बुद्ध की भव्य प्रतिमा, नालन्दा में 80 फीट ऊँची काँसे की बुद्ध प्रतिमा और महरौली का ढाला हुआ लौह स्तम्भ गुप्तयुग की धातुकला के उच्च उदाहरण हैं।
गुप्त काल में संगीत, नृत्य और अभिनय कला
- गुप्त सम्राट स्वयं संगीत प्रेमी और इसके उदार संरक्षक थे। प्रयाग की स्तम्भ प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त वीणा बजाने में नारद और तुम्बारू से भी श्रेष्ठ था। पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही गाते थे, नृत्य करते थे और भेरी, झांझ, टिपरी, बाँसुरी आदि अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र बजाते थे। रंगमंच और नाटक कला का भी विकास हो गया था।
गुप्त काल में मुद्राकला
- भारतीय ढंग के अनेक सोने और चाँदी के सिक्के इस युग में ढाले गये। इन सिक्कों पर गुप्त नरेशों की मूर्तियाँ, लक्ष्मी की मूर्ति, गरुड़ध्वज और सिंह की आकृतियाँ अंकित हैं। ये गुप्त सम्राटों की गौरव कथाएँ भी प्रदर्शित करते हैं।
- इस तरह गुप्त युग में भारतीय समाज, कला, धर्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, ललित कला आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। यही कारण है कि इस युग को स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है।
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