सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार |अशोक के धर्मप्रचार के कार्य | Samrat Ashok Baudh Dharm
अशोक के धर्मप्रचार के कार्य
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कौन कौन से कार्य किए?
- सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध होते हुए भी जैसा कि हम कह चुके हैं, अपने धार्मिक विचारों को अन्य धर्मावलम्बियों पर लादने का प्रयत्न नहीं करता था। उसके साम्राज्य में सभी धार्मिक सम्प्रदायों को अपना धर्म पालन करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी। फिर भी उसने साम्राज्य भर में तथा विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जितने भारी प्रयत्न किये उसकी समता इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।
- अतः यह कथन कि “बौद्ध धर्म के इतिहास में धर्म के संस्थापक महात्मा गौतम बुद्ध के पश्चात् केवल अशोक को ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है", शत-प्रतिशत) सत्य है। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह रणघोष के स्थान पर धर्मघोष करेगा। अपने सप्तम स्तम्भलेख में भी उसने कहा कि मैं धर्म की घोषणा करूँगा। धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार करूँगा। जो लोग उसे सुनेंगे उसके अनुसार आचरण करने के लिए प्रेरित होंगे, उनका आध्यात्मिक विकास होगा और धर्म की वृद्धि होगी।" यह लेख हमें अशोक के धर्म प्रचार के उद्देश्य का बोध कराता है। इसी उद्देश्य को लेकर सम्राट अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए निम्न तरीकों को अपनाया और उनके अनुसार देश तथा विदेशों में बौद्ध धर्म का भरसक प्रचार किया।
Q - धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने किन साधनों का प्रयोग किया ?
बौद्ध धर्म के रूप में राज धर्म की स्थापना
- सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को राज धर्म के प्रतिष्ठित पद पर स्थापित किया। इसके परिणामस्वरूप साम्राज्य की जनता का अधिकांश भाग बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी इसे अपना पैतृक धर्म समझकर स्वीकार किया, जिससे यह धर्म बहुत दिनों तक राजधर्म बना रहा।
बौद्ध धर्म के अनुरूप जीवन बनाना
- सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप अपना जीवन बना लिया। अपने जीवन को उसने जनता के सामने उदाहरणस्वरूप रखा। पहले राजकीय भोजनालय में सैकड़ों पशुओं का मांस पकता था। लेकिन अब सम्राट ने बौद्ध धर्म के अनुसार आचरण करके जन साधारण के सम्मुख आदर्श उपस्थित किया। उसने पशुओं का वध और अन्य हिंसापूर्ण कृत्यों को कानून बनाकर बन्द कर दिया, मांस खाना त्याग दिया और राजकीय रसोई में मांस का पकाना निषिद्ध कर दिया, उसने सैर और शिकार सम्बन्धी यात्रायें बन्द कर दीं तथा स्वयं बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रायें करनी आरम्भ कीं। अशोक के इन कार्यों का साधारण जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा और बौद्ध मतावलम्बियों की संख्या में शीघ्रतापूर्वक वृद्धि होने लगी।
धर्म प्रचार के लिए शासन में सुधार
- धर्म प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अशोक ने साम्राज्य के शासन में अनेक सुधार किये। पहले उसने दयालु तथा नम्र स्वभाव के सरकारी कर्मचारियों को हर पांच वर्ष पर राज्य के विभिन्न प्रान्तों का दौरा करने को भेजा। उसका काम सरकारी कर्मचारियों के कार्यों की जांच करना था। ताकि किसी प्रकार प्रजाजन के साथ कोई अन्याय नहीं हो। कुछ समय बाद अशोक ने इन नियमों को स्थायी स्थान देने के लिए एक धर्म विभाग की स्थापना करके कुछ प्रमुख अधिकारियों को धर्म प्रचार के कार्य में नियुक्त किया। राजुक प्रादेशिक और युत नामक पदाधिकारी धर्म प्रचार के कार्य में संलग्न रहने लगे। महामात्र साम्राज्य के विभिन्न भागों में भ्रमण करके धर्म प्रचार के कार्य में भरपूर सहायता प्रदान करने लगे। इन धर्म महामात्रों का कार्य अकारण कारावास तथा मृत्युदण्ड को रोकना था। इसके अतिरिक्त वे धर्म के नियमों का भी प्रचार किया करते थे। स्त्रियों के नैतिक जीवन के सम्बन्ध में भी उन्हें प्रचार करना पड़ता था। इस प्रकार अशोक ने सरकारी पदाधिकारियों को धर्म के कार्य में जुटाया। इतने सुसंगठित रूप से कार्य करने का ही परिणाम था कि सम्राट को अपने उद्देश्यों में आशातीत सफलता मिली, जिसका उल्लेख उसने अपने धर्म लेखों में किया है।
तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन
- अपने शासनकाल के सत्रहवें वर्ष में अशोक ने मोदगलि पुत्र तिष्य के सभापतित्व में बौद्ध संघ की आन्तरिक फूट को दूर करने के लिए साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में एक सभा बुलाई। यह तीसरी बौद्ध संगीति थी। इसमें देश भर के बौद्ध भिक्षु शामिल हुए। कुछ विद्वानों ने संगीति की ऐतिहासिकता पर संदेह किया है, किन्तु यह तर्कसंगत नहीं है; इसका सबसे बड़ा प्रमाण अशोक का भाब्रू अभिलेख है। इस अभिलेख में हम अशोक को स्वयं भिक्षुओं के सम्मुख मगध नरेश के नाम से अभिहित करते हुए पाते हैं।
- डॉ. भण्डारकर का उपर्युक्त मत सर्वथा तर्कसंगत है, क्योंकि जो भिक्षु संगीति में एकत्रित हुए थे, उनमें कुछ मगध साम्राज्य से बाहर के भी थे। इसीलिए अशोक ने मगध के सम्राट के रूप में अपना परिचय देना आवश्यक समझा। उक्त अभिलेख में सम्राट अशोक ने कहा है, "मगध के प्रियदर्शी सम्राट अशोक संघ को अभिवादन कर संघ वासियों के स्वास्थ्य तथा निष्कंटक रूप से विचार करने की कामना करते हैं।" अशोक ने संघ के आचार्यों का स्वागत करते हुए उक्त वाक्य कहा है। इसी अभिलेख में आगे इस प्रकार आता है, “पूज्य भन्ते, यह तो आपको विदित ही है कि बुद्ध धर्म और संघ में हमारी कितनी महती श्रद्धा है जो कुछ भगवान बुद्ध ने उपदेश दिया है, हे भन्ते, वे कितने अच्छे ढंग से व्यक्त किये गये हैं परन्तु हे भन्ते, यदि हम इस मंगलमय धर्म का दीर्घकालीन स्थिति के निमित कुछ निर्देश करें तो यह व्यक्त करना हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं। भन्ते, ये धर्म विषयक ग्रन्थ हैं।" 'धर्म विषयक ग्रन्थ ' का नाम सम्राट आगे गिनता है जो सुत्त पिटक तथा विनय पिटक आदि हैं। तत्पश्चात् अशोक बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों को बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करने की इच्छा प्रकट करता है " जितने भी भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ हैं, उनमें से अधिक से अधिक संख्या में इन सभी ग्रन्थों का पाठ सुनते रहें। सुनने के पश्चात् उन पर मनन किया करें।" नौ महीने के विचार विनिमय के बाद यह सभा विसर्जित हुई।
- इस सभा ने बौद्ध धर्म में तत्कालीन अठारह मतों को मिलाकर धर्म में फैलती हुई फूट का विनाश किया और धर्म को दृढ़ता प्रदान की गयी। बौद्ध ग्रन्थों में भी कुछ भाषा सम्बन्धी संशोधन किये गये। वास्तव में इसी सभा के बाद विदेशों में प्रचारक भेजने का कार्य अधिक तेजी से आरम्भ हुआ।
- विश्व के इतिहास में अशोक की धर्मविजय का बड़ा महत्त्व है। अशोक के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही बौद्ध धर्म संसार और विशेषकर एशिया की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया। धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी प्रचार हुआ। किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस धर्मप्रचार के पीछे किसी भी प्रकार का राजनीतिक अथवा आर्थिक उद्देश्य नहीं था। वास्तव में, निःस्वार्थ धर्म प्रचार का ऐसा अन्य उदाहरण संसार के इतिहास में मिलना असम्भव है।
नाटकों द्वारा प्रचार
- धर्म में प्रचार के लिए अशोक ने कई प्रकार के नये सामाजिक समारोह का आयोजन किया। उसके धर्मलेखों से विदित होता है कि उसने ऐसे अनेक उत्सवों तथा सामाजिक समारोहों को बन्द करवा दिया जो धर्म के विपरीत पड़ते थे। इसमें पशुओं की कुश्तियाँ, मांसभक्षण या सुरापान सम्मिलित थे। सम्राट ने इन उत्सवों के स्थान पर नये प्रकार के आमोद-प्रमोदों का आयोजन करवाया। अनेक ऐसे तमाशे और जुलूस संगठित किये गये जिससे देवताओं को स्वर्गीय विमानों तथा हाथियों पर सवार दिखलाया जाता था। इसी प्रकार के अनेक दैवी दृश्य दिखलाये जाते थे जिससे सर्वसाधारण में धर्म के प्रति रुचि बढ़े। राज्य की ओर से धर्म श्रवण की व्यवस्था की गयी जिसमें धार्मिक विषयों पर भाषण, कथा आदि होते थे। इन बातों से प्रभावित होकर बहुत लोग बौद्ध हो गये।
विशाल धनराशि दान करना
- अशोक बौद्ध भिक्षु श्रमणों, धर्म प्रचारकों तथा धर्म प्रचार कार्य में लगी हुई धार्मिक संस्थाओं को मुक्त हाथ से विशाल धनराशि दान करता था. इससे भी धर्म प्रचार के कार्य में काफी सुविधा मिली। अशोक ने दीन हीन निरीह तथा साधु संतों को सहायता देकर बौद्ध धर्म के प्रचार में जो योगदान दिया, वह विशेष प्रशंसनीय है। वह स्वयं तो दान देता ही था, साथ ही अपने भाई बन्धुओं परिवार के अन्य सदस्यों तथा सम्बन्धियों से भी दान दिलवाता था। सप्तम स्तम्भ लेख से यह बात स्पष्ट होती है कि उसने दान विभाग की देख-रेख के निमित्त कर्मचारियों की नियुक्ति की थी जो उसका तथा उसकी रानियों एवं राजकुमारियों के दान का पूरा विवरण रखते थे।
- इस प्रमाण में हम इलाहाबाद स्तम्भ पर उत्कीर्ण रानी के अभिलेख को रख सकते हैं। जिसमें आम्र वाटिकाओं, प्रमोदोद्यान दानगृह तथा अन्य वस्तुओं के दान का उल्लेख है। सप्तम लेख से हमें अशोक के दान का उद्देश्य स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है। इस स्तम्भ लेख में यह निर्देश है “मैंने यह इस उद्देश्य से किया है कि लोकधर्म का यथानुसार सभी पालन करें।"
धर्म यात्रा
- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ रणयात्रा के स्थान पर धर्मयात्रा की व्यवस्था की। वह स्वयं धर्म यात्रायें किया करता था तथा अपने अधिकारियों को भी धार्मिक स्थानों की यात्रा करने को भेजता था। मठों का निर्माण- अशोक ने अपने राज्य के विभिन्न भागों में मठों का निर्माण करवाया तथा पुराने मठों को आर्थिक सहायता की। इन मठों में बहुत अधिक भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ रहा करते थे।
धर्म-श्रवण
- अशोक ने धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद तथा भाषण की व्यवस्था की थी। यह आयोजन धार्मिक विषयों में रुचि रखने वाले एवं सर्वसाधारण के हित के लिए किया जाता था। राजुक, व्युष्ट, प्रादेशिक युक्त आदि पदाधिकारी इस आयोजन को सफल बनाने के लिए उत्तरदायी थे।
धर्म-लेख खुदवाना
- अशोक ने अपने साम्राज्य की समस्त शक्ति धर्म प्रचार में लगा दी। अपने राज्य में उसने सर तथा सर्वमान्य नियमों को चट्टानों तथा स्तम्भों पर खुदवाया साम्राज्य के सुदूर भागों में स्थायी शिलाओं पर सर्वसाधारण की भाषा में धर्म नियम खोदे गये, जिससे वे पढ़ सकें और अपने जीवन को उनके अनुकूल ढाल सकें। समीपवर्ती प्रान्तों के सुन्दर स्तम्भों पर ये धर्म लेख खोदे गये। अशोक की मृत्यु हुए आज लगभग सवा दो हजार वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु उसके शिलालेख तथा स्तम्भ लेख आज भी उसी प्रकार विद्यमान हैं और उसकी कीर्ति को फैला रहे हैं। उसके चौदह शिलालेख सात स्तम्भ लेख, कुछ गुहा लेख और कई फुटकर लेख प्राप्त व प्रकाशित हो चुके हैं।
बौद्ध साहित्य को जनसाधारण की भाषा में लिखना
- अशोक ने उस समय की बोलचाल की पाली भाषा में ही पाषाण शिलाओं, स्तम्भों आदि पर बौद्ध मत की शिक्षाएँ खुदवायीं तथा कुछ प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थों को पाली भाषा में अनुवाद करवाया। इससे जनसाधारण तक बौद्ध धर्म के सिद्धांतों तथा शिक्षाओं की पहुँच आसानीपूर्वक होने लगी और वे इसकी ओर आकृष्ट होने लगे।
कल्याणकारी कार्यों को धर्म प्रचार का माध्यम बनाना
- सम्राट अशोक ने जनता तथा पशु-पक्षियों की चिकित्सा के लिए साम्राज्य के भीतर ही नहीं वरन् विदेशों तक में औषधालय स्थापित किये और उनके लिए जड़ी-बूटियों के उद्यान लगवाये। उसने अहिंसा का पालन करने और जीवमात्र पर दया दिखाने के लिए जनता को उत्साहित किया। इस प्रकार उसने लोक कल्याणकारी कार्यों को माध्यम बनाकर बौद्ध धर्म का भारी प्रचार किया।
सम्राट अशोक द्वारा विदेशों में धर्म प्रचार करना
- सम्राट अशोक अपने विशाल साम्राज्य के बाहर भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए बौद्ध भिक्षुओं, भिक्षुणियों, धर्म प्रचारकों, उपदेशकों तथा यहां तक कि राज परिवार के सदस्यों को धर्म प्रचारकों के बड़े-बड़े जत्थों के साथ लंका, सुमात्रा, चीन, जापान, एशिया माइनर, यूनान और उत्तरी अफ्रीका के मित्र आदि देशों में भेजा सिंहल द्वीप को जाने वाले धर्म प्रचारकों के जत्थे का नेतृत्व सम्राट अशोक के पुत्र राजकुमार महेन्द्र तथा पुत्री राजकुमारी संघमित्रा ने किया था। जब यह प्रचार मंडली सिंहल द्वीप पहुँची तो वहां के राजा तिस्स ने उनका स्वागत किया। अपनी इस धर्म विजय के विषय में अशोक स्वयं कहता है कि "देवानामप्रिय धर्म के द्वारा इस विजय को मुख्य विजय समझता है। पड़ोसी देशों, यहाँ तक कि छ: सौ योजन दूर के देशों में भी यह विजय देवानामप्रिय को मिली है। "
- इन धार्मिक मिशनों का कार्य केवल धर्मप्रचार ही न था। इनके साथ राज्य की ओर से धन लेकर अनेक कर्मचारी जाते और उन देशों में लोक सेवा सम्बन्धी कार्य करते। इन मिशनों के सम्बन्ध में इतिहासकार स्मिथ का कथन है; “अशोक द्वारा धर्म प्रचारकों का भेजा जाना मानव इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। अशोक से पहले लगभग ढाई सौ वर्ष तक बौद्ध धर्म गंगा की घाटी तक ही सीमित रहा और उनकी हैसियत हिन्दू धर्म के एक सम्प्रदाय की ही रही। इस स्थानीय सम्प्रदाय का विश्वधर्म में परिवर्तन करना अशोक का ही काम था।
- ये बौद्ध प्रचारक अपने साथ अपने देश की सभ्यता और संस्कृति भी ले गये। लंका में महेन्द्र ने पत्थर पर नक्कासी करने की कला तथा सिंचाई की प्रणाली प्रचलित की। वास्तव में, अनेक बर्बर जातियों को सभ्य बनाना इन्हीं प्रचारकों का काम था।
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