मराठों की भू-राजस्व व्यवस्था |Land revenue system of Marathas
मराठों की भू-राजस्व व्यवस्था Land revenue system of Marathasमराठों का राजस्व प्रशासन
मराठों की भू-राजस्व व्यवस्था
- मराठों की भू-राजस्व व्यवस्था मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था से प्रभावित थी। भू-निर्धारण हेतु उत्पादकता की दृष्टि से भूमि को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता था। भू-राजस्व नकदी तथा जिन्स, दोनों ही रूप में लिया जाता था।
- भू-स्वामी मिरासदार तथा बटाईदार उपरिस कहलाते थे। उपरिस को ज़मीन से कभी भी बेदखल किया जा सकता था कृषि प्रोत्साहन हेतु जंगली अथवा बंजर भूमि को कृषि-योग्य बनाने पर लगान में छूट दी जाती थी और प्राकृतिक आपदा की स्थिति से निपटने के लिए किसानों को कम ब्याज पर अग्रिम धन भी उपलब्ध कराया जाता था।
चौथ तथा सरदेशमुखी
- चौथ तथा सरदेशमुखी लगान का क्रमशः चौथाई तथा दसवां भाग होता था। यह उन क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता था जो कि मराठा प्रभाव के अन्तर्गत आते थे। इन करों की अदायगी के बाद इन क्षेत्रों के निवासियों को मराठों की लूट से मुक्ति मिल जाती थी।
- इन करों की वसूली में मराठों ने हिन्दू मुसलमान में कोई अन्तर नहीं किया और इस प्रकार की ज़ोर-ज़बर्दस्ती व बिना किसी दायित्व की कर वसूली ने मराठों को समस्त भारत में लुटेरों के रूप में कुख्यात कर दिया।
मराठों के अन्य कर
- कूप सिंचित भूमि पर सिंचाई कर लगाया जाता था। गृह कर, विवाह एवं पुनर्विवाह के अवसर पर कर, व्यवसाय कर, सीमा शुल्क ज़मीदारों से लिया जाने वाला कर कर्ज़ा पट्टी, न्याय शुल्क तथा क्रय-विक्रय कर आदि राजस्व के अन्य साधन थे।
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