पुरुषार्थ का क्या अर्थ है | पुरुषार्थ के प्रकार | Purusharth Kya Hai
पुरुषार्थ का क्या अर्थ है | पुरुषार्थ के प्रकार
पुरुषार्थ
- प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपनी गहन चिंतनशील प्रवृत्ति से व्यक्ति के भौतिक जीवन को इस प्रकार से प्रबन्धित किया कि, व्यक्ति भौतिक संसार के सुखों को भोगकर अंत में जीवन के परम लक्ष्य 'मोक्ष' को प्राप्त कर सके और इसी चिंतनशील प्रवृत्ति ने पुरूषार्थ की अवधारणा को जन्म दिया।
- भारतीय मनीषियों ने सांसारिक इच्छाओं और आध्यात्मिक जीवन में अद्भुत सामंजस्य स्थापित करते हुए पुरूषार्थ सिद्धान्त का सृजन किया।
पुरुषार्थ किसे कहते हैं
- विद्वानों का मत है कि, तन, मन, ज्ञान (बुद्धि) एंव आत्मा के संयोजन से ‘पुरूष', बनता है और पुरूष इन चारों की संतुष्टि या पूर्णता के लिए जो उद्यम या कार्य करता है, वही पुरूष का पुरूषार्थ कहलाता है।
- पुरूषार्थ शब्द का शाद्धिक अर्थ प्रयत्न करने, कार्य करने या उद्यम करने से है।
- पुरुषार्थ के बारे में कहा जाता है कि, पुरूषैरधृर्यते पुरूषार्थः अर्थात् अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न (कार्य) करना पुरुषार्थ कहलाता है।
- पुरूषार्थ का अभीष्ट लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना है।
- हिन्दू धर्मशास्त्रों में मनुष्य के जीवन का अन्तिम एवं सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति को माना है और मनुष्य के समस्त प्रयत्न जीवन पर्यन्त मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्मानुसार जीवन में कार्य करते रहना है।
- धर्मशास्त्रों में भौतिक संसार में मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम नामक कर्त्तव्यों का विधान किया है, इन तीनो का सफलतापूर्वक जीवन भर निर्वहन करते रहना ही पुरुषार्थ है।
- भारतीय धर्मशास्त्रों, उपनिषदों, भगवत्गीता एवं स्मृतियों में मनुष्य के जीवन के मूल कर्त्तव्यों में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष नामक पुरूषार्थो का वर्णन है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए पुरूषार्थों की प्राप्ति को आवश्यक बताया गया है।
- जीवन के अन्तिम उद्देश्य मोक्ष अर्थात् जन्म-मरण के बंधन से मुक्त परब्रह्म परमात्मा में समा जाने के लिए धर्म, अर्थ और काम को सफलतापूर्वक प्राप्त करना आवश्यक है।
- पुरूषार्थो में मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्मानुसार अर्थ और काम को पूर्ण करने का निर्देश दिया गया है। धर्म यह बताता है कि, अर्थ और काम साधन मात्र है ।
पुरूषार्थ का सिद्धान्त
पुरुषार्थ कौन-कौन से हैं
पुरूषार्थ का सिद्धान्त चार पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उल्लेख करता है जो इस
प्रकार है
धर्म क्या है धर्म की परिभाषा
1 धर्म
पुरूषार्थ सिद्धान्त का प्रथम चरण धर्म है, जो व्यक्ति को उचित और अनुचित में भेद बताकर, सद्मार्ग और सद्कर्म पर चलने की प्रेरणा देता है ताकि मनुष्य का लोक और परलोक में कल्याण हो सके।
धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के 'धृ' धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ धारण करना, पुष्ट करना, बनाये रखना है।
धर्म क्या है
- हिन्दू धर्मशास्त्रों में धारण करने को ही धर्म कहा है। यहाँ धारण करने से तात्पर्य सद्कर्मो, सदाचारों एवं सद्व्यवहार से है अर्थात् ऐसा सदाचार जो धर्मानुसार हो और जिसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त हो, 'धर्म' कहलाता है।
- इस प्रकार धर्म ऐसे आचरण की सलाह देता है, जो सामाजिक व्यवहार के स्वीकृत ढांचे का पालन करता हो।
- अतः भारतीय धर्म एक प्रकार की आचरण संहिता है, जो व्यक्ति के जीवन को प्रबंधित एवं व्यवस्थित करते हुए व्यक्ति के कर्त्तव्यों और अधिकारों को समाज की नैतिक एवं आध्यात्मिक नियमावली के दायरे में कार्य करने की बात करती है।
बाल गंगाधर तिलक की द्वारा दी गयी धर्म की परिभाषा
बाल गंगाधर तिलक ने धर्म को परिभाषित करते हुए लिखा है कि,
'धर्म' शब्द का अर्थ व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिक धर्म समझना चाहिये। महर्षि कणाद ने कणाद सूत्र में लिखा है कि, जिससे इस लोक में उन्नति और परलोक में कल्याण की प्राप्ति हो, वही धर्म है।
पी. वी. काणे द्वारा दी गयी धर्म की परिभाषा
पी. वी. काणे धर्म को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि,
धर्म जीवन की आचरण संहिता है, जो एक व्यक्ति के, समाज के सदस्य के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में, कार्य और क्रियाओं को नियंत्रित करता है और जो व्यक्ति के क्रमिक विकास की दृष्टि से किया जाता है और जो उसे मानक अस्तित्व के उद्देश्य तक पहुंचाने में सहायता करता है।
इस प्रकार धर्म जीवन की एक ऐसी आचरण संहिता है, जिसका पालन करने से मनुष्य का भौतिक संसार में उत्थान और पारलौकिक संसार में परमसुख (मोक्ष) प्राप्त होता है। साथ ही, धर्म ही यह बताता है कि, धर्म की निर्धारित आचरण संहिता पर चलकर ही अर्थ और काम को प्राप्त करना चाहिए, तभी मोक्ष संभव है।
2 अर्थ
अर्थ का मतलब
- अर्थ, व्यक्ति के जीवन का दूसरा प्रमुख पुरूषार्थ है।
- अर्थ का शाब्दिक अभिप्राय वस्तु, चीज, पदार्थ है। अतः समस्त सांसारिक भौतिक वस्तुएं अर्थ के दायरे में आती हैं। वैसे, तात्पर्य धन-सम्पदा के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं एवं भौतिक साधनों से है, जो मनुष्य सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति एवं सुख प्रदान करने में सहायक होती हैं।
- भौतिक संसार में जीवन-यापन के लिए अर्थ की बहुत आवश्यकता होती, पारिवारिक जीवन के संचालन, सामाजिक कार्यो में सहभागिता एवं धर्म-कर्म के कार्यों, तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति आदि के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है।
- भारतीय हिन्दू धर्मशास्त्र धर्मोचित विधान से अर्थाजन की अनुमति प्रदान हैं अर्थात् समस्त भौतिक वस्तुओं और धन-सम्पदा का अर्जन धर्मानुसार सद्मार्ग से करना चाहिए। तभी जीवन के अन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' की ओर बढ़ा जा सकता है।
- तभी तो मनु ने कहा कि, अर्थ यदि धर्मानुसार न हो तो उसे त्याग देना चाहिए। महाभारत में सर्वोच्च धर्म, अर्थ को कहा गया है, क्योंकि सभी सांसारिक वस्तुएं एवं सुख सुविधाएं अर्थ पर निर्भर हैं।
- किन्तु शास्त्र धर्म की निहित परिभाषा के दायरे में अर्थोपार्जन करने की सलाह देते हैं। इसीलिए सुख के लिए प्रयास करना व्यक्ति की स्वाभाविक इच्छा है, किन्तु यदि वह मोक्ष की कामना करता है, तो उसे सद्मार्ग या सही तरीके से अर्थाजन करना चाहिए।
3 काम
काम से तात्पर्य
- मनुष्य के जीवन का तीसरा पुरूषार्थ काम है।
- 'काम' से तात्पर्य भोग-वासना, इन्द्रिय-सुख के साथ ही, मनुष्य की समस्त इच्छाओं (कामनाओं) से भी है। इस प्रकार काम पुरूषार्थ में यौन इच्छाओं का तप्त होने के साथ ही, सांसारिक दृष्टि से जीवन के आनन्द का उपभोग भी समाहित है।
- महाभारत के शान्तिपर्व में काम को धर्म का सार मानते हुए धर्म और अर्थ का स्रोत मानने के साथ ही, काम को धर्म की विहित नियमावली और दायरे में संयम से करने की सलाह भी दी गयी है।
- मत्स्य पुराण में भी धर्मानुसार काम को ही उचित माना गया है।
- महाभारत के उद्योगपर्व में कहा गया है कि, धर्महीन काम बुद्धि को नष्ट कर देता है।
- अतः शास्त्र धर्मानुसार आचरण के साथ काम की पूर्ति की अनुमति प्रदान करते है।
- काम अर्थात् यौन इच्छाओं की पूर्ति से व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रूप से संतुष्ट होता है और संतानोत्पत्ति करके परिवार और समाज के विकास में सहायक होता है।
- अतः काम इच्छाओं की पूर्ति मानसिक संतुष्टि प्रदान कर मनुष्य को पूर्णानंद प्रदान करती है, तभी तो वात्सायन ने काम सुख को परमानन्द की पदवी प्रदान की है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्ति के लिए काम पुरूषार्थ की पूर्ति धर्म की नैतिक संहिता के तहत करना चाहिए।
4 मोक्ष
मोक्ष किसे कहते हैं
- भारतीय धर्मानुसार मनुष्य के जीवन का अंन्तिम एवं परम लक्ष्य 'मोक्ष' है।
- मोक्ष अर्थात् सांसारिक बंधनों एवं जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मोक्ष शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की मुक्त धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ मुक्त करना या स्वतन्त्र करना है।
- इस प्रकार मोक्ष का अर्थ 'आत्मा' की मुक्ति से है।
- गीता में कहा गया है कि, मोक्ष व्यक्ति की आत्मा का परमब्रह्म से साक्षात्कार कर परमब्रह्म या परमात्मा में विलीन हो जाना है।
- मनुष्य को मोक्ष भौतिक संसार में समस्त कर्त्तव्यों एवं दायित्वों की धर्मानुसार पूर्ति और धर्म, अर्थ, काम की पूर्णतः के साथ ही संभव है।
- मनु के मनुस्मृति में कहा है कि, त्रि-ऋणों से मुक्ति धर्मानुसार धर्म एवं सांसारिक कर्त्तव्यों का निर्वहन एवं तीनों पुरूषार्थी (धर्म, अर्थ, काम) के समन्वय से 'मोक्ष' प्राप्ति संभव बतायी है।
- शास्त्रों में अज्ञानता के बंधनों से मुक्त हो ज्ञान प्राप्त कर लेना मोक्ष का साधन बताया गया है।
- भगवतगीता में कहा गया है कि काम,क्रोध से मुक्त, अज्ञानता से मुक्त, परमब्रह्म से मुक्त, परमब्रह्म को जानने वाले ज्ञानी पुरूष 'मोक्ष' स्वतः प्राप्त हो जाता है।
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