मौर्य काल में आर्थिक जीवन |Maurya Kaal Me Aarthik Jeevan

 

मौर्य काल में आर्थिक जीवन 

मौर्य काल में आर्थिक जीवन |Maurya Kaal Me Aarthik Jeevan


 

मौर्य काल में कृषि

  • मौर्य राजाओं के समय भारत की आर्थिक दशा बड़ी उन्नत थी। कृषि, शिल्प और व्यापार तीनों का ही अद्भुत रूप से विकास हुआ था। कृषि और कृषक दोनों ही की अवस्था अच्छी थी। कृषक अपना सारा समय खेती में लगाते थे। कृषक समाज पवित्र माना जाता था। युद्ध के समय भी कृषक निर्विघ्न रूप से अपना काम करते थे। ये लोग जनता की भलाई करने वाले समझे जाते थे। 


  • मेगस्थनीज ने लिखा है- "भारतवर्ष में अकाल कभी नहीं पड़ा है और साधारणतया खाद्य पदार्थों की महँगाई कभी नहीं हुई है। " खेती हल बैल से होती थी। अर्थशास्त्र में सिंचाई के अनेक साधनों का उल्लेख है। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का प्रयोग होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में बाढ़, अग्निकांड और टिड्डयों के आगमन का डर बना रहता था। इसके लिए जनता को दार्शनिक लोग पहले ही आगाह किया करते थे। अतिवृष्टि और अनावृष्टि से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने के लिए बड़े-बड़े अन्नागार बनाये जाते थे। संकटकाल में राज्य की ओर से बीज तथा भोजन की सहायता दी जाती थी। जंगली जानवरों से भी खेत की रक्षा की जाती थी।

 

  • कृषि की उन्नति के लिए राज्य की ओर से हितकर कानूनों का निर्माण किया गया था। किसानों की सुविधाओं का ध्यान रखा जाता था और उन पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं होने पाता था। सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। मेगस्थनीज सिंचाई व्यवस्था का वर्णन करते हुए अधिकारियों का उल्लेख करता है जिनका कर्त्तव्य भूमि को नापना और उन छोटी नालियों का निरीक्षण करना था जिनसे होकर पानी सिंचाई की नहरों में जाता था जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपना सही भाग मिल सके।" एक स्थान पर यूनानी राजदूत ने लिखा है कि भूमि का अधिकतर भाग सिंचाई के अन्तर्गत है जिससे वर्ष में दो-दो फसलें तैयार हो जाती हैं।" अर्थशास्त्र में भी जल सिंचन व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त होता है। एक स्थान पर सिंचाई की तीन प्रणालियों का निर्देश पाया जाता है- (1) हाथ के द्वारा सिंचाई. (2) मोटों के द्वारा सिंचाई, (3) कतिपय जल यन्त्रों के द्वारा सिंचाई।

 

मौर्य काल में उद्योग धन्धे 

  • उद्योग धन्धों के कारण व्यापार की अद्भुत उन्नति हो गई थी। साम्राज्य के स्थल तथा जल मार्ग पूर्णत: सुरक्षित थे। नदियाँ व्यापारिक माल ले जाने की प्रमुख साधन बनी हुई थीं। बनारस तक बड़े-बड़े जलयान गंगा नदी के मार्ग से पहुँचते थे। एक सड़क पाटलिपुत्र को बनारस से जोड़ती हुई उत्तरापथ तक चली गई थी। दूसरा व्यापारिक मार्ग पाटलिपुत्र से बनारस, उज्जैन होता हुआ पश्चिमी तट के बन्दरगाहों तक बना हुआ था। इन दो प्रधान थल मार्गों के और भी बहुत से व्यापारिक मार्ग थे जिनपर व्यापारियों के काफिले आते-जाते रहते थे।


  • सड़कों के दोनों ओर छायादार तथा फल वाले वृक्ष लगे हुए थे। एक मील के अन्दर में शीतल जल के कुएँ तथा यात्रियों के ठहरने के लिए स्थान बने हुए थे। व्यापारिक उन्नति के कारण उस समय साम्राज्य भर में अनेक व्यापारिक केन्द्र और समृद्धिशाली नगरों की स्थापना हो गई थी। तक्षशिला, उज्जैन, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, तौशली आदि नगर व्यापार के प्रमुख केंद्र बने हुए थे। भारत के समुद्रतट पर अनेक बन्दरगाह थे, जहाँ से लंका, सुमात्रा, जावा, ब्रह्मा, मिस्र, सीरिया, यूनान, रोम, फारस आदि के व्यापारिक जहाज आते-जाते रहते थे। पाटलिपुत्र की गणना संसार के प्रमुख नगरों में की जाने लगी थी।

 

मौर्य काल में व्यापार तथा शिल्प

  • मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि उस समय भारत का व्यापार तथा शिल्प भी उन्नति के उच्च शिखर पर आसीन था। भारत के वस्त्र व्यवसाय की तो संसार का कोई भी देश समता नहीं कर सकता था। सूती, रेशमी और ऊनी तीनों प्रकार के अति आकर्षक डिजाइनदार वस्त्र इतनी अधिकता के साथ तैयार किये जाते थे कि देश की आवश्यकता पूर्ति के पश्चात विदेशों को भारी संख्या में निर्यात किये जाते थे। 


  • उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में सहस्रों कपड़े की मंडियाँ थीं, जो यहाँ के उच्च कोटि का कपड़ा जैसे मलमल, छींट, रेशमी कपड़ा आदि प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये का विदेशों को निर्यात करती रहती थीं। प्रसिद्ध इतिहासकार स्ट्रोबी ने तो यहाँ तक लिखा है। कि भारतीय वस्त्रों पर सोने के तारों से बेल-बूटे निकाले जाते तथा उन्हें बहुमूल्य रत्नाभूषणों से सजाया जाता था। जुलाहों, ठठेरों, लुहारों, स्वर्णकारों, तेलियों, बढ़इयों तथा अन्य शिल्पियों ने अपने अलग-अलग संघ बना रखे थे। ये संघ अपने-अपने शिल्पियों के लिए बैंकों का कार्य भी करते थे। संघ के प्रधान का राजदरबार में भारी मान रहता था। डॉ. मजुमदार का मत है कि "उस समय के व्यवसायी तथा शिल्पी अलग-अलग श्रेणियों अथवा संघों में विभक्त थे। इन श्रेणियों के प्रधानों को राजदरबार में सम्मानीय स्थान प्राप्त था। सभी श्रेणियों के कायदे कानून अलग-अलग थे, उन्हें राज्य से मान्यता प्राप्त थी। "

 

  • पत्थर को काटकर सुन्दर वस्तुएँ बनाने की कला में इस युग के कारीगर बहुत बढ़े चढ़े थे। अशोक के समय के आश्चर्यजनक पाषाण स्तम्भ उस युग की तक्षणकला का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। डॉ. स्मिथ ने ठीक ही कहा है कि "कठोर पाषाण को चिकना बनाने की कला इस पूर्णता तक पहुँचा दी गई थी कि यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग की कलात्मक शक्तियों के लिए यह एक खोई हुई कला ही है।" बारबरा की गुफाओं को, जो पालिश किए हुए चिकने शीशे की भांति चमकती हैं, देखने से इस युग के उत्कृष्ट कला को ठीक से समझा जा सकता है। सुगन्धित पदार्थों के निर्माण में भी मौर्य युग में काफी उन्नति हुई। कौटिल्य ने पाँच प्रकार के सुगन्धित पदार्थों का उल्लेख किया है। ये पदार्थ हैं चन्दन, अगुरु तैल पर्णिक, भद्रश्री और कालेयक। ये पदार्थ अपने उचित स्थान, रंग और सुगन्ध की तीव्रता के कारण एक-दूसरे से काफी भिन्न समझे जाते थे।

 

मौर्य काल में सिक्का और विनिमय के साधन

  • कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में सुवर्ण, कार्षाप, माषक और काकणी जैसे सिक्कों का उल्लेख मिलता है। मुद्रा निर्माण एकमात्र सरकारी टकसाल में होता था; किन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी घातु देकर सरकारी टकसाल में भी रुपया बनवा सकता था। टकसाल के अधिकारियों में कौटिल्य ने सौवर्णिक और लक्षणाध्यक्ष का वर्णन किया है। सिक्के के अतिरिक्त विनिमय के अन्य साधन भी थे। वस्तुओं का आदान-प्रदान भी होता था। 


मौर्य काल में कर्ज और सूद

  •  मौर्य शासकों ने किसानों, मजदूरों तथा कारीगरों को धनी साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए भी विशेष प्रबन्ध किया था। ब्याज की दर निश्चित कर दी गयी थी। अर्थशास्त्र के अनुसार पन्द्रह प्रतिशत वार्षिक ब्याज उचित था। दरिद्रों नाबालिगों, अध्ययन तथा यज्ञ आदि में लगे हुए लोगों से ब्याज नहीं लिया जाता था। 


मौर्य काल में पशुपालन

  • पशुओं की वृद्धि और रक्षा की ओर भी राज्य की ओर से विशेष ध्यान दिया जाता था। इस कार्य के लिए एक अलग विभाग था जो पशुओं का लेखा-जोखा करता था; चरागाहों की रक्षा करता था. दूध आदि के सम्बन्ध में नियम बनाता था, बीमार पशुओं की चिकित्सा का प्रबन्ध करता था और पशुओं के प्रति होने वाले अत्याचारों को शान्त करता था। घोड़ों तथा हाथियों की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाता था।

 

  • वनों तथा वनैले पशुओं की रक्षा का भी राज्य की ओर से विशेष प्रबन्ध था। मौर्य सम्राट शिकार के शैकीन थे। इसीलिए वनों के विशेष भाग उसके शिकार के लिए सुरक्षित रखे जाते थे और साधारण लोगों को उनमें आखेट करने की आज्ञा नहीं थी। वनों में आग लगाने वालों को कठोर दण्ड मिलता था वनों की बहुतायत से उस युग में वर्षा भी पर्याप्त होती थी।

 

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