मौर्य काल में धार्मिक जीवन | Maurya Kaal Me Dharmik Jeevan
मौर्य काल में धार्मिक जीवन
Maurya Kaal Me Dharmik Jeevan
मौर्य युग की धार्मिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें बौद्ध धर्म ग्रन्थों, अशोक के अभिलेखों और यूनानी लेखकों के विवरण पर अवलम्बित होना पड़ता है। सभी साक्ष्यों का अवलम्बन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि मौर्यकाल का समाज मूल रूप से तीन धार्मिक सम्प्रदायों में विभक्त था वैदिक, जैन और बौद्ध । राज्य की ओर से किसी धर्म पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। इन धर्मों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है
मौर्य काल में वैदिक धर्म
- इस युग में वैदिक धर्म ही प्रधान धर्म था। पहले की भांति वैदिक धर्मावलम्बी अनेक प्रकार के यज्ञ किया करते थे। यज्ञों में बड़ी संख्या में पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी और पुरोहितों को भारी दक्षिणा देनी पड़ती थी। इसलिए यज्ञ बहुत खर्चीले थे। केवल राजा-महाराजा तथा धनी लोग ही उन्हें करवा सकते थे। चूंकि पुरोहितों को यज्ञों से आर्थिक लाभ होता था, इसलिए उनमें लोभ की वृद्धि अवश्य हुई होगी। अशोक ने पशु यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाया था, इसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। स्मरण रखने की बात है कि यद्यपि इस युग के साहित्य में अश्वमेध, बाजपेय आदि यज्ञों का उल्लेख आता है, किन्तु इस युग के किसी शासक ने अश्वमेध यज्ञ नहीं किया था।
- मेगस्थनीज ब्राह्मणों के दार्शनिक सम्प्रदायों का भी उल्लेख करता है। इससे प्रकट होता है कि औपनिषदिक ऋषियों ने जिस ज्ञान मार्ग का प्रवर्तन किया था उसका प्रभाव बढ़ रहा था। अशोक ने अपने सातवें स्तम्भ लेख में ब्राह्मणों तथा निर्गन्थों के साथ आजीविकों का उल्लेख किया है। अपने शासन के बारहवें वर्ष में अशोक ने बराबर की पहाड़ियों में दो गुफाएँ आजीविक भिक्षुओं को अर्पित की थी। अशोक के नाती दशरथ ने भी नागार्जुन पहाड़ियों में आजीविक भिक्षुओं के लिए गुफाएँ बनवाई थीं। इन सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि मौर्यकाल में आजीविकों का प्रभाव काफी बढ़ गया था लेकिन इसका प्रभाव मुख्यतः मगध तक ही सीमित था। मेगस्थनीज ने दार्शनिकों के एक ऐसे सम्प्रदाय का उल्लेख किया है जिसके सदस्य जीवन भर नंगे रहते थे, माँस नहीं खाते थे और फल-फूल बटोर कर जीवन निर्वाह करते थे। सम्भवतः मेगस्थनीज का आशय निर्ग्रन्थों से ही था। अशोक ने भी अपने सातवें स्तम्भ लेख में आजीवकों के साथ निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
मौर्य काल में जैन धर्म
- चन्द्रगुप्त के शासनकाल में जैनधर्म के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई और इसके स्वरूप में एक महान परिवर्तन उपस्थित हो गया। भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य का समकालीन और जैन धर्म का छठवां थेर (स्थविर) था। जैन अनुश्रुति के अनुसार उसी ने मौर्य सम्राट को जैन धर्म में दीक्षित कर लिया था। जबकि भद्रबाहु जैन धर्म के थेर थे, मगध में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा और संन्यासियों को भिक्षा प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होने लगा।
- अनिष्ट की आशंका से भद्रबाहु ने मगध छोड़कर कर्णाटक देश की राह पकड़ी। बहुत से जैन स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में रह गये दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने के बाद भद्रबाहु के बहुत से शिष्य मगध लौट आये, परन्तु भद्रबाहु स्वयं नेपाल चले गये। नेपाल में भद्रबाहु ने भी तप द्वारा अपना शरीर त्याग किया। मगध में जो जैन साधु बचे थे। उन्होंने पाटलिपुत्र में एक बहुत विशाल सभा का आयोजन किया। उनका विश्वास कि जैन धर्मशास्त्रों का शुद्ध रूप काफी विकृत हो चुका है। इसलिए इनका परिष्कार करना चाहिए और प्रामाणिक धर्मशास्त्रों का संग्रह करना चाहिए। इस सभा का आयोजन इसी उद्देश्य से किया गया था। इसी बीच जो जैन साधु मैसूर चले गये थे उनमें और जो यहीं रह गये थे, एक मतभेद उठ खड़ा हुआ। मगध के जैनियों ने श्वेत वस्त्र धारण करना आरम्भ कर दिया परन्तु भद्रबाहु के शिष्यों ने महावीर की शिक्षाओं का पालन करते हुए नंगा रहना ही पसन्द किया। इस प्रकार प्रथम संघभेद की नींव पड़ी जिससे जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।
मौर्य काल में बौध धर्म
- बौद्ध धर्म के इतिहास में मौर्यकाल बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी काल में बौद्ध धर्म राज्य धर्म बना और सम्राट अशोक ने इस धर्म को मानकर संसार में इसे फैलाने की चेष्टा की। अतएव बौद्ध धर्म का देश के भीतर और बाहर काफी प्रचार हुआ। लेकिन इस समय तक बौद्ध धर्म में फूट बहुत बढ़ गयी थी और वह दो सम्प्रदायों में विभक्त होता जा रहा था। अशोक के समय में इस फूट ने उग्र रूप धारण कर लिया। इस फूट की खाई को पाटने के लिए सम्राट ने पाटलिपुत्र में बौद्ध भिक्षुओं की सभा बुलायी। मोग्गलीपुत्त तिस्स इसके सभापति थे। इस सभा में केवल थेरवादी भिक्षु सम्मिलित हुए। सभा ने गैर थेरवादियों के सिद्धांतों का खण्डन किया और बुद्ध के मूल सिद्धांतों को पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया गया। सभा के निर्णय कथावस्थु के नाम से संग्रहीत किये गये और उन्हें अभिधम्मपिटक का अंग मान लिया गया।
- अशोक ने संघ की एकता को कायम रखने के लिए और भी उपाय किये। उसने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे संघ की फूट को रोकने का प्रयत्न करें। सारनाथ के स्तम्भ लेख में सम्राट का निम्न आदेश खुदा हुआ है-“संघ में कोई फूट न डाले। किन्तु यदि कोई संघ में फूट डाले तो चाहे वह भिक्षु हो और चाहे भिक्षुणी उसे श्वेत वस्त्र पहना दिये जाये और ऐसी जगह रहने के लिये विवश किया जाये जो (भिक्षुओं का) निवास स्थान नहीं है। " अशोक बौद्ध संघ की फूट को तो दूर नहीं कर सका, किन्तु उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए जो कार्य किये उनसे धर्म का प्रसार हुआ, इसमें सन्देह नहीं।
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