गुप्त काल में धार्मिक अवस्था (Religious Conditions in Gupta Empire )
गुप्त काल में धार्मिक अवस्था (Religious Conditions in Gupta Empire )
वैदिक धर्म
- गुप्त सम्राट वैष्णव थे और वैदिक धर्म की पूरी तरह राज्य की ओर से संरक्षण प्रदान कर रहे थे, जिससे गंगा-यमुना के मध्य के देश और मध्य भारत आदि में वैदिक धर्म का कुछ प्रचार हुआ। पिछले वर्षों में वैदिक यज्ञों का प्रचलन पुनः बढ़ गया था। गुप्त युग में भी यह प्रक्रिया चलती रही। इस काल के नाग, वाकाटक, गुप्त आदि वंशों के राजाओं ने अनेक अश्वमेध तथा अन्य यज्ञ किये, किन्तु फिर भी वैदिक धर्म अब उतना लोकप्रिय न रह गया था। यज्ञ आदि करना राजा महाराजाओं तथा धनी लोगों का ही काम था। साधारण जनता के आर्थिक साधनों से वे परे थे और न उनमें उनका अधिक विश्वास ही रह गया था। इस युग की स्मृतियों ने स्पष्ट लिखा है कि यज्ञ उन्हीं को करना चाहिए जिनके भण्डारों में तीन वर्ष के लिए पर्याप्त साधन जमा हों। साधारण लोग स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म की ओर झुक रहे थे। इस प्रकार वैदिक धर्म अवनति की ओर अग्रसर हो रहा था और आगे चलकर उसका महत्त्व और भी अधिक घट गया।
वैष्णव
- गुप्त सम्राटों के वैष्णव भागवत धर्म का अनुयायी होने के कारण उनके संरक्षण में यह धर्म निर्बाध गति से उन्नति करने लगा था। अनेक वैष्णव मन्दिरों का निर्माण इस युग में हुआ। धार्मिक भावना और विश्वास का स्वरूप परिवर्तित हुआ। विष्णु के दस अवतारों में वराह और कृष्ण की पूजा का प्रचलन इस काल में विशेष रूप से हुआ।
- इस अवतार के सम्बन्ध में पुराणों में उल्लिखित है कि वराह ने पृथ्वी का उस समय उद्धार किया था, जिस समय वह प्रलय के तीव्र वेग में जलमग्न होती जा रही थी। ऐसा प्रतीत होता है कि वराह अवतार की पूजा को इसी धार्मिक गाथा ने बल दिया था क्योंकि गुप्त सम्राटों ने भी दस्युओं और म्लेच्छों के निरन्तर आक्रमणों से उत्पन्न प्रलय की सी अवस्था में से भारतभूमि का वराहावतार की तरह ही उद्धार किया था।
- इस काल तक राम को भगवान विष्णु का अवतार मानकर पूजा करने की प्रवृत्ति का श्रीगणेश नहीं हो पाया था क्योंकि राम की पूजा के सम्बन्ध में इस युग के अवशेषों का अन्वेषण करने पर हमें किसी भी तरह का संकेत अब तक नहीं मिल सका है। अनेक शिलालेखों में कृष्ण की पूजा का उल्लेख पाया जाता है। यह सत्य है कि कृष्ण की ही भाँति राम की उपासना का भी प्रचलन अभी तक नहीं हुआ था। परन्तु फिर भी राम के अत्यन्त महान और परम पावन चरित्र में भगवान के अर्थात् दैवी अंश का विचार इस समय में विकसित होना प्रारम्भ हो गया था। फिर भी राम की पूजा का प्रारम्भ भारत में छठवीं शताब्दी के बाद से ही आरम्भ हुआ था।
शैव धर्म
- गुप्तकाल में शैवधर्म का काफी प्रचार था। गुप्त सम्राटों के मंत्री, सेनानायक और उच्च अधिकारी शैव थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री वीरसेन ने उदयगिरि में शिव मंदिर का निर्माण किया था। कुमारगुप्त प्रथम के समय में ध्रुवशर्मा शैव था जिसने कार्तिकेय मन्दिर को दान दिया था। गुप्तों के सामन्त महाराज हस्तिन के खोह-अभिलेख में 'नमों महादेव' शब्द उत्कीर्ण हैं। दामोदर अभिलेख में शिवपूजा के निमित्त अग्रहारदान का उल्लेख मिलता है। मथुरा में माहेश्वर नामक एवं शैव संप्रदाय था। वाकाटक, नल, मैत्रिक, कदम्ब और परिव्राजक वंशीय नरेश शैव धर्मावलम्बी थे।
- गुप्तकाल की शिव मूर्तियाँ भी मिली हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय एकमुख या चतुर्मुख शिव की पूजा का प्रचलन था। नागोद राज्य में स्थित भुमरा और खोह में एकमुख शिवलिंग की प्रतिमाएँ मिली हैं। गुप्तकालीन मूर्तियों का संग्रह अजमेर के संग्रहालय में किया गया है। इसमें चतुर्मुख लिंग तथा शिव की प्रतिमाएँ काफी हैं। करमदंडा से भी एक शिवलिंग मिला है। इसे पृथ्वीषेण ने बनवाया था। त्रिशूल और नन्दी के अनेक चिह्न मिले हैं। गुप्तकाल में शक्ति (देवी) पूजा का भी प्रचलन था। कालान्तर में शक्ति और शिव पूजा का एक-दूसरे के साथ समन्वय होना प्रारम्भ हो गया। शिव और शक्ति की पूजा उनके करुणामय और भयंकर दोनों प्रकार के रूपों में की जाती थी। देवी के विभिन्न रूपों में उमा, गौरी, पार्वती, भवानी, अन्नपूर्णा, ललिता आदि करुणाशील रूप थे तथा चामुण्डा, दुर्गा, कालरात्रि कात्यायिनी और भैरवी के रूप भयंकर थे। देवी के सभी रूपों की प्रतिमाएँ भारत के विभिन्न भागों में पाई गई हैं। बंगाल शाक्त सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र था।
- शिव पूजा के साथ गणेश और कार्तिकेय की पूजा का भी प्रचार था। गणेश और कार्तिकेय शिव तथा शक्ति (पार्वती) के पुत्र थे। कार्तिकेय को स्वामी महासेन भी कहा जाता था। गणेश की पूजा भी होती थी। कालान्तर में गणेश के उपासकों का एक सम्प्रदाय बना गया। पहाड़पुर में गणेश की कई प्रतिमाएँ पाषाण तथा धातुओं की बनी हुई मिली हैं। गणेश बड़े ही लोकप्रिय देवता थे। उनको समस्त विपत्तियों का नाशक तथा सफलतादायक समझा जाता था। न केवल हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय, बल्कि बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक मतों के अनुयायी भी उनकी पूजा करते थे। बौद्धों ने गणेश मूर्ति का प्रचार हिन्देशिया में भी किया था।
जैन धर्म
- गुप्तकालीन उत्कीर्ण लेखों के आँकड़ों से साफ मालूम होता है कि वैदिक धर्म को मानने वालों की संख्या बहुत अधिक थी, बौद्ध धर्म को मानने वाले भी काफी थे, किन्तु उत्तर भारत में जैन धर्म को मानने वालों की संख्या बहुत कम थी। एक तो अपने कठोर आचरण के कारण यह बहुसंख्यक जनता को अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सकता था, दूसरी ओर आचरणहीन विदेशियों से अपने को बचाने के लिए जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण की ओर खिसक रहा था। वैदिक और बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में भी तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा मन्दिरों में होती तथा स्तुति, अर्चन, पूजन, तीर्थयात्रा, दान-प्रण्यादि प्रचलित थे।
- देवरिया जनपद में प्राप्त स्कन्धगुप्तकालीन, वहाँ के अभिलेख से मालूम होता है कि मद्र नामक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थकरों की मूर्तियों की स्थापना की थी। सूर्य की उपासना - इस काल में सूर्य के भी कई मन्दिर बने थे सूर्य का एक मन्दिर मालवा में मन्दसौर में दूसरा ग्वालियर में, तीसरा इन्दौर में और चौथा बघेलखंड में प्राप्त हुआ है। बंगाल में सूर्यदेव की कुछ मूर्तियाँ भी मिली हैं। नाग तथा यक्ष की पूजा-इस काल में नाग तथा यक्ष की भी पूजा प्रचलित थी, परन्तु यह पूजा केवल निम्न वर्ग के लोगों ही तक सीमित थी।
गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण
- गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में हुआ। इन मन्दिरों में लोग पूजा पाठ किया करते थे और इनमें व्याख्यान भी हुआ करते थे। मन्दिरों के निर्माण के फलस्वरूप शिल्प कला तथा चित्र कला की भी बड़ी उन्नति हुई। इन मन्दिरों में कीर्तन तथा नृत्य भी होते थे। अतएव इससे नृत्य कला का भी विकास हुआ। इन मन्दिरों में देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई थीं। मूर्तियाँ बनने लग गई थीं। अतः उनकी पूजा आदि का ढंग और भी अधिक जटिल हो गया। देवता को प्रातः मधुर संगीत द्वारा जगाना सुन्दर वस्त्र पहनाना, आरती उतारना उनका भोग लगाना आदि सभी बातें प्रचलित हो गई थीं। इसके अतिरिक्त इस युग में भजन संध्या उपासना, व्रत उपवास, श्राद्ध आदि का भी महत्त्व बढ़ गया। कहने का अर्थ यह है कि गुप्त युग के आते-आते वर्तमान सनातन धर्म का रूप लगभग पूर्णतया निश्चित हो चुका था। साधारण लोगों में अब भी सर्पों, वृक्षों और पशुओं आदि की पूजा प्रचलित थी और बलि आदि चढ़ाने की प्रथा भी जारी थी।
गुप्तकाल में धार्मिक सहिष्णुता
- सहिष्णुता की भावना सदैव से भारतीय जीवन की विशेषता रही है। इस युग में भी हमें यह बात स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। वैष्णव, शैव, बौद्ध तथा जैन धर्म इस काल में साथ-साथ फले-फूले। अधिकतर गुप्त सम्राट वैष्णव थे, किन्तु शिव, सूर्य आदि के उपासकों तथा बौद्धों और जैनों का वे समान रूप से आदर करते। यही नहीं सब सम्प्रदायों को धार्मिक विश्वास तथा पूजा-पाठ की स्वतन्त्रता थी बल्कि दान तथा सरकारी नौकरियों आदि में भी किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाता था। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का सेनापति अमरकर्दव बौद्ध था। समुद्रगुप्त पक्का हिन्दू था किन्तु उसने अपने पुत्र की शिक्षा का भार प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु को सौंपा। नालन्दा के प्रसिद्ध बौद्ध विहार को गुप्त सम्राटों ने मुक्तहस्त से दान किया और उनके संरक्षण में वह संस्था खूब फली फूली। इस युग के अन्य राजवंशों की भी यही नीति थी।
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