मौर्यकाल का उदय |मौर्यकालीन इतिहास जानने के साधन |Rising of Mauryas Period
मौर्यकाल का उदय (Rising of Mauryas Period)
मौर्यकाल का उदय
- मौर्यकाल से पूर्व का भारतीय इतिहास का कोई क्रम नहीं है और यह पूर्णतया विश्रृंखल है। न तो इस काल की तिथियों को सही रूप से निश्चित किया जा सकता है और न ठोस ऐतिहासिक साधन ही उपलब्ध हैं।
- प्रधानतः धार्मिक ग्रन्थों की सहायता से ही इस काल के इतिहास का निर्माण किया जाता है। परन्तु मौर्य काल के आरम्भ से ये दोनों कठिनाइयां समाप्त हो जाती हैं और भारत का क्रमबद्ध इतिहास प्रारम्भ हो जाता है।
- मौर्यकाल की तिथियां निश्चित हैं तथा इस काल के इतिहास को जानने के ठोस साधन भी उपलब्ध हैं। अतएव इस काल से भारतीय इतिहास का अध्ययन क्रमबद्ध रूप से किया जा सकता है।
राजनीतिक एकता का प्रारम्भ
- मौर्यवंश के स्थापित हो जाने से उत्तरी भारत में पहले-पहल राजनीतिक एकता स्थापित हुई। मौर्यकाल के पूर्व भारतवर्ष में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था और सम्पूर्ण देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था।
- यद्यपि साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक एकता का स्वप्न देखना भारतीय राजाओं ने मौर्यकाल के पहले ही आरम्भ कर दिया था, परन्तु इस स्वप्न को सर्वप्रथम मौर्य सम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने ही चरितार्थ किया। उसने पंजाब तथा सिन्धु से विदेशी यूनानियों को और उत्तरी भारत के अन्य छोटे-छोटे देशी राज्यों को समाप्त कर सम्पूर्ण उत्तरी भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधा और इस प्रकार प्रथम बार हमारे देश में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई। यह राजनीतिक एकता का आदर्श भारत के भावी महत्त्वाकांक्षी सम्राटों को सदैव प्रेरित करता रहा और इसका क्रम निरन्तर आज तक चलता आ रहा है।
शासन की एकरूपता
- जब मौर्य सम्राटों ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत में राजनीतिक एकता स्थापित कर दी, तब इस विशाल भू-भाग में अपने आप ही एक ही प्रकार के सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित केन्द्रीय शासन की स्थापना हो गई क्योंकि उस राजनीतिक एकता को बनाये रखने के लिए बड़े ही प्रबल तथा सुसंगठित शासन की आवश्यकता थी।
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिस शासन व्यवस्था का शिलान्यास किया वही भावी शासकों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई और उसी में न्यूनाधिक परिवर्तन करके आगामी प्रशासकीय प्रतिभासम्पन्न शासकों ने अपनी शासन व्यवस्था का निर्माण किया।
- मौर्यकालीन शासन व्यवस्था शान्ति बनाये रखने तथा सम्पन्नता प्रदान करने में इतनी सफल हो गयी कि इसे शान्ति तथा सम्पन्नता का युग कह सकते हैं।
कला एवं साहित्य की उन्नति
- मौर्यकाल में कला एवं साहित्य को आश्चर्यजनक रूप से प्रोत्साहन मिला। अशोक के समय में शिल्पकला, भवननिर्माण कला, चित्रकला, लेखनकला आदि कलाओं की विशेष उन्नति हुई। उसके बनवाये हुए स्तूप और भवनों की सजावट देखकर विदेशी यात्री भी चकित रह जाते थे। उसके समय के दस स्तूप पाये गये हैं, जिसकी चमक शताब्दियों के बाद भी उसी प्रकार है। आधुनिक कलाकार भी कला के ऐसे उत्कृष्ट नमूने को देखकर हैरान हैं।
बौद्धधर्म का प्रचार
- मौर्यकाल में बौद्धधर्म का बहुत प्रचार हुआ। इस वंश के महान सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए स्थान-स्थान पर स्तूपों व शिलाओं पर उनके नियम खुदवाये और विदेशों में राज्य की ओर से प्रचारक भेजे। उसने शान्ति एवं प्रेम का सन्देश देकर न केवल भारत के इतिहास में बल्कि विश्व के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। अशोक के इस महान कार्य के कारण मौर्यवंश को भारतीय इतिहास में बहुत ऊँचा स्थान दिया जाता है।
मौर्यकालीन इतिहास जानने के साधन Sources To Know Maurya History
मौर्यकाल के इतिहास जानने के साधन बड़े ही ठोस तथा व्यापक हैं। इस काल का इतिहास जानने के लिए हमें धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य साधन भी अर्थात् ऐतिहासिक ग्रन्थ, विदेशी विवरण, अभिलेख आदि प्राप्त हो जाते हैं। इस वंश के इतिहास को जानने के लिए निम्नलिखित स्रोतों को आधार बनाया जाता है -
यूनानी वृतान्त मौर्य
- इतिहास के निर्माण के लिए यूनानी स्रोत सबसे महत्त्वपूर्ण है। यूनानियों ने चन्द्रगुप्त को सैन्ड्रकोटिस अथवा एड्रकोटिस कहा है। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि चन्द्रगुप्त सिकन्दर का ही समकालीन था। इस खोज से हमें चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके समय का बहुत कुछ वृतान्त मिल जाता है। विदेशी स्रोत इस प्रकार एक ऐसे अध्याय पर रोशनी डालते हैं जो बिना इन स्रोतों के सम्भवतः अधूरा रह जाता और जो महान् कार्यों से परिपूर्ण है। भारतीय इतिहास भी इन स्रोतों का ऋणी है क्योंकि भारत का क्रमबद्ध इतिहास यूनानियों से ही आरम्भ होता है। सिकन्दर के ये साथी अपनी तीन रचनाओं के लिए विशेषकर प्रसिद्ध हैं।
- 1. नियार्कस जिसे सिकन्दर ने सिन्धु तथा ईरान की खाड़ी के मध्य का तटीय भाग खोजने के लिए भेजा था।
- 2. उनैसीक्रीट्स जिसने न्यारकस के सफर में उसका साथ दिया और बाद में उसने भारत में एक किताब लिखी।
- 3. अरिस्टोबलस जिसे सिकन्दर ने भारत में कुछ काम सौंपे थे।
- इन यूनानियों की रचनाओं में मेगस्थनीज का उल्लेख करना अनिवार्य होगा। वह तीसरी शताब्दी ई. पू. भारत में आया। उसने एक रचना 'इण्डिका' (Indica) लिखी जो वास्तविक रूप से तो खोई जा चुकी है, परन्तु बाद के लेखकों की रचनाओं में उसके कुछ अंश प्राप्त हुए हैं और उन्हें इकट्ठा करके ही 'इण्डिका' की रचना की गई है।
- मेगस्थनीज एक यूनानी विद्वान् था जिसे सैल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा में अपना राजदूत बनाकर भेजा था। मेगस्थनीज पाटलिपुत्र में 304 से 299 ई. पू. तक रहा। इस काल में उसने जो कुछ भारत में देखा एवं सुना उसे अपनी ‘पुस्तक’ इण्डिका में लिखा। उसका यह भारतीय वृतांत अत्यन्त रोचक और उपयोगी सिद्ध हुआ।
- मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक में पाटलिपुत्र के शासन, उसकी राज्यसभा, शासनप्रबन्ध सैनिक संगठन आदि विषयों का विस्तृत वर्णन किया है। स्ट्रेबो, प्लिनी आदि यूनानी इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थों में मेगस्थनीज के इस वृतांत को काफी विस्तार में लिखा है। मेगस्थनीज के इस वृतांत में कहीं-कहीं ऐसी कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं जिन पर आसानी से विश्वास नहीं किया जा सकता। हो सकता है ऐसी बातें मेगस्थनीज ने जनश्रुतियों के आधार पर लिखी हों, परन्तु ऐसा होने पर भी यह वृतांत ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण और चन्द्रगुप्त का इतिहास जानने के लिए एक अनिवार्य सूत्र है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
- मौर्यकालीन इतिहास जानने का एक और महत्त्वपूर्ण साधन कौटिल्य का अर्थशास्त्र है। कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमन्त्री था। उसे विष्णुगुप्त और चाणक्य भी कहते थे। चन्द्रगुप्त को शासक बनाने में उसका महत्त्वपूर्ण हाथ था। उसका लिखा हुआ अर्थशास्त्र ऐतिहासिक तथा राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त के समय की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक अवस्था का वर्णन किया है, साथ ही राजनीति के उच्च कोटि के सिद्धांतों की विवेचना भी की है।
- सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में यह ग्रन्थ अपने नमूने का एक अद्वितीय ग्रन्थ है। कौटिल्य एक महान् दार्शनिक और सफल कूटनीतिज्ञ था। उसने इस पुस्तक में एक आदर्श शासक तथा सफल विजेता के कर्त्तव्यों की विस्तृत विवेचना की है। उसने राजनीति और धर्म को अलग करके सोलहवीं शताब्दी के मैक्यावली की भांति उद्देश्य पूर्ति के लिए अच्छे एवं बुरे सभी साधनों के प्रयोग का पाठ पढ़ाया है।
- इस पुस्तक के पन्द्रह भाग हैं, जो राज्य प्रबन्ध और नीति, विशेष अंगों पर प्रकाश डालते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार विंटरनिटज् के अनुसार प्राचीन भारत के राज्य प्रबन्ध, व्यापार, युद्ध और शान्ति आदि विषयों पर प्रकाश डालने वाली एक अद्वितीय पुस्तक है।" यह ग्रन्थ सामाजिक वैभव का विज्ञान है। इसमें तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक दर्शन दोनों का वर्णन है। इस प्रकार राजनीतिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टिकोणों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह न केवल मेगस्थनीज के वृतांत की पुष्टि करता है बल्कि उसका पूरक भी है।
अभिलेख
- मौर्यकालीन इतिहास जानने के लिए हमारे पास सबसे अधिक विश्वसनीय अशोक के अनेक अभिलेख हैं। अशोक ने अपने राज्य के विभिन्न भागों में कई शिलालेख स्तम्भलेख तथा अन्य स्मारक चिह्नों का निर्माण किया था। इन लेखों द्वारा उसने सारी मानव जाति को बौद्धधर्म के सिद्धान्त और पवित्रता के नियमों पर चलने का आदर्श पथ बतलाया था। अतः इन लेखों से उसके धर्म तथा नैतिकता के सिद्धांतों के विषय में पूर्ण जानकारी हो जाती है। इसके अतिरिक्त उसका राज्यविस्तार, उसके जनहितकारी कार्य, प्रजा के साथ उसका व्यवहार, उसके निजी जीवन, राजस्व के सिद्धांत आदि अन्य बातों का भी इन अभिलेखों से पूरा पूरा पता चलता है। यही कारण है कि ऐतिहासिक दृष्टि से अशोक के ये अभिलेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
विशाखादत्त का मुद्राराक्षस
- मुद्राराक्षस एक ऐतिहासिक नाटक है जिसे विशाख दत्त ने पांचवी शताब्दी में लिखा था। नाटक में नन्दवंश के नाश तथा मौर्य वंश की स्थापना की कहानी प्रस्तुत की गई है। मौर्यकाल के प्रारम्भिक इतिहास की इससे पर्याप्त जानकारी हो जाती है। चन्द्रगुप्त ने किस प्रकार कौटिल्य की सहायता से मगध का राज्य प्राप्त किया, यही इस नाटक का विषय है। परन्तु कल्पना का मिश्रण होने के कारण उसकी प्रत्येक बात विश्वसनीय नहीं है।
पुराण
- पुराणों द्वारा भी मौर्यवंश तथा उससे पूर्व का इतिहास जानने में पर्याप्त सहायता मिल जाती है लेकिन इसमें भी कल्पना और अतिशयोक्ति का समावेश होने के कारण इन पर अधिक विश्वास नहीं किया जाता।
बौद्ध एवं जैन परम्पराएं
- बौद्ध परम्पराएं मौर्य वंश के इतिहास पर काफी प्रकाश डालती हैं। दिव्यावदान में अशोक और कुणाल के सम्बन्ध में कई ऐतिहासिक बातों का वर्णन है, जो हमारी जानकारी के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार बौद्ध परम्पराओं से हमें अशोक के विषय में जानकारी मिलती है, उसी प्रकार जैन परम्पराओं द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में कई बातों का पता चल जाता है।
मौर्यकालीन भग्नावशेष
- मौर्य की कलाकृतियों तथा भग्नावशेष भी उस समय की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास जानने के बहुत महत्त्वपूर्ण साधन हैं। उस समय के स्तूपों, विहारों, मठों, गुफाओं आदि से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय कला और संस्कृति कितनी उन्नत अवस्था में थी और मौर्य शासकों ने अपनी उन्नति में कितना सहयोग दिया था। यही कारण है कि सांची के स्तूप तथा अन्य खण्डहर ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।
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