मौर्य काल में कला कौशल |Maurya Kaal Me Kala Kaushal

 मौर्य काल में  कला कौशल |Maurya Kaal Me Kala Kaushal

 

मौर्य काल में  कला कौशल |Maurya Kaal Me Kala Kaushal

कला की दृष्टि से मौर्यकाल भारत के इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना के बाद देश में शांति, सुव्यवस्था, सुख और समृद्धि विराजने लगी। इससे कला के विकास में बड़ा प्रोत्साहन मिला। डॉ. बाग्ची और प्रो. शास्त्री का कथन है कि मौर्यकाल ने कला के क्षेत्र में भारी कार्य किया। वस्तुतः ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय कला का आरम्भ मौर्यकाल विशेषकर अशोक के शासन काल में ही आरम्भ होता है।

 

भवन निर्माण कला

  • पहले स्थापत्य कला से ही हम इस युग की कला का विवेचन शुरू करते हैं। पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त का बड़ा विशाल और भव्य राजप्रासाद था। इसका सभा भवन स्तम्भों पर खड़ा था जिस पर बहुत सुन्दर मूर्ति और चित्रकला का प्रदर्शन किया गया था। मेगस्थनीज के मत में ईरान की राजधानी सूसा के राजप्रासाद से मौर्य प्रासाद अधिक सजा हुआ और सुन्दर था। अशोक ने भी कई राज भवनों का निर्माण कराया। जब चीनी यात्री फाहियान पाँचवीं शताब्दी में पाटलिपुत्र गया था तो कई ऐसे भवन थे जो अशोक के बनवाये कहे जाते थे। उनको देखकर यह यात्री चकित हो गया और इसने समझा कि शायद देवों ने उनकी रचना की थी। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने कई हजार स्तूप (ठोस अंडाकार समाधि), चैत्य (सामूहिक पूजा मंदिर) और विहार (भिक्षुओं के रहने का मठ) बनवाये थे। सारनाथ में बनवाये हुए धर्मराजिका स्तूप का निचला भाग अब भी वर्तमान है। बोधगया में इसने चैत्य बनवाया जो कालक्रम से गिर गया और उनके स्थान पर आधुनिक मन्दिर खड़ा है। अशोक के बाद दशरथ ने आजीवक साधुओं के लिए बराबर की पहाड़ियों में गुहा मन्दिर बनवाया। भारत के प्राचीन स्थापत्य में लकड़ी की प्रधानता थी। इस काल में यद्यपि ईंट और पत्थर का उपयोग भी शुरू हुआ फिर भी लकड़ी का व्यवहार काफी होता था। स्थापत्य की विशेषताओं में विशालता और सजावट मुख्य थी।

 

स्तम्भ

  • इस काल की कलात्मक कृतियों में अशोक के स्तम्भों का प्रमुख स्थान है। अपने धर्मलेखों का प्रचार करने के लिए अशोक ने घोषणार्थ पृथ्वी की उठी हुई भुजाओं के समान इन स्तम्भों को देश के कई स्थानों में खड़ा किया था। अशोक के सभी स्तम्भ चुनार के बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। एक स्तम्भ पूरा एक पत्थर की शिला को काटकर बनाया गया था। स्तम्भों की औसत ऊँचाई चालीस फीट है। 

स्तम्भ आधार की तरफ मोटे और शीर्ष की तरफ पतले होते हैं। इनके तीन भाग किये जा सकते हैं- 

(1) ध्वज या स्तम्भ का तना जो बिलकुल सादा परन्तु अत्यन्त चिकना और चमकीला है

(2) अंड या गला जो गोल बना हुआ है और धार्मिक प्रतीक, चक्र पशु, पक्षी, लता, पुष्प आदि से विभक्त और अलंकृत हैं

(3) सबसे ऊपर स्तम्भ का शीर्ष (सिर) है, जिनमें सिंह, हस्ति; अश्व; वृषभादि की मूर्तियाँ एक या कई साथ बनी हुई हैं। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण सारनाथ सिंह शीर्ष वाला स्तम्भ है।


  • मूर्तिकला की दृष्टि से स्तम्भ और उस पर बनी हुई पशु, पक्षी, लता, पुष्प की अनुकृतियाँ संसार की आश्चर्यजनक वस्तुओं में से हैं। प्रकृति से उनकी अनुरूपता और सजीवता सराहनीय है। मूर्तिकला का यह विकास कई शताब्दी के अनुभवों से ही सम्भव था। इस काल की मूर्तियों में मथुरा के पारखम में मिली हुई यक्ष मूर्ति, वेसनगर में मिली स्त्री की मूर्ति, पटना और दीदारगंज मिली हुई (पारखम के यक्ष से मिलती-जुलती) मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इन सभी को देखने से मालूम होता है कि भारत में मूर्ति कला अच्छी तरह विकसित हो चुकी थी।

 

  • प्रेक्षा गृहों (नाटकों के अभिनय के लिए बने हुए भवन) और रंगशालाओं (नाटक मंच) का उल्लेख करना भी (इस युग की कला के साथ) आवश्यक जान पड़ता है। अर्थशास्त्र में प्रेक्षा गृहों के कई उल्लेख हैं।


मौर्य काल की गुफाएँ

  • गुफाएँ उस युग की कला के अन्य महत्त्वपूर्ण नमूने हैं। ये गुफाएँ भिक्षुओं के लिए चतुर्मास में विश्राम करने के लिए बनवाई गई थीं। अशोक तथा उसके नाती दशरथ की बनवाई हुई बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ियों की गुफाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं। इन पर उन सम्राटों के उत्कीर्ण लेख भी हैं। विद्वानों का कहना है कि ये उस समय प्रचलित लकड़ी और घास-फूस की झोपड़ियों के नमूने पर बनाई गई थीं। इसमें सम्भवतः सबसे प्राचीन सुदामा नाम की गुफा है।

 

  • इसका निर्माण अशोक के शासनकाल के बारहवें वर्ष में कराया गया था और आजीविक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को अर्पित कर दिया गया था। इनमें दो कमरे हैं, बाहर का कमरा आयताकार है और उसकी छत मेहराबदार गुम्बज के आकार की है तथा दरवाजों में ढालू पाखे बन हुए हैं। इनकी लम्बाई की बगल में एक अन्य गुम्बजदार छत की वृत्ताकार कोठरी है। इन दोनों के बीच में द्वार है और कोठरी के बारह की ओर छप्पर के ढंग की औलतियाँ बनी हैं। दूसरी गुफा कर्ण चौपाल कहलाती है। उस पर उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि उसका निर्माण अशोक के शासनकाल के उन्नीसवें वर्ष में कराया गया था। यह एक आयताकार कमरा है और इसकी छत मेहराबदार है। इसके अतिरिक्त इसमें कोई कलात्मक विशेषता नहीं है।

 

मौर्य कालीन स्तूप

  • कभी कभी किसी महत्त्वपूर्ण घटना की स्मृति बनाये रखने के लिए स्तूप बनवाये जाते थे। स्तूपों का प्रचार देश में बहुत पहले से चला आ रहा था, किन्तु जैनों तथा बौद्धों ने उसका विशेष रूप से प्रयोग किया। जैसा कि पहले लिखा गया है; बुद्ध की अस्थियों को क्षत्रिय राजाओं ने आपस में बाँट लिया था और अपने अपने भागों को पृथ्वी में गाड़कर उन पर स्तूप खड़े करवा दिये थे। स्तूप के चारों ओर परिक्रमा लगाने के लिए चबूतरा होता था और उसे लकड़ी की वेष्टणी से घेर दिया जाता था। 


  • बौद्ध साहित्य में उल्लेख आता है कि अशोक ने चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। उसने पुराने स्तूपों के नीचे से बुद्ध की अस्थियों को निकलवाकर उन पर नये स्तूप खड़े करवाये थे। उसके स्तूपों में सांची, सारनाथ तथा भारहुत के स्तूप अधिक प्रसिद्ध हैं। 


  • सांची का स्तूप प्राचीन भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है। मूल स्तूप ईंटों का बना हुआ था और आकार में छोटा था। बाद में एकाध शताब्दी के पश्चात् उसके आस-पास पत्थर की चिनाई करके उसके आकार को दुगुना कर दिया गया। वर्तमान रूप में वह लगभग एक सौ बीस फीट व्यास का गोलार्द्ध हैं। उसके चारों ओर सोलह फीट ऊँचा और छ: फीट चौड़ा प्रदक्षिणापथ है। पृथ्वी के तल पर एक अन्य प्रदक्षिणापथ है; वह पत्थर की वेष्टणी से घिरा हुआ है। मूल वेष्टणी लकड़ी की रही होगी; बाद में उसके स्थान पर पत्थर की नौ फीट ऊँची वेष्टणी बना दी गई। ऊपर के प्रदक्षिणापथ पर पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। वेष्टणी में चार तोरण हैं, ये भी बाद में बनवाये गये थे।

 

मौर्य काल में आभूषण

  • आभूषण बनाने और रत्नों के काम में भी मौर्य कलाकारों ने प्रवीणता प्राप्त की थी। उनकी रुचि आकृति को कोमलतापूर्वक ढालने में न होकर उच्च कोटि की दक्षता में थी जिससे वे चमकीले पत्थर को काट कर चमकाते थे या धातु की वस्तुओं पर कोमल खुदाई करते थे या दानेदार नमूने बनाते थे।" पिपराहा से प्राप्त स्फटिक प्याला और भट्टीप्रोलू स्तूप से प्राप्त नीली मणि का अवशेष पात्र सर जॉन मार्शल के विचार मे मौर्यकाल की कृतियाँ हैं।


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