जागीर का अर्थ | सूफी का अर्थ | Jagir Ka Arth | Sufi Ka Arth
जागीर का अर्थ
मध्यकालीन भारत का वह क्षेत्र जिसका राजस्व
किसी राजकीय कर्मचारी को उसकी सेवाओं के बदले में वेतन के रूप में निश्चित अवधि के
लिए दिया जाता था, जागीर कहलाता था।
मुगल काल में मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित
करने वाली भूमि के रूप में पाते थे जिन्हें जागीर कहते थे और यह सल्तनतकालीन
इक्ताओं के समान थी।
जागीर वह भूमि होती है जिसमें राज्य के प्रमुख
अधिकारियों को वेतन के रूप में विशाल भू-क्षेत्र दिये जाते थे। हस्तान्तरण की जाने
वाली जागीर भूमि को पायबाकी कहा जाता था।
साम्राज्य की अधिकांश भूमि जागीर भूमि के
अर्न्तगत आती थी। वह भूमि जो अनुत्पादक होती थी तथा धार्मिक व्यक्तियों को अनुदान
में दी जाती थी मदद-ए-माश, मिल्क अथवा सयूरघाल कही जाती थी।
मुगलकाल में भूमि की मिल्कियत का अधिकार
काश्तकार के पास सुरक्षित था। जिसे बादशाह की स्वीकृति प्राप्त होती थी।
फ्रांसीसी
यात्री बर्नियर (17 वीं सदी) के अनुसार मुगलकाल में बादशाह सारी भूमि का मालिक
होता था। यह सरदारों के अधीन थी जो राजस्व वसूल कर उसका एक भाग केन्द्रीय कोष में
भेज देते थे और शेष स्वयं रख लेते थे।
सूफी का अर्थ
सूफी शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द शफा
(विशुद्ध) से मानी जाती है।
कुछ विद्वान इसका सम्बन्ध सूफ (ऊन) मानते हैं, क्योंकि पहले सूफी ऊनी वस्त्र (कम्बल)
धारण करते थे कुछ विद्वानों का मत है कि सर्वप्रथम साहबा (पैगम्बर मुहम्मद के
सहयोग ) में से कुछ लोग जो सांसारिक जीवन से अपने को अलग कर एक गुफा में तपस्या
करते थे, सूफी
कहलाये।
विद्वानों के एक अन्य वर्ग का यह मानना है कि मदीना शरीफ स्थित सुफ्फा
नामक चबूतरे पर बैठने वाला फकीर सूफी चिन्तक इस्लाम धर्म को मानते थे। परन्तु
उसके कर्म काण्डीय पक्ष का विरोध करते थे।
सूफियों के अनुसार नमाज, रोजा तथा हजयात्रा से ईश्वर की
प्राप्ति सम्भव नहीं। सल्तनतकालीन उलेमा वर्ग (धर्मवेत्ताओं) की धार्मिक कट्टरता
की सूफियों ने अलोचना की थी।
सूफी रहस्यवाद का जन्म दसवीं शताब्दी के लगभग
हुआ। प्रारम्भिक सूफियों में महिला रहस्यवादी रबिया (8 वीं शताब्दी ) एवं मंसूर
बिन हल्लाज (10वीं शताब्दी) ने ईश्वर और व्यक्ति के बीच प्रेम सम्बन्ध पर बल दिया।
मंसूर हल्लाज अपने को अनलहक (मैं ईश्वर हूँ) घोषित करने वाला पहला सूफी साधक था।
सूफी जगत में सर्वप्रथम इब्नुल अरबी द्वारा दिये गये सिद्धान्त वहादत-उल वजूद का
उलेमाओं ने विरोध किया।
उलेमाओं ने जहाँ ब्रह्म तथा जीव के मध्य, मालिक एवं गुलाम के रिश्तों की कल्पना
की वहीं दूसरी ओर सन्तों ने ईश्वर को अदृश्य सम्पूर्ण वास्तविकता एवं शाश्वत
सौन्दर्य को प्राप्त करने में सूफियों ने अपना विश्वास जताया। इन्होंने सौन्दर्य
एवं संगीत को अधिक महत्व दिया।
सूफियों ने गुरू को अधिक महत्व दिया, क्योंकि ये गुरूओं को ईश्वर प्राप्ति
का साधन मानते थे। सूफी भौतिक एवं भोग-विलास से दूर, सादे, सरल संयमपूर्ण जीवन में अपनी आस्था
रखते थे।
सूफी साधकों को परमआनन्द तक पहुँचने से पूर्व
दस अवस्थाओं से था। सू
फी सन्तों ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार जन साधारण की
भाषा में किया। इनके द्वारा ही गुजरना पड़ता हिन्दी, उर्दू एवं अन्य कुछ क्षेत्रीय भाषाओं
का विकास भी हुआ।
सूफी धर्म संघ, बेशर (इस्लामी सिद्धान्त के समर्थकद्ध एवं बाशर (इस्लामी सिद्धान्त
में बंधे नहीं) में विभाजित था।
सूफी सन्तों के शिष्य को मुरीद एवं उनके आश्रमों
एवं मठों को खानकाह कहा जाता था।
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