जैन धर्म के सिद्धांत | जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों की चर्चा कीजिए | Jain Dharm Ke Sidhant
जैन धर्म के सिद्धांत जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों की चर्चा कीजिए
जैन धर्म के सिद्धांत
- ईश्वर सम्बन्धी विचार
- आत्मवाद
- कर्म की प्रधानता
- आत्मा की मुक्ति
- पांच महाव्रत
- तपस्या
जैन धर्म के सिद्धांतों का वर्णन कीजिए
ईश्वर सम्बन्धी विचार
- जैनियों का ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास था या नहीं इस विषय में विद्वानों में भारी मतभेद था। लेकिन अब यह निश्चित हो चुका है कि जैन धर्मावलम्बी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। महावीर स्वयं ईश्वर को सृष्टि का कर्ताधर्ता नहीं मानते थे। उनका विचार था कि "मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान् है और जो शक्ति तथा नैतिकता है, वही भगवान है।" जैनियों का कहना है कि सृष्टि अथवा विश्व का संचालन करने के लिए ईश्वर जैसी किसी अलौकिक सत्ता की आवश्यकता नहीं है। इस धर्म में तीर्थकरों को ही ईश्वर माना गया है तथा मन्दिरों में देवी-देवताओं के बजाय तीर्थंकरों की ही पूजा की जाती है। जैन धर्म में ईश्वर को निराकार माना जाता है। उनका कहना है कि निर्माणकर्ता के हाथ-पैर होते हैं और वह अपने हाथों से काम करके किसी वस्तु का निर्माण करता है। ईश्वर को सभी व्यक्ति निराकार नहीं मानते हैं। अत: ईश्वर जिसका कोई रूप नहीं है वह विश्वकर्ता कदापि नहीं हो सकता। उनके विचार में यह संसार शाश्वत् अनन्त, अनादि और स्वाधारित है। वे ईश्वर को सर्वज्ञ और वीतराग मानते हैं।
आत्मवाद
- अनीश्वरवादी होते हुए भी महावीर अनात्मवादी नहीं थे। उनका कहना था कि विश्व में दो बुनियादी पदार्थ हैं, जीव और अजीव दोनों ही अनादि हैं, उन्हें किसी ने रचा नहीं और दोनों ही स्वतंत्र हैं। जीव का अर्थ आत्मा ही है। महावीर का विश्वास था कि जीव केवल मनुष्य, पशु और वनस्पति में ही नहीं, बल्कि विश्व के कण-कण में पाया जाता है। पत्थरों और चटटानों, जल तथा अन्य प्राकृतिक वस्तुओं में भी जीव हैं। संसार में अगणित जीव हैं और सब समान हैं।अजीव का अर्थ केवल पदार्थ (मैटर) नहीं है। जीवन को निकालकर जो विश्व शेष रह जाता है यह सब अजीव है। अजीव के अन्तर्गत पांच चीजें सम्मिलित हैं-पुद्गल (पदार्थ मैटर), आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल (समय) । स्पर्श, रस, गंध एव वर्णयुक्त द्रव्य पुद्गल कहलाता है। मोटे तौर पर पुद्गल के दो प्रकार हैं- अणु जो अविभाज्य हैं तथा स्कंध जो अणुओं का समूह है। दूसरा द्रव्य धर्म है। धर्म का अर्थ है गति की अवस्था और अधर्म की स्थिरता की अवस्था । आकाश जो चौथा द्रव्य है सब पदार्थों को अवकाश देता है। आकाश के दो भेद लोकाकाश तथा आलोकाकाश है। पाँचवां द्रव्य काल समस्त द्रव्यों के परिवर्तनों में योग है। विश्व जीव और अजीव के घात प्रतिघात से चलता और कार्य करता है।
कर्म की प्रधानता
- जैन लोग कर्म की प्रधानता को मानते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों से ही इस बात का निर्णय होता है कि किस वंश में हमारा जन्म होगा और कैसा हमारा शरीर होगा। कर्म अनेक प्रकार के होते हैं और उनका फल भी विभिन्न प्रकार का होता है। कर्म के प्रभाव से ही वह राजा अथवा भंगी के घर जन्म लेता है। इस जन्म के अच्छे कर्म करके मनुष्य अपना भविष्य अच्छा बना लेता है। उसे अपने कर्मों के लिए फल अवश्य भोगना पड़ता है। क्रोध, माया, लोभ आदि के कारण ही आत्मा बन्धन में पड़ती है। जैन धर्म मे पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी विश्वास किया जाता है। उनके अनुसार मानव बार-बार जन्म लेता है। वे विश्वास करते हैं कि आत्मा बहुत से बन्धनों में बंधी हुई है। अनेक बार जन्म लेने पर और उन बन्धनों का अन्त करके ही मानव मुक्ति प्राप्त करता है। जैन मतावलम्बी आत्मा के अस्तित्व तथा उसके अमरत्व पर विश्वास करते हैं। ये लोग आत्मा को सर्वद्रष्टा समझते हैं; परन्तु इनकी यह धारणा है कि कर्म के बन्धनों के कारण उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है। जैनियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग है और यद्यपि इसकी कोई मूर्ति नहीं होती, परन्तु प्रकाश की भांति वह अपना अस्तित्व रखती है। जैनियों के विचारानुसार, आत्मा स्वभाव से ही पूर्ण तथा निर्विकार है, परन्तु कर्मों के कारण यह बन्धन में पड़ जाती है।
आत्मा की मुक्ति
- आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त करने के लिए जैन धर्म सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् कर्म रूपी त्रिरत्न को पर्याप्त समझता है। महावीर का कहना था कि मनुष्य के शरीर की तरह आत्मा सभी जीवधारियों के शरीर में निवास करती है। इसीलिए सभी मनुष्यों के लिए यह अच्छा है कि वे संसार के सभी जीवधारियों को समान समझें। यहीं उनका सम्यक् दर्शन था। सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती है और मनुष्य को अज्ञानता, क्रोध, लोभ, मोह आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है। इन दोनों की प्राप्ति के प्रयत्न के साथ-साथ मनुष्य को सम्यक् कर्म अथवा चरित्र की प्राप्ति के लिए भी यत्न करना चाहिए। इसकी प्राप्ति इन्द्रियों, विचारों और भाषणों पर नियंत्रण रखने से होती है। इन त्रिरत्न की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य और उसकी आत्मा दोनों को कर्म के बन्धन से मुक्ति मिल जाती है।
जैन धर्म के अनुसार अठारह मुख्य पाप
- अठारह पाप जैन धर्म के अनुसार अठारह मुख्य पाप हैं। आवश्यक सूत्र के अनुसार वे इस प्रकार हैं (1) हिंसा, (2) झूठ (3) चोरी (4) मैथुन (5) ह, (6) क्रोध (7) मान (8) माया (9) लोभ, (10) राग, (11) द्वेष, (12) कलह, (13) दोषारोपण, (14) चुगली (15) असंयम में रति और संयम में अरति, (16) निन्दा, (17) छल कपट, (18) मिथ्या दर्शन।
जैन धर्म के पांच महाव्रत
- महावीर स्वामी ने अपनी आँखों से देखा था कि हिन्दू दर्शन के सिद्धांत साधारण जनता के लिए उसी प्रकार ग्राह्य नहीं जिस प्रकार कुछ चुने हुए धर्मविष्ठाताओं या धर्मरत व्यक्तियों को है। जितने नियम हिन्दू विचारकोंने प्रस्तुत किये हैं वे सम्पूर्ण मनुष्यों द्वारा प्रयोग में नहीं लाये जा सकते। सभी तप नहीं कर सकते और न सभी यज्ञ कर सकते हैं अतः उन्होंने दो प्रकार के धर्म का उपदेश देना आवश्यक समझा (1) संन्यासियों के लिए तथा (2) गृहस्थ या श्रावकों के लिए महावीर ने सर्वसाधरण के लिए पांच नियम बताये जिसको पाँच महाव्रत कहते हैं और जैन धर्म में इनके पालन पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। इसको पाँच महाशील भी कहा जाता है। इसकी महत्ता इसी बात से प्रकट होती है कि इनका उल्लेख उपनिषदों में भी किया गया है।
- ये पाँच व्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य हैं। इन्हीं पाँच महाव्रतों में आगे चलकर रात्रि का भोजन न करना भी सम्मिलित कर दिया गया।
01 अहिंसा
- जैन धर्म में अहिंसा के पालन पर बड़ा बल दिया जाता है। अहिंसा का केवल यही तात्पर्य नहीं है कि किसी की हत्या नहीं की जाये, वरन् अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य यह है कि न हिंसा की कभी कल्पना करनी चाहिए और न उसके सम्बन्ध में कहना चाहिए; न दूसरों को हिंसा करने की आज्ञा देनी चाहिए और न उन्हें उसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
02 सत्य
- इसी तरह सत्य पर भी जैन धर्म में बहुत अधिक जोर दिया जाता है। वे केवल सत्य बोलने का ही उपदेश नहीं देते, बल्कि कहते हैं कि सत्य को सुन्दर तथा मधुर होना चाहिए। इस व्रत को पूरा करने के लिए क्रोध, भय तथा लोभ पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
03 अस्तेय
- जैनी लोग अस्तेय, जिसका अर्थ है चोरी न करना, को भी अपना एक महाव्रत मानते हैं। जैन लोग दूसरे का धन नहीं लेने का उपदेश देते हैं। ये अस्तेय और अहिंसा में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध बतलाते हैं।
04 ब्रह्मचर्य
- जैनियों का चौथा महाव्रत ब्रह्मचर्य है। सभी प्रकार के काम, अर्थात् विषयवासनाओं को त्याग देना ब्रह्मचर्य का अर्थ है।
05 अपरिग्रह
- जैनियों का पाँचवां और अन्तिम महाव्रत अपरिग्रह है, जिसका अर्थ होता है किसी वस्तु में आसक्ति नहीं रखना। इन्द्रियां जिन वस्तुओं की ओर आकृष्ट होती हैं, उनको त्याग देना ही अपरिग्रह है।
तपस्या
- महावीर ने कठिन तपस्या पर जोर दिया। उन्हें स्वयं कठिन तप के बाद ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। भिक्षुओं के लिए व्रत, शरीर को कष्ट देना तथा गम्भीर ध्यान और मनन आवश्यक है। जैन साधु तपस्या को इन्द्रियों को वश में करने का अपूर्ण साधन मानते हैं।
- मुख्य रूप से तपस्या दो प्रकार की होती है। एक है ब्रह्म तपस्या जिसमें अनशन, काया को कष्ट देना तथा रसों का परित्याग सम्मिलित है। दूसरी प्रकार की तपस्या में पाप का प्रायश्चित करना, विनय, सेवा, ध्यान और स्वध्याय सम्मिलित है। केशलुंचन तथा अनशन व्रत धारण करके प्राण त्यागना जैन धर्म के उत्तम तपस्या के सूचक हैं।
- प्राचीन काल में ऐसे जैन धर्मावलम्बियों का उल्लेख आता है, जो गीन चट्टानों पर बैठे मृत्यु की प्रतीक्षा में असीम वेदना सहते और अन्त में इसी प्रकार प्राण त्याग करते थे। वस्त्र त्याग- महावीर के अनुसार पूर्ण निर्वाण गृहस्थों को नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए सारे संसारिक बन्धनों का यहाँ तक कि वस्त्रों का परित्याग अत्यावश्यक है। यद्यपि अब दिगम्बर सम्प्रदाय के भिक्षु भी वस्त्र धारण करने लगे हैं, किन्तु इस बात को दोनों ही सम्प्रदाय वाले स्वीकार करते हैं कि पूर्ण निर्वाण के लिए वस्त्र का परित्याग अत्यन्त आवश्यक है।
भारतीय संस्कृति को जैनधर्म की देन
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