विवाह क्या है | विवाह की परिभाषा एवं उद्देश्य | विवाह से अभिप्राय एवं अवधारणा | Marriage Explanation in Hindi
विवाह क्या है विवाह से अभिप्राय एवं अवधारणा
हिन्दू धर्म में विवाह
- विवाह एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जो सर्वव्यापी और सार्वभौमिक हैं।
- संसार के सभी देशों एवं सभ्यताओं में विवाह संस्था का अस्तित्व है और सभी सभ्यताओं में इसे कुछ यम - - नियमोंद्वारा सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हैं.
- हिन्दू धर्म में विवाह संस्था को सामाजिक धार्मिक मान्यता का मजबूत आधार प्राप्त हैं। हिन्दू धर्म में विवाह को जीवन का आवश्यक अंग माना गया हैं।
- हिन्दू धर्म में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता हैं। हिन्दू धर्म के समस्त धार्मिक क्रियाकलाप गृहस्थ जीवन के ईद - गिर्द घूमते हैं।
- विवाह के बाद व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है और विवाह करने के बाद ही व्यक्ति पूर्ण बनता है, क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को 'अर्द्धांगनी' कहा गया हैं।
- हिन्दू धर्मशास्त्र पुरूष की पूर्णता के लिए पत्नी, संतान तथा स्वयं पुरूष, इन तीनों को आवश्यक मानता है, इन तीनों से ही मिलकर व्यक्ति पूर्ण पुरूष बनता है।
- विवाह संस्कार की संपन्नता के साथ ही, व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता हैं।
- हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार गृहस्थाश्रम सभी धार्मिक विधि विधानों एवं क्रियाकलापों की आधारभूमि प्रदान करता हैं।
- मनु कहते हैं कि, सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही निर्भर है।
- पुरूषार्थों की प्राप्ति, ऋणों से मुक्ति एवं यज्ञादि धार्मिक विधि विधान विवाह के बाद ही हो सकते हैं।
- इस प्रकार हिन्दू - विवाह, धर्म संस्कार प्रधान होने के कारण स्वस्थ समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रति आनन्द पर धर्म संस्कार की प्रधानता व्यक्ति को सदाचारी और कर्त्तव्यपरायण बनाता है।
विवाह का शाब्दिक अर्थ
- विवाह का शाब्दिक अर्थ 'वधु को वर के घर ले जाना' है। हिन्दू विवाह धार्मिक अनुष्ठानों के साथ अग्नि को साक्षी मानकर संपन्न होता हैं।
- पी० वी० काणे के अनुसार, विवाह संस्कार में 39 अनुष्ठान संपन्न किये जाते हैं।
- हिन्दू विवाह जन्म जन्मातर का पवित्र अटूट बंधन माना जाता है, जिसको तोड़ना धार्मिक एवं सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोण वर्जित माना गया है।
विवाह की परिभाषा
- हिन्दू विवाह को परिभाषित करते हुए डॉ० के० एम० कपाड़िया ने 'इसे धार्मिक संस्कार' कहा है।
- रघुनन्दन ने विवाह को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'जिस क्रिया विधि से स्त्री पत्नी बनती है, वही विवाह है।'
- इस प्रकार धार्मिक विधि विधान से अग्नि को साक्षी मानकर स्त्री को पत्नी बनाना तथा दोनों के संबंधों को सामाजिक धार्मिक स्वीकृति मिलना हिन्दू विवाह कहलाता हैं।
हिन्दू विवाह के उद्देश्य
- हिन्दू विवाह के धर्म, प्रजा और रति तीन प्रमुख उद्देश्य माने गये हैं।
- हिन्दू विवाह का प्रधान उद्देश्य धर्म का पालन करना हैं।
विवाह का प्रथम उद्देश्य
- हिन्दू धर्म में यज्ञादि कार्य एवं लौकिक और पारलौकिक सुख शांति के लिए विवाह संस्कार आवश्यक माना गया है, क्योंकि बिना पत्नी के कोई धार्मिक कार्य पूर्ण नहीं माना जाता है।
- पंचमहायज्ञों एवं पुरूषार्थों की संपन्नता विवाह के बाद ही संभव है।
- ऋग्वेद स्पष्ट रूप से कहता है कि, 'विवाह से मनुष्य गृहस्थ बनता है तथा यज्ञादि करने की योग्यता प्राप्त करता हैं।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी कहा गया है कि, 'व्यक्ति बिना पत्नी के यज्ञ नहीं कर सकता है।'
- डॉ॰ के॰ एम॰ कपाड़िया ने भी ठीक ही कहा है कि, 'हिन्दू विवाह का प्रथम एवं सर्वोच्च उद्देश्य धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करना है। अतः धार्मिक क्रियाकलापों के पालन के लिए विवाह संस्कार आवश्यक हैं।
विवाह का दूसरा प्रमुख उद्देश्य
- विवाह का दूसरा प्रमुख उद्देश्य संतान (पुत्र) उत्पत्ति है। वंश की वृद्धि और निरंतरता तथा धार्मिक कार्यों का संपादन पुत्र से ही संभव है। पुत्र, पितरों को तर्पण एवं पिण्ड दान करके मोक्ष प्रदान करता है। मनु संहिता एवं महाभारत में उल्लेखित है कि, पुत्र, पिता को 'पुत' नामक नरक से बचाता है। ऋणों से मुक्ति के लिए भी पुत्रोत्पति आवश्यक हैं, अतः लौकिक एवं पारलौकि सुख शांति और मोक्ष के लिए पुत्र संतान की आवश्यकता होती है।
विवाह का तृतीय उद्देश्य
- विवाह का तृतीय उद्देश्य धर्मशास्त्रों में 'रति सुख' बताया गया है।
- धार्मिक एवं सामाजिक रूप से स्वीकृत नियमों द्वारा ‘रति सुख प्राप्ति को मान्यता प्रदान की गयी है।
- रति - सुख, व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक संतुष्टि प्रदान कर समाज का सदाचारी नागरिक बनाता है।
- उपनिषदों में रति - आनन्द को सर्वोच्च आनन्द बताया गया है। अतः स्वीकृत धर्म नियमों द्वारा रति - सुख प्राप्त करना धर्मशास्त्रों ने उचित माना है।
प्रश्न -
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