गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण (The Reason of Decline Gupta's Kingdom)
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
(The Reason of Decline Gupta's Kingdom)
- गुप्त साम्राज्य का निर्माण समुद्रगुप्त और
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बड़े यत्न से किया था, परन्तु उनके
उत्तराधिकारी इतने दुर्बल निकले कि वे इस विशाल साम्राज्य को बचाने में असफल
रहे।
- अयोग्य उत्तराधिकारियों के अतिरिक्त पाँचवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध से भारत की राजनीतिक स्थिति तेजी से परिवर्तित हो रही
थी। इसका प्रभाव भी साम्राज्य के अस्तित्व पर पड़ा। सचमुच उस समय अनेक स्थानीय
राजाओं का उदय हुआ जिनके चलते गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
- यह विचारणीय है कि विशाल गुप्त साम्राज्य का पतन
कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। मुगल साम्राज्य की भाँति गुप्त साम्राज्य का पतन
भी क्रमिक था।
- इसकी पृष्ठभूमि में कमजोर उत्तराधिकारी, राजदरबार में फूट, प्रान्तपतियों की
स्वतंत्रता, नये राजवंशों का उदय, आर्थिक कमजोरियाँ
एवं विदेशी आक्रमण मुख्य थे।"
गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
1. अयोग्य उत्तराधिकारी
2. विदेशी आक्रमण
3. नयी शक्तियों का उदय
4. उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव
5. प्रशासनिक कमजोरियाँ
6. आर्थिक कारण
7. सामन्तों के विद्रोह
8. प्रान्तपतियों के विशेषाधिकार
9. सैनिक कारण
10. धार्मिक कारण
11. साम्राज्य की विशालता
12. गुप्तकालीन दण्डनीति
अयोग्य उत्तराधिकारी
- गुप्त साम्राज्य के विस्तार में समुद्रगुप्त और
चन्द्रगुप्त द्वितीय का अपूर्व योगदान रहा था। स्कन्दगुप्त के
शासन काल तक तो स्थिति संतोषजनक बनी रही किन्तु स्कन्दगुप्त
की मृत्यु के पश्चात् गुप्त वंश में कोई ऐसा सम्राट नहीं हुआ, जो साम्राज्य की
एकता को सूत्र में बाँध कर रख सकता। बुद्धगुप्त, भानुगुप्त, वैन्यगुप्त, नरसिंहगुप्त आदि
सभी के सभी कमजोर शासक थे। उनमें न तो बल
पराक्रम था और न सुयोग्य शासक के गुण ही थे। परिणामस्वरूप केन्द्रीय शासन
शिथिल पड़ गया तथा साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हुआ।
विदेशी आक्रमण
- गुप्त साम्राज्य पर हुए बाह्य आक्रमणों ने भी
साम्राज्य को विशेष क्षति पहुँचाई । गुप्त साम्राज्य को क्रमश: पुष्यमित्रों, हूणों तथा यशोधर्मन
के आक्रमण का सामना करना पड़ा। प्रत्येक आक्रमण ने साम्राज्य की स्थिति को और
भी दयनीय बना दिया। गुप्त साम्राज्य पर पहला
आक्रमण कुमारगुप्त प्रथम के काल में पुष्यमित्रों ने किया।
- यद्यपि इस आक्रमण से साम्राज्य को कोई विशेष
क्षति नहीं पहुंची, परन्तु इस आक्रमण ने अन्य आक्रमणकारियों का मार्ग
अवश्य ही प्रशस्त कर दिया। इसके पश्चात् तो आक्रमणों का सिलसिला ही प्रारम्भ
हो गया। पुष्यमित्र के आक्रमण ने गुप्त-सम्राटों की
प्रतिष्ठा को काफी ठेस पहुँचायी।
- पुष्यमित्र के आक्रमण से भी ज्यादा घातक हूणों का
आक्रमण था। इस आक्रमण ने गुप्त सम्राटों की प्रतिष्ठा एवं
उनकी अजेयता को सर्वदा के लिए समाप्त कर दिया। कुमारगुप्त ने हूणों से युद्ध
किया या नहीं यह तो निश्चित नहीं है, परन्तु स्कन्दगुप्त
को उनके आक्रमण का सामना अवश्य करना पड़ा। यद्यपि इस युद्ध में विजयश्री
स्कन्दगुप्त को ही प्राप्त हुई पर इस आक्रमण के दूरगामी परिणाम बहुत
महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। हूणों के हौसले लगातार बढ़ते गए और उन्होंने
स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात् फिर से साम्राज्य पर आक्रमण करना प्रारम्भ
कर दिया। बाद के दुर्बल गुप्त शासक इन विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला करने
में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए।
- पुरुगुप्त के समय से हूणों के हौसले और बढ़ गए।
पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में हूणों की बाढ़ सी आ गयी और वे उत्तरी
भारत में पूरी तरह जम गए । तोरमाण एवं
मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों ने साम्राज्य पर चोट करना प्रारम्भ कर दिया।
इसके चलते साम्राज्य काफी कमजोर हो गया। हूण आक्रमणों से प्रेरणा पाकर अन्य
भारतीय प्रदेश भी धीरे-धीरे गुप्त साम्राज्य अपने को स्वतंत्र करने लगे। आधी
शताब्दी के भीतर ही कई स्वतंत्र राज्यों का जन्म हो चुका था। इस प्रकार हूण
आक्रमणकारियों ने साम्राज्य के अस्तित्व को गहरा धक्का पहुँचाया।
- कुछ विद्वानों की तो यह भी
धारणा है कि गुप्त साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण हूण आक्रमण ही था। परन्तु
यह धारणा उचित प्रतीत नहीं होती है। यह ठीक है कि हूण आक्रमण से साम्राज्य को
काफी क्षति पहुँची, परन्तु
इसके साथ अन्य कई महत्त्वपूर्ण कारणों ने भी गुप्त साम्राज्य के पतन में
योगदान दिया। किन्तु डॉ. मजूमदार का विचार है कि गुप्त साम्राज्य के
मूलोच्छेदन में हूणों से अधिक हाथ महत्त्वाकांक्षी सरदार यशोधर्मन का था।
नयी शक्तियों का उदय
- वास्तव में गुप्त साम्राज्य
को भारत के भीतर उभरती हुई नयी शक्तियों से भी काफी हानि पहुँची। गुप्त सम्राटों की कमजोरी एवं हूणों से
प्रेरणा लेकर कई स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। इनमें सबसे प्रमुख मालवा का यशोधर्मन था।
उसने गुप्त सम्राटों की अवहेलना कर अपना प्रभुत्व बढ़ाया।
- नरसिंहगुप्त के शासन काल
में ही इसने साम्राज्य के अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार कायम कर लिया।
यशोधर्मन के उदय ने राहु की तरह गुप्त साम्राज्य के सूर्य को ग्रसित कर लिया।
- मन्दसौर अभिलेख से पता
चलता है कि वह राजाधिकार एवं परमेश्वर की उपाधियाँ धारण करता था। इसी अभिलेख से
यह भी पता चलता है कि जिन प्रदेशों पर गुप्त नरेशों ने शासन नहीं किया था, उन पर इसने अपना आधिपत्य स्थापित किया। हूण भी उससे दुम दबाकर
भागते थे।
- यशोधर्मन सामन्त कुल में
उत्पन्न हुआ था और उसका उत्कर्ष बड़ा ही आकस्मिक था। मन्दसौर स्तम्भलेख के
अनुसार उसने अपने परिवार की सीमाओं का अतिक्रमण किया था। उसने अपने वंश को औलिकर वंश (प्रख्यात औलिकर लाच्छन
आत्मवंशी) कहा है। उसने शक्ति-संवर्द्धन कर
अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। उसका राज्य पूर्वी सागर से लेकर लोहित्य नदी के
उपकंठ तक विस्तृत था। इससे पता चलता है कि उसने मगध नरेश कुमारगुप्त तृतीय को
पराजित किया था यह घटना 532 ई. की है। संभवतः इसी समय उसने हूण नरेश मिहिरकुल
को भी पराजित किया। उससे प्रेरणा पाकर अन्य विभिन्न स्थानों पर भी स्वतंत्र
राज्यों की स्थापना हो गयी।
- फलस्वरूप गुप्तों का
अधिकार सिमटकर मगध और निकटवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार
मौखरी मैत्रक, गौड़ आदि
शक्तिशाली राज्यों का जन्म गुप्त साम्राज्य के अवशेषों पर ही हुआ। दक्षिण
भारत में भी गुप्तों की शक्ति समाप्त हो चुकी थी एवं अन्य स्वतंत्र राज्यों
का जन्म हो चुका था। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य धीरे-धीरे नष्ट हो रहा था।
उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव
- इन बाह्य परिस्थितियों के
अतिरिक्त साम्राज्य की आन्तरिक व्यवस्था ने भी गुप्त साम्राज्य के पतन को
अवश्यंभावी बना दिया। गुप्त व्यवस्था में सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि इसमें
उत्तराधिकार के नियम सुनिश्चित नहीं किए गये थे। समुद्रगुप्त के समय से ही
ज्येष्ठपुत्र को सिंहासन से वंचित कर उसके बदले में अन्य राजपुत्र को गद्दी
पर बैठने की जो प्रथा प्रारम्भ हुई, उसने गुप्त साम्राज्य के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया।
- उत्तराधिकार के नियम की
अनिश्चितता के कारण गुप्त साम्राज्य को लगभग प्रत्येक शासक के समय में कलह
एवं उत्तराधिकार के युद्ध का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि गुप्त वंश के अनेक
असंतुष्ट राजकुमार जैसे हरिगुप्त और प्रकाशादित्य ने हूण आक्रमणकारियों का
साथ दिया। इसके चलते आन्तरिक दृष्टि से साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा। गुप्तों
की प्रतिष्ठा भी घटती गयी जिसका लाभ अधीनस्थ शासकों ने उठाया। इस प्रक्रिया
ने तो अंत में गुप्त वंश को दो शाखाओं में भी विभक्त कर दिया।
प्रशासनिक कमजोरियाँ
- प्रो. रोमिला थापर एवं
प्रो. गोयल के अनुसार गुप्त साम्राज्य की अवनति एवं पतन का मुख्य कारण वह
प्रशासकीय व्यवस्था थी जिसकी आधारशिला समुद्रगुप्त ने रखी थी। उसने अपने साम्राज्य को अनेक सामन्ती
इकाइयों के संघ के रूप में संगठित किया था। गंगा घाटी के बाहर के क्षेत्रों
के राजाओं एवं गणराज्यों को आशिक स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी। ये
परिव्राजिका एवं उच्चकल्प के रूप में गुप्त साम्राज्य द्वारा जीते गए विशाल
भू-भाग पर अपना सामंती अधिकार बनाए हुए थे।
- साम्राज्य के प्रमुख
केन्द्रों पर ही सम्राटों का सीधा नियंत्रण था। गुप्त राजाओं ने जो उपाधियाँ
धारण की परमेश्वर महाराजाधिराज, परम भट्टारक इत्यादि उनसे गुप्तों के अधीन सामंतों या अधीनस्थ
शासकों का स्पष्ट रूप से पता चलता है। समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों ने भी
अधीनस्थ शासकों की संख्या को कम करने के बदले उसमें वृद्धि ही की। गुप्त
साम्राज्य में मालवा की तो विशेष स्थिति थी। वहाँ के राजा गुप्तों के अधीन
होते हुए भी गुप्त-संवत् का उल्लेख नहीं करते थे।
- इससे
स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें विशेष छूट दी गयी थी। मालवा में वंशानुगत शासन
करने वाले राजाओं के अस्तित्व को बर्दाश्त किया गया था। यह गुप्त शासकों की
एक यंकर भूल थी जिसका परिणाम उन्हें आगे भुगतना पड़ा। भूमि अनुदान की प्रथा ने
तो इन सामंतों की संख्या में और भी वृद्धि कर दी। ऐसी व्यवस्था सुयोग्य शासक
के काल में ही टिक सकती थी। दुर्बल गुप्त-शासक इन अधीनस्थ राजाओं को अपने
नियंत्रण में नहीं रख सके। मौके का फायदा उठाकर ये स्वतंत्र हो गए। इतना ही
नहीं इनमें से बहुतों ने गुप्तों के विपरीत आक्रमणकारियों एवं नवोदित शासकों
का साथ भी दिया। इन सब कारणों के चलते गुप्त साम्राज्य के पतन की प्रगति
तीव्र हो चली।
आर्थिक कारण
- गुप्त साम्राज्य के पतन के
कुछ आर्थिक कारण भी थे। गुप्तकाल
के पहले से ही भूमिदान देने की प्रथा प्रचलित थी। दान प्राप्त किए गए
व्यक्तियों को नमक एवं खानों का भी स्वामित्व दे दिया गया, जिस पर पहले राजा का स्वामित्व रहता था। इसके अतिरिक्त नए
भूमि अनुदान के मालिकों को कुछ प्रशासनिक अधिकार भी सौंप दिए गए। इससे जहाँ
एक तरफ तो राजा की शक्ति में ह्रास हुआ वहीं दूसरी तरफ आर्थिक व्यवस्था पर भी
इसका प्रभाव पड़ा।
- इस व्यवस्था ने कृषकों की
स्वतन्त्रता समाप्त कर उन्हें कृषि-दास अथवा अर्द्ध कृषि दास बना दिया। इसके
चलते कृषि पर उनका पूरा ध्यान नहीं जा सका फलतः उत्पादन में कमी आने लगी।
बेगारी की प्रथा (Vishti) ने तो और बुरा
प्रभाव डाला। इसके कारण किसानों कारीगरों, शिल्पियों की गतिशीलता (Mobility) सीमित हो गयी। इन सबका परिणाम स्वायत्त ग्राम संस्थाओं (Self sufficient
village units) का उदय हुआ।
- उत्पादक अब सिर्फ अपनी
संस्था के उपयोग लायक सामान ही तैयार करने लगे। इसने आंतरिक एवं विदेशी
व्यापार पर बुरा प्रभाव डाला। परिणामस्वरूप व्यापार, नगर एवं उद्योग-धन्धों में गिरावट आने लगी। इन सबने मिलकर
आर्थिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया। गुप्तों के पहले जो मुद्रा अर्थव्यवस्था (Money Economy) थी, वह भी
गुप्तकाल में वर्तमान नहीं रह सकी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि गुप्तकाल
के स्वर्णमुद्राओं की संख्या तो काफी है परन्तु नित्य दिन व्यवहार में आने
वाले चाँदी एवं ताम्बे के सिक्कों की संख्या काफी कम है।
- इससे स्पष्ट हो जाता है कि
ईसा की प्रथम दो तीन शताब्दियों में जो मुद्रा अर्थव्यवस्था प्रचलित थी
(कुषाणों के तथा अन्य समकालीन राज्यों, यहाँ तक कि गणराज्यों के ताम्बे के सिक्के काफी मात्रा में
मिले हैं) वह किसी कारणवश गुप्त काल में कमजोर पड़ गयी। फाहियान ने भी लिखा
है कि आमतौर पर कौड़ियों के आदान-प्रदान का मुख्य चलन था। मुद्रा
अर्थव्यवस्था के अभाव में भी व्यापार, नगर एवं उद्योग धन्धे पनप नहीं सके। ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने
फिर से जोर पकड़ लिया। इस प्रकार गुप्त शासकों को आर्थिक संकट का भी सामना
करना पड़ा।
- स्कन्दगुप्त के समय से तो
सोने के सिक्कों में भी गिरावट आने लगी (Debasement of gold
coins ) हूण आक्रमण
एवं तत्कालीन राजनीतिक अव्यवस्था ने भी आर्थिक ढाँचे को हिला कर रख दिया।
आंतरिक एवं विदेशी व्यापार पर इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। बिना किसी सुदृढ़
आर्थिक ढाँचे के किसी भी साम्राज्य का अस्तित्व बहुत दिनों तक नहीं बना रह
सकता और यही घटना गुप्तों के साथ भी घटी।
सामन्तों के विद्रोह
- गुप्तकाल में सामन्तवादी
प्रथा प्रचलित थी। प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के काल से
ही सामन्त लोग वर्तमान थे, जो सम्राट को
सब तरह का कर देते थे तथा सम्राट की आज्ञाओं का पालन करते थे। ये सामन्त
अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र नरेश की तरह शासन करते थे। इनमें मौखरि, परिव्राजक महाराज, औलिकर, मैत्रक आदि
उल्लेखनीय हैं। मन्दसौर प्रशस्ति से प्रतीत होता है कि गुप्तकालीन सामन्त
विशेष राजनीतिक अधिकारों से विभूषित थे। फलतः अनुकूल अवसर आने पर वे सम्राट
के विरूद्ध विद्रोह कर देते थे। अतः कालान्तर में सामन्तवाद की प्रथा गुप्त
साम्राज्य के लिए विपत्तिजनक सिद्ध हुई और इनमें स्वतंत्रता की प्रवृत्ति आने
लगी।
- सर्वप्रथम बल्लभी के
मैत्रक वंश के शासकों ने गुप्त सम्राटों से अपने को मुक्त कर लिया।
उदाहरणस्वरूप, द्रोणसिंह के
उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में गुप्तों की संप्रभुता की स्वीकृति का कोई
उल्लेख नहीं है। फलतः सौराष्ट्र प्रान्त (गुजरात और कठियावाड़) गुप्त
साम्राज्य से अलग हो गया।
- इसी तरह छठी शताब्दी के
प्रथमार्द्ध में यशोधर्मन मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। छठी शताब्दी के
मध्य तक मौखरियों ने ईशानवर्मा के नेतृत्व में कान्यकुब्ज में एक स्वतंत्र
राजवंश की नींव डाली। उसके हरहा-लेख (554 ई.) में गुप्तसत्ता को स्वीकार करने
का कोई संकेत नहीं मिलता। ईशानवर्मा बिल्कुल एक स्वतंत्र नरेश की तरह आचरण
करने लगा। उसने महाराजाधिराज की उपाधि भी धारण की। उसने अनेक शासकों को
पराजित भी किया और उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार (नतक्षितीचरण) कर ली। उसी
समय मगध में कुमारगुप्त के नेतृत्व में उत्तर- गुप्त राजवंश स्वतंत्र हो गया
था। अफसढ़-लेख में उसे वीरों में अग्रगण्य (पुरु: सरम्) तथा युद्धक्षेत्र में
अपनी शक्ति के लिए विख्यात (विख्यातशक्ति भाजिषु) कहा गया है।
- इसी तरह
543 ई. के बाद बंगाल (पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति और वर्द्धमान भुक्ति) गुप्तों के
राज्य से निकल गया। हरहा लेख से विदित होता है कि 554 ई. में बंगाल में गौड़
लोग बड़े शक्तिशाली हो गए थे। इस प्रकार मांडलिकों के स्वतंत्र आचरण से गुप्त
साम्राज्य को बड़ा धक्का लगा। सुदूर प्रान्त गुप्तों के अधिकार से निकल गए।
प्रान्तपतियों के विशेषाधिकार
- राजकुमारों के अतिरिक्त विश्वस्त
और सुयोग्य कर्मचारी भी प्रान्तपति के पद पर नियुक्त किए जाते थे। सौराष्ट्र
में पर्णदत्त और उत्तरी बंगाल (पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति) में चिरातदत्त
प्रान्तपति थे। इसी तरह अन्तर्वेद (गंगा-यमुना के दोआब) में शर्व्वनाग तथा
नर्मदा और यमुना नदियों के बीच दोआब में सुरश्मिचन्द्र प्राप थे। ये अपने
अपने प्रान्तों में उप-नरेश की भांति आचरण करते थे। उन्हें नृप, महाराज, उपरिक-महाराज
आदि उपाधियाँ धारण करने के अधिकार प्राप्त थे। अभिलेखों में इनमें से कुछ को
सम्राट का तत्पादपरिगृहीत कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वे सम्राट के विशेष
कृपापात्र थे। उन्हें प्रान्तीय कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त
था।
- जूनागढ़-अभिलेख से पता
चलता है कि स्वयं पर्णदत्त ने अपने पुत्र चक्रपालित को सौराष्ट्र प्रान्त के
अधिष्ठान (राजधानी) का नगराधीश नियुक्ति किया था। पुण्ड्रवर्द्धन के राज्यपाल चिरातदत्त ने
वेत्रवर्मा को कोठिवर्ष नामक विषय (जिला) का विषयपति (जिलाधीश) नियुक्त किया
था। प्रान्तीय कर्मचारियों को 'तन्नियुक्त' अर्थात्
राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता था। अभिलेखों से पता चलाता है कि बंगाल
में कोई दत्त परिवार था जिसके सदस्य परम्परागत आधार पर उत्तरी बंगाल
(पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति) के राज्यपाल क्रमशः नियुक्त किए गए थे, क्योंकि पर्णदत्त के बाद ब्रह्मदत्त और जयदत्त राज्यपालों के
नामोल्लेख हैं। इससे यह भी पता चलता है कि राज्यपाल का पद पैतृक हो गया था।
गुप्त साम्राज्य के स्थायित्व के लिए घातक सिद्ध हुआ।
सैनिक कारण
- गुप्त साम्राज्य के पतन का
एक प्रमुख कारण सैनिक संगठन भी था। मौर्यों की तरह गुप्तों के पास एक विशाल, सुसंगठित अपनी सेना नहीं थी। अभिलेखों में सैन्य बल एवं सैनिक
संगठन का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। चीनी यात्री फाहियान ने भी गुप्त सेना के
संख्यात्मक स्वरूप का उल्लेख कहीं नहीं किया है। जैसा कि यूनानी एवं रोमन
इतिहासकारों ने किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त राजाओं को सामन्ती
एवं अधीनस्थ राजाओं पर ही निर्भर रह जाना था। अतः बाद में केन्द्रीय शासन के
दुर्बल हो जाने पर सामन्तों ने गुप्त सम्राटों की मदद नहीं की। इतना ही नहीं
गुप्तों की कमजोरी से लाभ उठाकर वे उन पर हावी हो गये। फलस्वरूप गुप्त
साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी हो गया।
धार्मिक कारण
- गुप्त साम्राज्य के पतन के
लिए धार्मिक कारण भी प्रमुख था। प्रारम्भिक गुप्त सम्राट वैष्णव धर्मावलम्बी
थे, परन्तु बाद के सम्राटों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया जो
साम्राज्य के लिए अहितकर साबित हुआ। इसने गुप्त सम्राटों की युद्धप्रियता, जो साम्राज्य की सुरक्षा एवं स्थायित्व के लिए आवश्यक थी, नष्ट कर दी। वास्तव में बौद्ध नीति के फलस्वरूप उनमें
सैनिकवादी कार्यों के प्रति उदासीनता आ जाना स्वाभाविक था। इस धर्म के
प्रभावस्वरूप गुप्त सम्राटों ने सैनिक कुशलता को विशेष महत्त्व नहीं दिया।
ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है कि जब मिहिरकुल बालादित्य पर आक्रमण करने पहुँचा
तब बालादित्य ने अपने मंत्रियों से कहा, "मैंने सुना है कि ये चोर आ रहे हैं और मैं उनसे युद्ध नहीं कर
सकता। यदि मेरे मंत्री मुझे अनुमति प्रदान करें तो मैं कीचड़ में छुप
जाऊँ।" उसने केवल यह कहा ही नहीं; वरन् अपनी बहुत सी प्रजा के साथ एक द्वीप में चला गया।
ह्वेनसांग ने यह भी बतलाया है कि युद्ध में मिहिरकुल को बंदी बना लिया गया, परन्तु बालादित्य की माता के कहने पर उसे छोड़ दिया गया।
परवर्ती सम्राटों की इस तरह की नीति साम्राज्य के पतन का करण बनी।
साम्राज्य की विशालता
- गुप्त साम्राज्य के पतन का
एक मौलिक कारण गुप्त साम्राज्य की विशालता भी माना जाता है। चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य का
काफी विस्तार किया। गुप्तों का साम्राज्य भारत के विशाल भूभाग पर स्थित था।
उन दिनों आवागमन के साधन विकसित नहीं थे। गुप्तचरों का समुचित प्रबन्ध नहीं
था। अतः इतने विशाल साम्राज्य पर शासन करना कठिन था। योग्य सम्राटों के समय
तो कोई गड़बड़ी नहीं हुई, किन्तु
उत्तरकालीन गुप्त नरेशों के समय विघटनात्मक प्रवृत्तियाँ जोर पकड़ने लगीं। फलत:
दूरस्थ प्रान्तों ने शासकों के केन्द्रीय शासन से अपने को मुक्त कर लिया।
गुप्तकालीन दण्डनीति
- गुप्तकालीन दण्डनीति
अत्यन्त नम्र थी। बड़े से बड़े अपराध पर कठोर दण्ड नहीं दिया जाता था। दण्डनीति में उदारता लाने तथा प्राणदण्ड को
स्थगित कर देने से देश में आन्तरिक शत्रुओं को अशान्ति और अव्यवस्था फैलाकर
साम्राज्य का विनाश करने के लिए प्रोत्साहन प्राप्त होने लगा और वे अपने
साम्राज्य विरोधी कार्यों में सफल होने लगे। विदेश नीति का परित्याग-परवर्ती
गुप्त सम्राटों ने अपने पूर्वजों की विदेश नीति का परित्याग कर दिया।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवियों के साथ, समुद्रगुप्त ने
विदेशी जातियों के साथ, चन्द्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटक, नाग और कदम्बों के साथ कूटनीतिक
एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे। बाद के सम्राटों ने इस नीति का
परित्याग कर दिया। फल यह हुआ कि अवसर पड़ने पर भी उन्हें अन्य लोगों
से सहायता नहीं मिल पाती थी। फिर उनका पतन अनिवार्य हो गया।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लगभग 550 और 595 ई. के बीच गुप्त साम्राज्य का
सूर्यास्त हो गया। गुप्त वंश की स्थापना 319 ई. में हुई थी। चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य को काफी विस्तृत
किया। कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त तक
तो साम्राज्य खड़ा रहा, किन्तु
स्कन्दगुप्त के बाद कमजोर गुप्त नरेशों के राज्य काल में लड़खड़ाने लगा।
पुष्यमित्रों और हूणों के आक्रमण बढ़ गये। आन्तरिक कलह भी सुलगने लगी। उत्तरकालीन
गुप्त नरेशों (बुधगुप्त, बालादित्य आदि) की
शान्ति-अहिंसा नीति भी साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। सामन्तों की स्वतंत्रता, मालवा के गुप्त, कान्यकुब्ज के मौखरि और वल्लभी
के मैत्रकों के उदय ने गुप्त साम्राज्य को ग्रस लिया।
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फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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