सिंधु सभ्यता की धार्मिक अवस्था |Religious state of Indus civilization
सिंधु सभ्यता की धार्मिक अवस्था |Religious state of Indus civilization
सिंधु सभ्यता की धार्मिक अवस्था
खुदाइयों से प्राप्त सामग्री के आधार पर हमें हड़प्पा के लोगों के धर्म की विशेषताओं की जानकारी होती है। इस तरह की विशेषता प्राचीनतम धार्मिक साहित्य में नहीं है। उदाहरणस्वरूप हड़प्पा काल में देवी की पूजा होती है लेकिन इसके पतन के लगभग एक हजार वर्ष के बाद ही देवी की पुनः पूजा करने की बात पायी जाती है। लिखित साहित्य या स्मारक धार्मिक सूचना देने में असमर्थ हैं। इस सम्बन्ध में धातुपत्रों एवं मुहरों पर अंकित विभिन्न प्रकार के चित्रों का गहरा अध्ययन करके ही कुछ तथ्य निकाला जा सकता है।
सिंधु सभ्यता में मातृदेवी की पूजा
- मिस्र, मेसोपोटामिया, क्रीट, साइप्रस, फिलिस्तीन, सीरिया, एशिया माइनर, बाल्कन, एल्म, पश्चिमी एशिया, इजियन सागर के आस-पास मिली देवियों की पूजा के समान ही सिन्धु क्षेत्र में भी देवी की पूजा होती थी। मातृपूजा की परंपरा की शुरुआत पृथ्वी की पूजा से हुई। इस पूजा का सम्बंध उत्पत्ति के महत्त्व से है।
- सिन्धु क्षेत्र से एक ऐसी स्त्री का चित्र मिला है। जिसके पेट से एक पौधा निकला है। इस चित्र का सम्बंध विद्वानों ने पृथ्वी, देवी, पौधे की उत्पत्ति एवं उनके विकास से लगाया है।
- हड़प्पा से खुदाई में एक और स्त्री का चित्र मिला है, वह पालथी मारकर बैठी है। स्त्री के दोनों ओर पुजारी भी बैठे हैं। फिर इस स्त्री के सिर के ऊपर पीपल की पत्तियों के चित्र हैं। इस तरह इस काल में शक्ति की पूजा प्रचलित थी। मातृ एवं देवी की उपासना होती थी।
- सिन्धु सभ्यता में अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न देवियों की पूजा प्रचलित थी। मातृदेवी के कई रूप थे। उनकी उपासना भिन्न-भिन्न रूपों में की जाती थी।
- मोहनजोदड़ो में खुदाई से एक अलग प्रकार की मातृदेवी की मूर्ति मिली है। इस मूर्ति के सिर के ऊपर एक पक्षी अपने पंख फैलाकर इस तरह बैठा है जैसे कि वह मातृदेवी की रक्षा कर रहा हो। इस काल में प्रकृति के सहारे ही मनुष्यों का पालन-पोषण होता था। अतः वहां के लोगों के द्वारा प्रकृति को मातृदेवी मानकर उपासना करना भी स्वाभाविक था।
सिंधु सभ्यता में पेड़-पौधों की उपासना
- सिन्धु काल से ही वृक्षों की पूजा होती रही है। आज भी उत्तर भारत में पीपल, आंवला आदि के पेड़ों की पूजा होती है। दक्षिण भारत में इमली के पेड़ की पूजा का प्रचलन आज भी है।
- वृक्षों को देवी-देवताओं का रूप मानकर पूजा होती थी और होती है। उपर्युक्त बातों की पुष्टि सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त कुछ मुद्राओं से होती है। इस तरह के अवशेष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिले हैं।
- मोहनजोदड़ो में एक ऐसी मुद्रा मिली है जिसमें एक पशु के दो सटे हुए सिर हैं। इन दोनों जुड़वां सिरों से नौ पीपल की पत्तियां निकली हैं। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष प्रकार के पशु और पीपल के पेड़ का समाज में धार्मिक महत्त्व था। अधिक दिनों तक जीवित रहने के कारण पीपल के पेड़ का आज भी महत्त्व है।
- पीपल का पेड़ स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी काफी महत्त्वपूर्ण है। यह एक ऐसा पेड़ है जो दूसरे भारतीय पेड़ों के समान रात में कार्बन डाइऑक्साइड गैस नहीं छोड़ता है बल्कि ऑक्सीजन छोड़ता है जिसका स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है। दूल्हा तथा दुल्हन की उम्र काफी लम्बी हो इस भावना से प्रभावित होकर आज भी महिलायें शादी होने के पहले पीपल के पेड़ की पूजा करती हैं। इस पूजा का प्रधान उद्देश्य यही होता है कि वर एवं वधू-दोनों की उम्र पीपल के पेड़ के समान काफी लंबी हो।
- ऋग्वेद में अश्वत्थ वृक्ष की चर्चा है। इस वृक्ष के बारे में कहा गया है कि इस पर जल चढ़ाने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अश्वत्थ का पेड़ ही बाद में चलकर पीपल का पेड़ कहलाने लगा। पीपल के पेड़ के महत्त्व की चर्चा गीता में कृष्ण के द्वारा भी की गई है।
- पीपल के पेड़ के नीचे ही बौद्धधर्म के महान प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
- सिन्धु काल में नीम और बबूल के पेड़ की भी पूजा होती थी। इस समय वृक्ष, देवी एवं देवताओं को खुश करने के लिए पशुओं की बलि भी चढ़ाई जाती थी।
सिंधु सभ्यता में पशुपति की उपासना
- सिन्धु घाटी में पाये गये तीन मुख वाली मूर्तियों के आधार पर पता चलता है कि वहां शिव की पूजा समाज में प्रचलित थी। शिव पूजा का सम्बंध पशुओं की पूजा से जोड़ा जाता है क्योंकि शिव को पशुपति भी कहा गया है। इसके अलावा शिव पौरुषत्व के प्रतीक भी माने जाते हैं।
- सिन्धु घाटी में कुछ ऐसी मुहरें एवं ताम्रपट मिले हैं जिन पर तीन मुख वाली मूर्ति का चित्र अंकित है। तीन मुख वाले यह शिव ध्यान लगाये बैठे हैं। इनके दोनों हाथ दोनों घुटनों पर हैं। आज भी वैसी तस्वीर हमें देखने को मिलती है, जहां शिवजी तपस्या में लीन हैं। उसके दोनों ओर जानवरों के चित्र बने हुए हैं।
- शिव की छाती पर त्रिशूल जैसा कोई आभूषण का भी चित्र है। यहां की लिपि को अभी तक नहीं समझ पाने के कारण यहां की धार्मिक अवस्था को भी समझना अन्य अवस्थाओं के समान कठिन है।
- जॉन मार्शल का विचार कि सिन्धु घाटी में पायी गयी यह शिव की मूर्ति आधुनिक शंकर भगवान की ही है, माना जा सकता है। मैके महोदय तो निश्चित तौर से इसे शिव का रूप ही मानते हैं। पशुपति रूप की आकृति भी इसे कुछ विद्वानों ने माना है।
- सिन्धु क्षेत्र से कुछ और भी मूर्तियां मिली हैं। इनके हाव-भाव को देखकर ऐसा लगता है मानो शिव नृत्य मुद्रा में हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार शिव की इस नृत्य मुद्रा में ऊर्ध्वलिंग भी है। योग की मुद्रा में लीन एक और मूर्ति मिली है जिसके सामने दो तथा अगल-बगल में एक-एक सांप बैठे हैं। यह भी शिव का ही चित्र लगता है।
- तीर-धनुष चलाते हुए एक दूसरा चित्र मिला है। इसकी जंगली वेशभूषा को देखकर विद्वान शिव का ही अनुमान लगाते हैं। उपर्युक्त पुरातात्विक सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि शिव की पूजा की शुरुआत सिन्धु सभ्यता के काल से ही पायी जाती है। शिव से सम्बंधित दो-तीन तथ्यों को समझना यहां आवश्यक लगता है।
- शिव का रंग काला या सांवला है। आर्य लोग काले नहीं बल्कि गोरे थे। अतः शिव का यह काला रंग यहां के रहने वाले मूल निवासियों का प्रतिनिधित्व करता है। शिव के शरीर पर वस्त्र का अभाव तथा वस्त्र के रूप में जंगली जानवरों की छाल का उपयोग इस बात का द्योतक है कि शंकर जंगली कबीलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। शिवलिंग की पूजा पौरुषत्व के महत्त्व को दर्शाती है। शिवलिंग जैसा कि डी० डी० कौशाम्बी का कहना है, उत्पादन का द्योतक है। शिव के साथ सांड का रहना भी पौरुषत्व दर्शाता है और सांड का धार्मिक महत्त्व सिन्धु क्षेत्र में था, ऐसा लगता है।
- सांड की पूजा की चर्चा मिस्र में भी मिलती है। कुछ मुहरें, जो सिन्धु क्षेत्र में पायी गयी हैं, पर मेसोपोटामिया की धार्मिक कथाओं का प्रभाव भी हम पाते हैं। जिस तरह सिन्धु क्षेत्र के शिव को सर्प जैसा जानलेवा जीव के बीच में दिखाया गया है उसी तरह मेसोपोटामिया के एक महाकाव्य के नायक गिलगमेश को दिखाया गया है कि वह बाघों से लड़ रहा है। सांप के समान बाघ भी जानलेवा जीव है।
- एरकिडू नामक एक अन्य विचित्र व्यक्ति का प्रमाण मिलता है जो मानव तो है लेकिन भैंस के समान उसे सींग तथा घोड़े के समान पूंछ थी। फिर मेसोपोटामिया में ही मिली मोहरों में से एक मोहर है जिस पर धार्मिक चिह्न बने हैं।
- उदाहरणस्वरूप एक देवता को योगासन की मुद्रा में दिखाया गया है जो चारों ओर से पशुओं द्वारा घिरा है। फिर एक वृक्ष के देवता को भी दिखाया गया है जिसके सामने सात व्यक्ति खड़े हैं।
सिंधु सभ्यता में लिंग पूजा
- शिवपूजा का ही दूसरा तरीका लिंगपूजा है। मोहनजोदड़ो में खुदाई से बहुत-सी वस्तुएं मिली हैं जो लिंग के आकार की हैं। कहते हैं, देवताओं के चिह्नों की खोज के सिलसिले में अचानक लिंग मिल गये। पा
- षाण युग का एक लिंग दक्षिण भारत में भी मिला है। लिंगपूजा, भारत में ही नहीं बल्कि प्रस्तरताम्रयुग में कई देशों में भी प्रचलित थी।
- सिन्धु क्षेत्र में पाये गये लिंग चूना पत्थर और घोंघे के बने हैं। अधिकांश बड़े लिंग चूना पत्थर के हैं तथा छोटे लिंग घोंघे के। कुछ विद्वानों के द्वारा अनुमान किया जाता है कि बड़े-बड़े लिंग की पूजा अलग-अलग धार्मिक सम्प्रदाय के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से की जाती थी। लिंग के साथ-साथ योनि पूजा भी सिन्धु समाज में प्रचलित थी।
- अधिकतर देवताओं की पूजा का सम्बंध मानव समाज में वर्तमान समस्याओं की जादुई प्रक्रिया से समाधान करने से रहा है।
- सिन्धु समाज में भी ऐसी-ऐसी बीमारियां होती थीं जिनका इलाज बहुत आसान नहीं था। फलतः आज की तरह उस समय के लोग भी इसके पीछे बुरी हवाओं को जिम्मेदार मानते थे। इसी भावना से प्रभावित होकर लोग स्त्रीलिंग धारण करते थे ताकि बुरे ग्रहों एवं भूतप्रेत से छुटकारा मिल सके। योगमुद्रा में मिली मूर्तियां बताती हैं कि योग करने की विधि का विकास सिन्धु काल में ही आरम्भ हो गया था।
- मूर्ति के अलावा छः मुद्राओं पर अंकित कृतियां भी योग करने के सम्बंध में हमें बहुत कुछ बताती हैं। सिन्धु काल की यह योग विधि ही बाद में चलकर पाशुपत योग का पहला चरण बन गया। पुराने योग नियम के अनुसार योग साधना के लिये आंख, नाक एवं आसन का बड़ा महत्त्व था। इन पर ध्यान देते हुए कुछ विशेष प्रकार के नियमों का पालन योग में आज भी किया जाता है। इन्हीं नियमों से प्रभावित एक मूर्ति मोहनजोदड़ो में मिली है।
सिंधु सभ्यता में पशु पूजा
- सिन्धु क्षेत्र में बहुत सी मुद्रायें पायी गयी हैं जिनके अध्ययन से अनेक पशुओं की आराधना की हमें जानकारी होती है। पशु पूजा के अध्ययन को अधिक तथ्यपूर्ण बनाने के लिए मार्शल ने इन पशुओं को तीन भागों में बांटा है और इनके पूजा करने के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
- सिन्धु काल के लोगों का पुनर्जन्म में तो विश्वास था ही। उन लोगों का कहना था कि मनुष्य के रूप में देवताओं की पूजा बाद में शुरू हुई। चूंकि पहले देवता पशुओं के रूप में भी रहते थे इसलिए मनुष्य के पहले पशुओं के रूप में दो देवताओं की पूजा की प्रथा सिन्धु काल में प्रचलित थी। कहते हैं कि जब पशु देवता मनुष्यों का रूप धारण करने लगे तो उनके चिह्न के रूप में केवल सींग ही रह गये। फलतः जानवरों की सींग उस समय बहुत बड़ी शक्ति का प्रतीक माने जाते थे जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक पशुओं की पूजा में हाथी, गैंडा, बैल, ऋषभ आदि पशुओं का चित्रण मुहरों पर मिला है।
- यहां ध्यान देने की बात है कि मिस्र में भी नन्दी या सांड की शक्ति को देखते हुए उसकी पूजा होने लगी थी। सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त मुद्राओं के आधार पर पता चलता है कि कूबड़ तथा बिना कूबड़ के बैलों की भी पूजा प्रचलित थी। शिव की सवारी बैल की कल्पना की शुरुआत भी लगती है जो यहीं से हुई।
- देवताओं का वाहन पशुओं को ही क्यों बनाया गया, इसका ठोस जवाब बताना मुश्किल है लेकिन लगता है इस काल में अलग-अलग पशुओं को अलग-अलग देवताओं का दूत माना जाता था। इसलिए हम पाते हैं कि देवताओं के साथ-साथ पशुओं की भी पूजा प्राप्त होने लगी और बाद में चलकर तो कई पशुओं को प्रत्यक्ष रूप में ही देवता माना जाने लगा, जैसे- हनुमान, गणेश, नरसिंह इत्यादि।
- सिन्धु समाज में सांपों की पूजा होती थी। सिन्धु घाटी में एक मनुष्य की प्रतिमा मिली है जिसके दोनों ओर सांप फन फैलाये हुए हैं। बैल की पूजा तो लगभग सभी प्राचीन सभ्य देशों में लोकप्रिय थी। खुदाई से प्राप्त एक ताबीज पर लेटे हुए नाग को देखकर मैके महोदय का अनुमान सही लगता है कि नाग को पीने के लिए दूध दिया जाता था। आज भी शिवपंचमी के दिन नागों की पूजा हमारे समाज में प्रचलित है।
- कुछ ऐसी मुद्राएं मिली हैं जिन पर बत्तख का चित्र बना हुआ है। सिन्धु समाज में बत्तख की पूजा प्रचलित थी। बत्तख की एक प्र विशेषता यह है कि वह पानी में तैरता है और पानी में चल रहे छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों को मारकर खा जाता है। फलतः पानी स्वास्थ्यदायक रहता है। पानी का भी सिन्धु काल में काफी धार्मिक महत्त्व था।
सिंधु सभ्यता के अन्य धार्मिक विश्वास
- सिन्धु प्रदेश के लोग मूर्तिपूजा में विश्वास करते थे। मंदिर तो यहां मिले नहीं हैं लेकिन मार्शल का कहना है कि लकड़ी के मंदिर होते थे। यहां से प्राप्त कुछ नारी मूर्तियों के आधार पर कहा जाता है कि ये मूर्तियां मंदिर से उपासना करने वालों की हैं।
- कुछ नारीमूर्तियां निर्वस्त्र की अवस्था में भी मिली हैं। इस सम्बंध में कुछ विद्वानों का कहना है कि ये मूर्तियां देवदासियों की हैं। ऐसा भी लगता है कि यहां के लोग देवताओं को मनुष्य के रूप में देखते थे। इसी कारण वहां से प्राप्त मुहरों तथा प्रतिमाओं में बहुत से देवी-देवताओं के चित्र मिले हैं। तार्किक विचार के अभाव में सिन्धु लोगों के बीच जादू-टोने एवं अन्य दूसरे अन्धविश्वासों का काफी बोलबाला था ।
- खुदाई से प्राप्त बहुत से चकोर ताबीज मिले हैं जिन पर देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा कुछ मंत्र अंकित हैं। ये सिन्धुवासी भूतप्रेत से अपनी रक्षा करने के लिए ताबीज धारण करते थे। ये तावीज ताम्बे के बने होते थे। कुछ मिट्टी के भी मिले हैं।
- यहां धार्मिक उत्सव भी मनाये जाते थे। इस अवसर पर नारी एवं पुरुष दोनों देवताओं के समक्ष नृत्य करते थे। हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर बना चित्र इस बात को आभाषित करता है कि नृत्य के अलावा देवी को संतुष्ट करने के लिए पशु बलि भी दी जाती थी। एक दूसरी मुद्रा मिली है जिसमें एक नर्तकी का चित्र है। यह नर्तकी ताल के आधार पर नृत्य करने जैसा लग रही है। जल की पूजा भी होती थी तथा स्नानकुंड में धार्मिक स्नान के समय स्नान किया जाता था।
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