भारतीय संस्कृति को जैनधर्म की देन
जैन धर्म की भारत को देन
साहित्यिक देन
- यद्यपि जैनधर्म का प्रचार बड़ा सीमित रहा और वह कभी प्रभावशाली आन्दोलन नहीं हो सका, परन्तु हमारे देश को इसकी सांस्कृतिक देन बहुत बड़ी है। इसकी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण देन साहित्य तथा कला क्षेत्र में देखने को मिलता है। जैन विद्वानों ने विभिन्न कालों में लोकभाषाओं में ग्रन्थों की रचना करके इन भाषाओं के परिवर्द्धन तथा परिमार्जन में बड़ा योग दिया। अधिकांश जैन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे हुए हैं, जिससे प्राकृतिक भाषा के विकास में बड़ा योग मिला। राजपूत काल में अनेक जैन आचार्यों ने प्राकृतिक तथा अपभ्रंश भाषाओं में कई ग्रन्थ लिखे। जैनधर्म का सबसे प्रसिद्ध साहित्य 'श्रुतंग' मागधी भाषा में लिखा हुआ है। इसमें बारह अंगों का संकलन किया गया है, जो जैनधर्म के आधार हैं।
- प्राचीन जैन धर्मग्रन्थों और जैन कविता पर जैनियों द्वारा लिखित भाष्य जैन महाराष्ट्री में मिलता है। ईस्वी संवत् के पश्चात् संस्कृत भाषा धीरे-धीरे उत्तर भारत में फैलने लगी। इस भाषा को पहले बौद्धों ने और फिर जैन लेखकों ने अपना लिया। जैन साहित्य का आधे से अधिक सहित्य मध्यकालीन दार्शनिक विचारों से भरा हुआ है। इसके रचयिताओं ने इन ग्रन्थों को लिखते समय नैतिक कथाओं के वर्णन, व्याकरण और कोषरचना में अपने आपको सिद्धहस्त और महान् सिद्ध करने की चेष्टा की है। पञ्चतंत्रों पर लिखे गये दो आलोचना ग्रन्थ जैनियों के प्रभाव के द्योतक हैं।
- तमिल सहित्य में जैनियों का शताब्दियों तक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। 'तमिल साहित्य' की महत्त्वपूर्ण कविता जीवक चिन्तामणि जैनियों की ही देन है। तिरूवल्लूवर का “कुंडल" तमिल साहित्य की उत्तम कृति मानी गई है। इसका रचयिता एक जैनी था। प्राचीन तमिल व्याकरण और प्राचीन तमिलकोष दोनों ही जैन लेखकों की कृतियां मानी जाती हैं। तेलुगू साहित्य की नींव भी जैन लेखकों और विद्वानों से ही आरम्भ होती है।
कलात्मक देन
- कला के क्षेत्र में भी जैनधर्म की देन अपूर्व है। ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दियों में जैन कला का बड़ा विकास हुआ। जैनियों के भव्य मन्दिर आज भी देश के विभिन्न भागों में पाये जाते हैं। बौद्धों की तरह जैनियों ने भी भिक्षुगृहों और गुफाओं का निर्माण किया। इनमें भिक्षु रहा करते थे। उनके इन निवास स्थानों का पता आज भी उदयगिरि में सिंह गुफा, ऐलोरा में इन्द्रसभा, लक्कुण्डी, पुलितान, आबू पर्वत, गिरनार, पार्श्वनाथ की पहाड़ी के भग्नावशेष, जोधपुर में रणपुर, बुन्देलखण्ड में खजाहारी, घण्टाई और आदिनाथ मन्दिर तथा चित्तौड़ आदि में मिलता है। दक्षिण भारत में जैनियों के सुन्दर मन्दिर श्रवण, बेलगोल, मुद्राबिद्री तथा गुरुवायंकेरी के प्रमाण आज भी हैं। जैनियों के अनेक मन्दिरों के चिह्न आज भी मिलते हैं जिनके ध्वंसावशेषों पर मस्जिदें खड़ी की जा चुकी हैं। हाथ से लिखे गये जैन ग्रन्थों पर सुन्दर चित्र मिलते हैं वे जैन चित्रकारी के नमूने हैं। यद्यपि जैन चित्रकला बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है तथा वह सादगी सम्पन्न है किन्तु इस कला के द्वारा भारतीय संस्कृति के विकास में योग मिला है। जैनियों ने मूर्तियों का भी पर्याप्त विकास किया था।
दार्शनिक देन
- जैनियों की दार्शनिक देन भी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सत्य की खोज के लिए जैनियों ने जिस स्याद्वाद का प्रतिपादन किया है, वह उनकी एक अमूल्य देन है। स्याद्वाद का अर्थ होता है 'सम्भवतः ऐसा है' क्योंकि हम सत्य के केवल एक स्वरूप को देखकर ही सम्पूर्ण सत्य की धारणा बना लेते हैं जबकि सत्य के अनेक स्वरूप होते हैं। जैनियों ने इस रहस्य का उद्घाटन करके भारत को एक महान सांस्कृतिक देन से सम्पन्न किया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न क्षेत्रों में धर्म की महान देन है। यद्यपि जैनधर्म को भारत का एक मुख्य धर्म नहीं माना जाता है, पर यह धर्म पल्लवित रहा। एक समीक्षक ने ठीक ही लिखा है कि “जैनधर्म एक धर्म न होकर नैतिक जीवन व्यतीत करने का संग्रह है। यह किसी ईश्वर को नहीं मानता। बल्कि उन महापुरुषों को मानता है जिन्होंने आध्यात्मिक श्रेष्ठता प्राप्त की। हर व्यक्ति उतना ही श्रेष्ठ हो सकता है जितने वे थे और यदि आवश्यकता पड़े तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के किसी सर्वप्रिय देवता को भी अपने में सम्मिलित करने को तत्पर था। जाति के सिद्धांत के विरुद्ध भी यह धर्म नहीं था। दूसरे धर्मों को अपने में मिलाने के लिए यह सदा तत्पर रहता था। इसके मौलिक तत्व के अनुसार यह किसी भी ऐसे सिद्धांत को स्वीकार या अस्वीकार नहीं करता था जिनसे लौटना असम्भव न हो। इसके विचारानुसार जब सारा ही ज्ञान सम्भव है तो तुम्हारे विरोधी का विचार भी उतना ही ठीक है जितना कि तुम्हारा । यही एक मुख्य कारण था कि जैनधर्म भी यहाँ पर जीवित है जबकि बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि से समाप्त हो गया।
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