कलिंग का युद्ध |कलिंग युद्ध का अशोक के जीवन में प्रभाव | अशोक का साम्राज्य विस्तार | Kaling Ka Yudh
कलिंग का युद्ध अशोक का साम्राज्य विस्तार
अशोक का साम्राज्य विस्तार
- अशोक ने सम्राट बनने के बाद अपने पूर्वजों की भांति साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और साथ ही कुछ देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखने की नीति का भी पालन किया। उसने यवन राज्यों में अपने राजदूत भेजें और उनके राजदूतों का स्वागत किया। उसने यवन पदाधिकारियों को अपने राज्य में नियुक्त किया। लेकिन आन्तरिक क्षेत्र में उसकी नीति राज्य विस्तार की थी।
- भारत में प्राचीन राजाओं की परम्परा के अनुसार उसका भी राजनीतिक आदर्श दिग्विजय का था। फलतः भारत के जो प्रान्त अभी मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं थे उन पर आक्रमण करने का उसने संकल्प किया। सर्वप्रथम उसने कश्मीर पर आक्रमण किया और उस पर विजय प्राप्त करके उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- कश्मीर के प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों (जैसे राजतरंगिणी) में अशोक को मौर्य देश का प्रथम सम्राट के रूप में व्यक्त किया गया है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त या बिन्दुसार का कश्मीर पर अधिकार नहीं था।
कलिंग का युद्ध Kaling War in Hindi
- अपने शासनकाल के तेरहवें तथा राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर दिया। कलिंग उस समय एक प्रबल राज्य था और उसके पास एक विशाल सेना थी। नन्दवंश के अन्तिम राजा घनानन्द के शासनकाल में कलिंग मगध साम्राज्य का एक अंग था। ऐसा मालूम होता है कि नन्दवंश के पतन और मौर्य वंश की स्थापना के संक्रमण काल से लाभ उठाकर कलिंग ने अपनी स्वतंत्रता कायम कर ली, पर मगध के लिए अपने पड़ोस में ऐसे शक्तिशाली राज्य का होना असह्य था।
- अतएव अशोक ने कलिंग की स्वतंत्रता समाप्त कर देने का निश्चय किया। उसने कलिंग पर आक्रमण करने की योजना बनायी और इसके लिए विशाल सेना का संगठन किया। पूरी तैयारी के उपरांत कलिंग पर आक्रमण किया गया। अशोक के तेरहवें शिलालेख से हमें ज्ञात होता है कि अशोक ने कलिंग से युद्ध करके उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसके लिए बड़ा ही भीषण युद्ध हुआ था। कहा जाता है कि इस युद्ध में ढाई लाख से अधिक व्यक्ति घायल हुए और इतने ही मारे गये। इन हताहतों में सैनिक अफसर योद्धा और साधारण व्यक्ति सम्मिलित थे।
- लगभग पन्द्रह हजार व्यक्ति बन्दी बनाये गये कई लाख स्त्री और बच्चे अनाथ हो गये। इतने भीषण रक्तपात और निर्मम हत्याकाण्ड के उपरान्त कलिंग का राज्य मगध साम्राज्य का प्रान्त बना लिया गया और एक राजकुमार को वहाँ का राज्यपाल बना दिया गया, जो कलिंग की राजधानी तोशलि में रहकर वहां के शासन की देखभाल करने लगा।
- कलिंग के युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ, जिसे देखकर अशोक के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसके विचार एकदम बदल गये और साम्राज्यवादी नीति को उसने सदा के लिए त्याग दिया।
- अपने शिलालेख में सम्राट स्वयं लिखता है–“ अपने अभिषेक के आठ वर्ष बाद देवानामप्रिय
राजा प्रियदर्शी ने कलिंग देश को विजय किया। वहां डेढ़ लाख व्यक्ति बन्दी बनाकर
बाहर भेज दिये गये एक लाख मारे गये और इससे कई गुने नष्ट हो गये।"
कलिंग युद्ध का अशोक के जीवन में प्रभाव
- कलिंग युद्ध का अशोक के जीवन में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसने अशोक के जीवन को पूरी तरह आन्दोलित करके इसमें परिवर्तन कर दिया। कलिंग युद्ध के भीषण हत्याकांड का अशोक के हृदय पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसने यह निश्चय कर लिया कि वह राज्यविस्तार की नीति का परित्याग कर देगा और भविष्य में कभी युद्ध नहीं करेगा। युद्ध के स्थान पर वह सबसे मैत्री रखेगा और राज्यविजय के स्थान पर धर्मविजय करेगा। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने यह घोषणा की थी "कलिंग देश की विजय के समय जितने मनुष्य मारे गये, मरे अथवा बन्दी बनाये गये, उसके शतांश अथवा सहस्रांश की भी आज हानि हो तो देवनाप्रिय को भारी दुःख होगा। यही नहीं यदि देवनाम्प्रिय को कोई हानि भी पहुँचाये तो उसे यथासम्भव सहन कर लेना चाहिए। अब सम्राट के विचार में वास्तविक विजय धर्मविजय की थी। अतएव भेरिघोष की जगह पर धर्मघोष की गूंज सुनायी देगी और दिग्विजय के स्थान पर धर्मविजय का प्रयत्न किया जाएगा।"
- अशोक के ये विचार केवल सद्भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र नहीं थे। वह आजकल के राजनीतिज्ञों की तरह ढोंगी नहीं था, जो एक ओर तो शान्ति और प्रेम की बात करता है और दूसरी ओर अपने दुर्बल पड़ोसियों को कुचलने का यत्न करता है। अशोक ने जो संकल्प किया उसको जीवन भर निभाया। कलिंग युद्ध के बाद उसने तलवार सदा के लिए म्यान में रख ली। युद्धघोष बन्द हो गया और उसके स्थान पर धर्मघोष की आवाज देश-देशान्तर में गूंजने लगी। यद्यपि अशोक के समय में मौर्य साम्राज्य काफी विस्तृत हो चुका था फिर भी भारतवर्ष में तथा उसकी सीमाओं पर अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जो मौर्य साम्राज्य से बाहर थे। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने उन्हें जीतने का कभी प्रयत्न नहीं किया। अशोक ने यह निश्चय न केवल अपने ही तक सीमित रखा वरन् अपने पुत्र तथा पौत्र को भी यह उपदेश दिया कि वे युद्ध न करें।
कलिंग युद्ध का महत्त्व Kaling Yudh Ka Mahatav
- अशोक ने हिंसा का जो त्याग कर दिया उसका परिणाम मगध साम्राज्य के लिए बड़ा ही अहितकर सिद्ध हुआ। उत्तरोत्तर उसका पतन होने लगा। इस कारण भारत के राजनीतिक जीवन पर इसका असर बड़ा ही बुरा हुआ पर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर इसका बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इस युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया और उसके प्रचार में अपने जीवन को अर्पित कर दिया। अन्य राज्य से मैत्री का संबंध रखकर अशोक ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का बाहर के देशों में प्रचार किया।
- इस दृष्टिकोण से कलिंग युद्ध का महत्त्व विश्व के इतिहास में भी बहुत हो जाता है। विश्व के इतिहास में प्रायः यही देखा गया है कि युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद विजय की आकांक्षा और भी बढ़ जाती है। लेकिन यह एक अनूठा उदाहरण है कि विजय प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अपनी आकांक्षा को दबा ले और यह संकल्प कर ले कि वह दिग्विजय के स्थान पर धर्मविजय करेगा। लेकिन कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने ऐसा ही किया। उसने तुरंत ही अहिंसा के धर्म बौद्ध धर्म को अपना लिया और उसके प्रचार में अपना तन, मन और धन सब कुछ लगा दिया। इसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का प्रचार बाहर के देशों में होने लगा।
- हेमचन्द्र राय चौधरी ने कलिंग युद्ध के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है- "कलिंग की विजय मगध तथा भारतवर्ष के इतिहास में एक महान सीमा चिह्न है। यह विजय तथा विकास की उस नीति का अन्त करता है जिसका प्रारम्भ बिम्बिसार ने अंगदेश पर विजय प्राप्त करके किया था। यह एक नये युग का आरम्भ करता है। यह युग है शान्ति का, सामाजिक उन्नति का धार्मिक प्रचार का तथा राजनीतिक अवरोध और सैनिक पतन का। इस काल में सेना के अभाव के कारण साम्राज्यवादी मगध के सैनिक उत्साह का उत्तरोत्तर विनाश होता गया। आध्यात्मिक विजय अथवा धर्म विजय का युद्ध आरम्भ होने वाला था।
सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमाएँ
- अशोक के साम्राज्य विस्तार को सही-सही निश्चित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। देश के विविध भागों में उसके जो अभिलेख मिलते हैं, उनसे उसके साम्राज्य को निश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती है।
- स्वयं अशोक ने तो केवल कलिंग जीता था, पर अपने पितामह से उसे एक विस्तृत साम्राज्य मिला था जिसकी उत्तर पश्चिमी सीमा हिन्दुकुश थी। उसकी छाया में हेरात, कन्धार, काबुल की घाटी और बलूचिस्तान, जो चन्द्रगुप्त ने सीरियक नरेश सेल्यूकस से जीते थे, अब भी अशोक के शासन में थे। क्रमश: पेशावर और हज़ारा जिलों में शहबाजगढ़ी और मनसेहरा के शिलालेखों की भौगोलिक स्थिति से यह प्रमाणित हो जाता है। इसकी पुष्टि ह्वेनसांग के लेख से भी हो जाती है, क्योंकि वह लिखता है कि कपिशा (काफिरिस्तान) और जलालाबाद में उसने अशोक के बनाये स्तूप देखे थे।
- उसी चीनी भिक्षु और राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीर भी अशोक के शासन में था, जहाँ उसने श्रीनगर बसाया था। इस उत्तर पश्चिम के अतिरिक्त उत्तर में उसके साम्राज्य की सीमा स्वयं हिमालय की पर्वतश्रेणी थी बौद्ध परम्परा के अनुसार नेपाल भी उसके राज्य में था। वहाँ उसने ललितपाटन नामक नगर बसाया। और वहाँ की उसने चारुमति के पति अपने दामाद देवपाल क्षत्रिय के साथ यात्रा की। यह उत्तरी सीमा उसके उस भाग के शिलालेख और तराईलेखों से भी प्रमाणित हो जाती है।
- देहरादून जिले के काल्सी नामक स्थान पर और तराई रुम्मिनदेई व निग्लीवा के ग्रामों में उसके लेख मिले हैं।
- पूर्व में बंगाल उसके साम्राज्य के अन्तर्गत था। यह बौद्ध ख्यातों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेख से सिद्ध होता है। कहते हैं कि जब महेन्द्र और संघमित्रा लंका को रवाना हुए, तो बंगाल के ताम्रलिप्ति नामक बन्दरगाह तक अशोक उन्हें जहाज पर चढ़ाने आया था। इसके अतिरिक्त चीनी यात्री ने उसके बनाये अनेक स्तूप बंगाल में देखे थे।
- कलिंग अशोक ने स्वयं जीता था। वहाँ के धौली और जौगड के लेख भी इस पूर्वी सीमा के स्मारक हैं। पश्चिम में इस साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र थी, जो काठियावाड़ के गिरनार और बम्बई में थाना जिले के सोपरा के उसके शिलालेखों से निर्धारित हो जाती है। सौराष्ट्र अशोक के साम्राज्य में था, इसका एक और प्रमाण यह है कि शकराज रुद्रदामा जूनागढ़वाले अपने लेख में कहता है कि चन्द्रगुप्त के प्रान्तीय शासक पुष्पगुप्त वैश्य द्वारा नदियों के प्रवाह रोककर बनाये हुए सुदर्शन नामक झील से अशोक के प्रान्तीय शासक यवनराज तुषास्प ने खेतों की सिंचाई के लिए नहरें निकालीं।
- इस साम्राज्य की दक्षिणी सीमा निजामराज्य के मास्की और इरागुड़ी व मैसूर राज्य के चीतलगुग तक थी; क्योंकि उन स्थानों में अशोक के लेख पाये गये हैं। इस सीमा के दक्षिणी और चोलों, पाण्डयों, सतियपुत्रों और केरलपुत्रों की स्वतंत्र रियासतें कायम थीं। इन्हीं की भांति यवन, कम्बोज, गन्धार, राष्टिक पेतेनिक, भोज, नामक नाभपती और पुलिन्द आदि जातियाँ स्वतंत्र थीं, जो अशोक की साम्राज्य सीमाओं के बाहर रहती थीं।
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