मौर्य कालीन सभ्यता और संस्कृति | मौर्य कालीन सामाजिक जीवन | Maurya Kal Me Samajik Jeevan
मौर्य कालीन सभ्यता और संस्कृति
मौर्य कालीन सामाजिक जीवन
प्रस्तावना (Introduction)
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र, अशोक के अभिलेख और स्मारकों तथा यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के विवरण से मौर्यकालीन समाज, संस्कृति तथा आर्थिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। इन्हीं साधनों के आधार पर मौर्यकालीन जीवन का संक्षिप्त चित्र खींचा जा रहा
मौर्य कालीन सामाजिक जीवन (Social
Life)
मौर्य काल में वर्ण व्यवस्था
- अशोक के पाँचवें शिलालेख के अनुसार मौर्यकालीन भारत के समाज में अनेक वर्ण थे। वर्ण की व्यवस्था थी और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र समाज में बंटा हुआ था लेकिन इस समय तक वर्ण व्यवस्था में पर्याप्त जटिलता आ गयी थी। इसका आधार कर्म न होकर जन्म हो गया था।
- कोई व्यक्ति अपना वर्ण परिवर्तन नहीं कर सकता था और वर्ण व्यवस्था की रक्षा करना राज्य का एक मुख्य कर्त्तव्य था। इस समय भी वर्णाश्रम पर बल दिया जाता था और प्रत्येक व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती थी कि वह ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में जीवन व्यतीत करेगा। इस प्रकार समाज का आधार वर्ण व्यवस्था और वर्णाश्रम थे।
- चार वर्णों के अतिरिक्त मौर्यकालीन भारत में कुछ अन्य व्यावसायिक वर्ग अथवा समूह भी पैदा हो गये थे, किन्तु उनकी गणना अन्य चार वर्णों में ही कर जाती थी।
- मेगस्थनीज ने सात जातियों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार भारत में निम्नलिखित सात जातियाँ थीं-(1) दार्शनिक (2) किसान (3) ग्वाला, (4) कारीगर, (5) सैनिक (6) निरीक्षक तथा (7) अमात्य सम्भव है कि मेगस्थनीज ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को ठीक तरह से नहीं समझा हो और यूनानी समाज को ध्यान में रखकर वर्णों, कुछ व्यवसायों और सरकारी वर्गों को एक में मिला दिया हो ।
- यूनानी लेखकों से हमें ज्ञात होता है कि कोई व्यक्ति अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता था अथवा अपनी जीविका को छोड़कर किसी अन्य जीविका को नहीं अपना सकता था। बाहरी दुनिया के सम्पर्क से अंशों में जाति बन्धन अवश्य ढीले पड़े होंगे और अन्तर्जातीय विवाह की प्रथा भी चली होगी। स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस की पुत्री से विवाह किया था। इस युग में वैश्य और शूद्र का भेद भी बहुत कुछ मिटता जा रहा था।
- मेगस्थनीज के अनुसार मौर्यकाल में भारतीय सामाजिक जीवन सरल, सादा और सुव्यवस्थित था और जीवन स्तर काफी ऊँचा था। जातियाँ एक-दूसरे से प्रेमभाव रखती थीं और उनका एक-दूसरे पर अटूट विश्वास था। वे सामाजिक नियम का पालन अपना कर्त्तव्य मानती थीं। उनके बीच आपसी झगड़े बहुत कम होते थे। किसानों का जीवन सादा होता था।
- मेगस्थनीज के विवरणों से जाति व्यवस्था के सम्बन्ध में कुछ गलतफहमियाँ अवश्य पैदा हो जाती हैं, लेकिन उसके लेखों से तत्कालीन सामाजिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। दार्शनिक के विषय में उसके लेख बड़े ही मनोरंजक और महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। दार्शनिक वर्ग को उसने दो भागों में विभाजित किया है- ब्राह्मण और श्रमण ब्राह्मण दार्शनिकों से अभिप्राय सामान्यतः ब्राह्मणों से है और श्रमण वर्ग के अन्तर्गत बौद्ध संन्यासी आते हैं जो किसी भी जाति के हो सकते थे। अन्य धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बंधित संन्यासी भी श्रमण कहे जाते थे।
- मेगस्थनीज के लेखों के अनुसार ब्राह्मणों का जीवन दो अवस्थाओं में विभाजित था। प्रथम अवस्था वह थी जब ब्राह्मण सरल जीवन व्यतीत करता था। वह नजर के सम्मुख किसी कुञ्ज में निवास करता था और मद्य-मांसादि वस्तुओं एवं समस्त इन्द्रिय सुखों के उपभोग से विरक्त रहता था। उसका सम्पूर्ण समय ज्ञानोपदेशों के श्रवण अथवा लोगों को विद्यादान करने में व्यतीत होता था। जीवन के सैंतीस वर्षों तक इन नियमों का पालन करने के बाद वह सुख सुविधामय जीवन में प्रवेश करता था। इस समय वह अपने इच्छानुसार कई स्त्रियों से विवाह करता था और भड़कीले वस्त्र तथा माँस इत्यादि का प्रयोग उसके लिए वर्जित नहीं था। मेगस्थनीज का यह वर्णन ब्राह्मणों के आश्रमों, ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के उस वर्णन के काफी मिलता-जुलता है जो हमें स्मृतियों में अथवा धर्मशास्त्रों में मिलता है।
मौय कालीन समाज में स्त्रियों का स्थान
- समाज में स्त्रियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। उनको परिवार की सम्पत्ति में दाय का अधिकार मिलता था। अपनी पत्नियों के साथ दुर्व्यवहार करने पर राज्य की ओर से दण्ड मिलता था। यदि किसी स्त्री को सन्तान न होती हो तो पति दूसरा विवाह कर सकता था। विधवाओं को पुनर्विवाह अधिकार प्राप्त था। किन्तु समाज में स्त्रियों को अब उतनी स्वतन्त्रता नहीं रह गयी थी जितना ऋग्वैदिक काल में थी। उन्हें प्रायः घर के भीतर ही काम करना पड़ता था और स्वच्छन्द रूप से घूमने-फिरने की स्वतंत्रता नहीं थी। किन्तु भिक्षुणियाँ हो जाने पर उन्हें घूमने-फिरने की स्वतंत्रता हो जाती थी। समस्त देश में स्त्रियों की दशा अथवा विवाह के नियम एक न थे। इस युग में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख आता है। तक्षशिला में लड़कियों के लिए पति चुनने के लिए कुश्तियों का आयोजन किया जाता था और जीतनेवाले के साथ विवाह कर दिया जाता था। अपनी इच्छा से स्त्रियां सती भी हो सकती थीं, लेकिन यह प्रथा केवल क्षत्रियों तक ही सीमित थी। स्त्रियों में प्रचलित पर्दा प्रथा का भी संकेत मिलता है। नारियों को कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने की भी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। कुछ स्त्रियाँ संगीत, नृत्य तथा चित्रलेखन आदि ललित कलाओं में भी निपुणता प्राप्त करती थीं। इतना ही नहीं, सैनिक व्यवसाय अपनाने का मार्ग भी स्त्रियों के लिए सर्वथा अवरुद्ध नहीं था। मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त की महिला अंगरक्षिकाओं का उल्लेख किया है। वह कहता है कि “कुछ स्त्रियाँ रथों पर, अश्वों पर एवं कुछ हाथियों पर आरुढ़ होती हैं और वे प्रत्येक प्रकार के शास्त्रास्त्र से सुसज्जित रहती हैं। ऐसा मालूम पड़ता है जैसे वे किसी आक्रमण के लिए जा रही हों। " देश में वेश्यावृत्ति भी थी जिसे सरकार द्वारा नियन्त्रित किया जाता था। कौटिल्य के ग्रन्थ में मणिकाध्यक्ष और अशोक के अभिलेखों में स्त्री महामात्र का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य ने विषकन्या का भी उल्लेख किया है।
मौर्य कालीन विवाह प्रथा
इस काल की विवाह संस्था शास्त्रीय नियमों और प्रथाओं से मर्यादित थी यद्यपि इनके अपवाद में भी कुछ विवाह होते थे।
मौय काल में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे
(1) ब्राह्म ( कन्या को अलंकृत और सुसज्जित कर वर को पिता द्वारा सौंपना)
(2) प्रजापत्य ( सन्तान के लिए विवाह जिसके अनुसार धर्म, अर्थ और काम में कन्या और वर का अधिकार समान होता था।)
(3) आर्ष (इसमें वर पक्ष से गौओं का एक जोड़ा लेकर कन्या का पिता दान में पुनः वर को देता था।)
(4) दैव (दैवकार्य में लगे योग्य और सुशील ऋत्विज् को कन्या देना)
(5) आसुर (द्रव्य लेकर लड़की को ब्याहना)
(6) गान्धर्व (कामवश बिना माता-पिता की आज्ञा से वर और कन्या का संयुक्त होना),
(7) राक्षस ( कन्या को उसके परिवार वालों से बलात् छीन लेना)
(8) पैशाच (छल अथवा बल से सोई या मादक से मत कन्या का उपभोग करना)।
- इनमें पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त और पिछले चार अप्रशस्त माने जाते थे। परन्तु पिछलों को भी उस समय का कानून स्वीकार करता था। विवाह प्रायः अपने वर्ण और जाति में होते थे, किन्तु असवर्ण और अन्तरजातीय विवाह भी सम्भव थे। कुछ जातियों शाक्य, मौर्य आदि में सगोत्र विवाह भी होते थे। दहेज की प्रथा भी प्रचलित थी। पुरुष एक साथ कई स्त्रियों से विवाह कर सकता था। इसका कारण अर्थशास्त्र में इस प्रकार बतलाया गया है "बहुत सी स्त्रियों को ब्याहें, स्त्रियाँ पुत्र उत्पन्न करने लिए हैं।
- " मेगस्थनीज ने भी लिखा है कि कुछ स्त्रियाँ आनन्द और कुछ स्त्री सन्तान के लिए ब्याही जाती थीं। पुरुष और स्त्री दोनों को पुनर्विवाह का अधिकार था। पुरुषों के पुनर्विवाह के लिए इस प्रकार का नियम प्रचलित था कि यदि स्त्री को आठ वर्षों तक कोई सन्तान न पैदा हो, या जिससे केवल लड़कियाँ ही पैदा हों, लड़का उत्पन्न न होता हो, या जो बन्ध्या हो उसका पति पुनर्विवाह से पूर्व आठ वर्षों तक अपनी पत्नी की प्रतीक्षा करे। यदि स्त्री को मृत सन्तान पैदा न हो तो दस वर्षों तक प्रतीक्षा करना पुरुष के लिए अपेक्षित था।
- पुरुषों की ही तरह स्त्रियों को भी पुनर्विवाह के पहले कुछ नियमों का विचार करना पड़ता था। पति के निधन पर वह अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सकती थीं, किन्तु उसे अपने श्वसुर तथा प्रतिपक्षीय सम्बन्धियों से प्राप्त धन उन्हें वापस करना पड़ता था, किन्तु श्वसुर तथा अन्य सम्बन्धियों की राय से होने पर उनसे मिले धन को अपने पास रख सकती थी। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य परिस्थितियाँ भी थीं जिनमें स्त्री को पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था। यदि विदेश में गये हुए पति को किसी भी स्त्री से कोई सन्तान न हो तो स्त्री को एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। यदि उसे कोई सन्तान न हो तो वह अधिक समय तक प्रतीक्षा करती थी। यदि विदेश जाने से पूर्व पति अपनी स्त्री के लिए भरण-पोषण की व्यवस्था कर गया हो तो उस अवधि के दुगुने समय तक प्रतीक्षा की जाती थी। विद्याध्ययन के लिए गये हुए पति की सन्तान रहित स्त्री को दस वर्ष तक और सन्तानसहित स्त्री को बारह वर्ष तक प्रतीक्षा करनी चाहिए ऐसा विधान था।
मौर्य काल में दास प्रथा
- दास प्रथा अति प्राचीन काल से ही भारतीय सामाजिक जीवन की एक मान्य व्यवस्था रही है। मौर्य काल में भी यह प्रचलित थी, यद्यपि यूनानी लेखकों के प्रमाण इसके विरूद्ध हैं। एरियन लिखता है कि सभी भारतीय स्वतन्त्र हैं और उनमें से एक भी दास नहीं हैं। मेगस्थनीज ने भी इसी प्रकार की बात कही है और स्ट्रैबो ने उसके मत को विस्तृत करते हुए लिखा है कि कोई भी भारतीय दास नहीं रखता। परन्तु अन्य साक्ष्यों से दास प्रथा के अस्तित्व के प्रमाण इतनी प्रचुरता से प्राप्त होते हैं कि यूनानी लेखकों का कथन भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है।
- अर्थशास्त्र तथा स्मृतियों में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। अशोक ने अपने अभिलेखों में दासों तथा भाड़े के मजदूरों में विभेद किया है और सब के साथ दया का व्यवहार करने का आदेश दिया है। यह सम्भव है कि मेगस्थनीज को भारत के किसी विशेष भू-भाग में दास प्रथा बिल्कुल न दिखाई पड़ी हो जिससे उसने समझ लिया कि भारतवर्ष में दास प्रथा है ही नहीं। इसके अतिरिक्त मेगस्थनीज के यह लिखने का कि भारत में दास प्रथा है हि नहीं, एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ पर यूनान के ठीक विपरीत, दासों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। प्रसिद्ध विद्वान रीज डेविड्स ने लिखा है कि “भारत में दास अधिकांश रूप से घरेलू नौकर होते थे एवं उनके साथ बुरा व्यवहार नहीं किया जाता था और उनकी संख्या भी महत्त्वशून्य होती थी।
मौर्य कालीन रहन-सहन
- मेगस्थनीज ने लिखा है कि मौर्यकालीन भारतीय मितव्ययिता से रहते थे और अच्छे नियमों का पालन करते थे। उच्च कोटि की सरलता भारतीय चरित्र की विशेषता थी तथा किसी भी भारतीय पर कभी झूठ बोलने का आरोप नहीं लगाया गया। उस समय चोरी का अभाव था। पारस्परिक समझौते में गवाहों की आवश्यकता नहीं होती थी। लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते थे। मुकदमेबाजी बहुत कम होती थी। संक्षेप में, लोगों का जीवन सरल तथा सीधा सादा था।
मौर्य कालीन भोजन
- लोगों का मुख्य भोजन अन्न, फल और माँस थे। देश की अधिकांश जनता माँस खाती थी। जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, राजमहल में प्रतिदिन भोजन के लिए हजारों पशु काटे जाते थे। बाद में अशोक ने उसे बन्द करवा दिया। जौ की शराब तथा ताड़ी लोगों के मुख्य पेय थे। धनी लोग विदेशी शराबों का भी प्रयोग करते थे। शराब बेचने और पीने के स्थान सरकार द्वारा निश्चित किये जाते थे। मेगस्थनीज लिखता है, "भारतीय लोग जब भोजन करने बैठते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति के सामने तिपाई की शक्ल की एक मेज रखी जाती है। इसके ऊपर एक सोने का प्याला रखा जाता है जिसमें सबसे पहले चावल डाले जाते हैं। वे इस प्रकार उबले हुए होते हैं जैसे कि उबले हुए जौ। इसके बाद अन्य बहुत से पके हुए भोजन परोसे जाते हैं जिन्हें विधिपूर्वक तैयार किया जाता है। "
मौर्य कालीन वस्त्र
- अधिकतर लोग सूती वस्त्र पहनते थे। तड़क-भड़क तथा हीरे-जवाहरात का लोगों को शौक था। धूप से बचने के लिए लोग छाते का प्रयोग करते थे। भारतीय बारीकी और सुन्दरता के प्रेमी होते थे। उनके वस्त्रों पर सोने का काम किया रहता था और वस्त्र मूल्यवान रत्नों से जड़े जाते थे लोग मलमल के बने फलदार वस्त्र धारण करते थे।
मौर्य काल में आमोद-प्रमोद
- लोगों को आमोद-प्रमोद का भी शौक था। रथों और घोड़ों की दौड़ तथा सांड़ों और हाथियों की कुश्तियाँ, लोगों के मनोविनोद के मुख्य साधन थे। शिकार खेलने का भी बहुत रिवाज था। मेगस्थनीज ने भी शिकार का उल्लेख किया है। विहार यात्राएँ की जाती थीं। बहुत से लोग जुआ भी खेलते थे। किन्तु जुआ खेलने के अड्डों पर राज्य का नियन्त्रण रहता था। हम पहले लिख आये हैं कि अशोक के लेखों में ऐसे सामाजिक समारोहों का जिक्र है जिनमें खूब नाचगान तथा सुरापान होता था। अशोक ने उनके स्थान पर धार्मिक समारोहों की प्रथा चलाई थी। उसी समय मनुष्यों तथा पशुओं में मल्ल युद्ध होते थे। हिंसात्मक होने के कारण अशोक ने इन्हें बन्द कर दिया था। कौटिल्य से ज्ञात होता है कि साधारण जनता में प्रेक्षाएँ बड़ी लोकप्रिय होती थीं और इनमें नट, नर्तक, गायक, वादक, मदारी, रस्सी पर नाचने वाले, तरह-तरह की बोली बोलने वाले आदि अपनी कला का प्रदर्शन कर दर्शकों का मनोरंजन करते थे। पतंजलि ने नाटकीय प्रदर्शनों का उल्लेख किया है। इस युग में शतरंज का खेल तथा द्यूत क्रीड़ा का भी प्रचलन हो गया था। स्त्रियों में गेंद का खेल बड़ा प्रिय था। राजा महाराजा और जागीरदार लोग आखेट में बहुत दिलचस्पी रखते थे।
- मौर्य राजाओं के आखेट का वर्णन करते हुए मेगस्थनीज ने लिखा है कि “मौर्य राजा जब शिकार के लिए राजप्रासाद से निकलता था, तो शास्त्रों से सुसज्जित स्त्रियों की भीड़ उसे घेरे रहती थी। स्त्रियों के घेरे से बाहर बरछाधारी सैनिक का प्रबल घेरा रहता था। मार्ग दिशा रस्से तानकर सूचित की जाती थी। रस्सी से घिरे मार्ग के भीतर किसी भी स्त्री पुरुष का प्रवेश करना मौत को बुलाना था। ढोल वादक और झांझ बजाने वालों का समूह उक्त राजदल के आगे बाजे बजाता चलता था। उस समय भी दो-तीन हथियारबन्द स्त्रियाँ उसके अगल-बगल खड़ी रहती थीं। यदि राजा की इच्छा खुले मैदान में शिकार खेलने की होती थी, तो वह हाथी पर बैठकर तीर चलाता था। उस समय भी हथियारबन्द स्त्रियाँ घोड़ों पर, रथों में और हाथियों पर चढ़ी हुई उसे चारों ओर से घेरे रहती थीं।
मौर्य कालीन नैतिक स्तर
- अशोक के धर्म के प्रचार से नैतिक पक्ष पर बड़ा बल दिया गया है। इसमें बाह्याडम्बर की अपेक्षा अन्तःशुद्धि पर अधिक जोर दिया गया। माता-पिता की आज्ञा मानना, गुरूजनों की सेवा करना, सम्बन्धियों, मित्रों और पड़ोसियों से उदार व्यवहार करना, सत्य, कोमलता, अहिंसा, दान, क्षमा, सहनशीलता आदि सदगुणों का विकास करने वाली शिक्षाओं पर अधिक बल दिया गया। परन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि न समझना चाहिए कि इससे पूर्व लोगों का नैतिक जीवन स्तर निम्न था। मेगस्थनीज ने भारतीय चरित्र की प्रशंसा की है। उसने कहा है भारतीय आचरण में सरल तथा मितव्ययी होने से काफी सुख से रहते हैं। यज्ञ के अवसरों के अतिरिक्त शराब का प्रयोग नहीं करते। चोरी प्राय: बहुत ही कम होती है। भारतीय अपनी चीजों को प्रायः अरक्षित ही छोड़ जाते हैं, उनके कानून और समझौते सरल हैं इसलिए वे न्यायालय में बहुत कम आते हैं। भारतीयों की दृष्टि में योग्यता उम्र से अधिक महत्त्वपूर्ण अतः सम्माननीय थी। मेगस्थनीज आगे लिखता है भारतीय सत्य और सद्गुणों का सम्मान करते हैं। वृद्धों को वे उस समय तक मान नहीं देते, जब तक कि उनमें विशेष गुण न हों।
Post a Comment