समुद्रगुप्त की शासन प्रणाली |समुद्रगुप्त का मूल्यांकन | Samudra Gupt Ka Mulyankan
समुद्रगुप्त की शासन प्रणाली ,समुद्रगुप्त का मूल्यांकन
समुद्रगुप्त की शासन प्रणाली
- महान विजेता पराक्रमी और संगीतज्ञ होने के साथ ही साथ समुद्रगुप्त एक सफल शासक भी था। उसने केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना ही नहीं की वरन् उसे संगठित करके उसमें एक शक्तिशाली और सुव्यवस्थित केन्द्रीय शासन की भी स्थापना की।
- उसने शासन को केन्द्रीयकरण की नीति पर आधारित किया और साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में विभक्त करके उनमें प्रान्तीय शासक नियुक्त किये। इन शासकों पर उसका पूरी तरह नियंत्रण था। केन्द्रीय शासन में अनेक विभाग थे जो पूर्ण प्रकार से संगठित और व्यवस्थित थे।
- शासन कार्य की देखभाल करने तथा सम्राट को राजकाज में परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल भी था। उसने पदाधिकारियों को अनेक प्रकार की उपाधियाँ प्रदान कीं और उनके सिथियन नामों के स्थान पर नवीन नाम प्रदान किए। अतः प्रधान सेनापति को महाबलाधिकृत और प्रधान न्यायाधीश को महादण्डनायक कहा जाने लगा।
- उसका शासन इतना सुसंगठित और शक्तिशाली था कि उसके अधीन राजाओं को कभी उसके विरुद्ध विद्रोह अथवा षड्यन्त्र करने का साहस ही न हुआ और केवल उसके शासन काल में ही नहीं वरन् उसके पश्चात् भी साम्राज्य में सर्वत्र शान्ति और व्यवस्था यथापूर्व स्थिर रही।
समुद्रगुप्त का मूल्यांकन Samudra Gupt Ka Mulyankan
डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के शब्दों में, "समुद्रगुप्त की प्रारम्भिक स्थिति चाहे जो भी रही हो, वह गुप्तवंश का एक महान् सम्राट था। " स्मिथ ने कहा है, "समुद्रगुप्त, जो गुप्तवंश का द्वितीय सम्राट था, भारतीय इतिहास का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा सर्वगुण सम्पन्न सम्राट था। " उसकी बहुमुखी प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए डॉ. मजूमदार ने लिखा है, "समुद्रगुप्त की सैनिक विजय तो महान् थी ही, उसकी व्यक्तिगत साधनाएँ भी कम महान् न थीं।
उसके राजकवि (हरिषेण) ने विजित लोगों के प्रति उसकी उदारता, उसकी परिष्कृत प्रतिभा, उसके धर्मशास्त्रों के ज्ञान, उसका काव्य-सौष्ठव, उसकी संगीत योग्यता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।" वस्तुतः पराक्रमांक समुद्रगुप्त का राज्य काल भारतीय इतिहास के पृष्ठों में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चेतना का मधुमय निदर्शन है। उसकी विलक्षण बहुमुखी प्रतिभा प्रशस्त गुणों से सम्पन्न एक ऐसे सम्राट का प्रतिनिधित्व करती है जो कुशल योद्धा, प्रवीण सेनापति, सफल संगठनकर्ता, काव्य प्रेमी तथा कला संस्कृति का प्रकाण्ड उन्नायक था।
समुद्र गुप्त का मूल्याकंन अग्रलिखित आधार पर किया जा सकता है-
आकर्षक व्यक्तित्व
- समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक और प्रभावोत्पादक था। वह अत्यन्त पराक्रमी और साहसी था, जिसकी चर्चा अभिलेखों में की गयी है। स्मिथ के शब्दों में, "समुद्रगुप्त अद्भुत व्यक्तिगत समता का व्यक्ति था। उसमें असाधारण विभिन्न गुण थे। वह एक वास्तविक व्यक्ति एक विद्वान्, एक कवि, संगीतज्ञ तथा सेना नायक था। " उसके उच्च व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति में कहा है, "जिस प्रकार शिव की जटाजट रूपी अन्तर्गुहा के बन्धन से उन्मुक्त होने के पश्चात् गंगा का पवित्र जल तीनों ही लोकों को पवित्र करता है, ठीक उसी भाँति उस सम्राट का संचित विमल यश, दान-परायणता, बाहुबल एवं शास्त्र ज्ञान के उत्कर्ष द्वारा अनेक भागों से शान्तिपूर्वक ऊपर उठता हुआ तीनों लोकों को पवित्र करता है। "2 निःसन्देह समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व महान् था।
समुद्रगुप्त महान् विजेता
- समुद्रगुप्त निश्चित रूप से एक महान् विजेता भी था। सम्पूर्ण उत्तर भारत मध्य भारत, दक्षिण भारत तथा सीमान्त प्रदेश का वह सफल विजेता था। जैसा कि विदित है उसने आर्यावर्त के नौ राजाओं- रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन अच्युत, नन्दि एवं बलवर्मा को पराजित किया। इतना ही नहीं समुद्रगुप्त ने आ प्रदेश के 18 राजाओं को पराजित किया, जिससे उसके राज्य की सीमा जबलपुर से गाजीपुर तथा छोटानागपुर तक फैल गयी। इस प्रकार सम्पूर्ण विन्ध्य प्रदेश उसके अधिकार में आ गया। प्रयाग प्रशस्ति में 'सर्वदक्षिणापथ राजग्रहण' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ यह है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के सभी राजाओं को नतमस्तक कर दिया था। इनमें कोशल का महेन्द्र महाकान्तार का व्याघ्रराज, केरल का मन्तराज, पिष्टपुर का महेन्द्रगिरि, कोटुर का स्वामीदत्त, काँची का विष्णुगोप, अवमुक्त का भीलराज, बेंगी का हस्तिवर्मा, पल्लक का उग्रसेन, देवराष्ट्र का कुबेर एवं कोस्थलपुर का धनंजय थे। दक्षिण विजय के फलस्वरूप समुद्रगुप्त की चक्रवर्ती सम्राट बनने की महत्त्वाकांक्षा पूरी हुई। उसके दक्षिण विजय से आतंकित होकर सीमान्त प्रदेश के राजा स्वेच्छा से समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर लेने को तैयार हो गए तथा समय-समय पर सम्राट को उपहार भेंट आदि देना स्वीकार किया। उसकी दिग्विजय उसके महान् सेनानायक होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। उसे 'समरशतावतरणदक्षः ' अर्थात् 'सौ युद्धों का विजेता' कहा गया है। एक शिलालेख में उसे 'अप्रतिवार्यवीर्यः' अर्थात् अजेय वीर कहा गया है। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्याचल तक तथा पूर्व में पूर्वी मालवा से लेकर पश्चिम में बंगाल तक विस्तृत था। उस विशाल साम्राज्य के बाहर भी स्थित अनेक गणराज्य तथा दक्षिण भारत के अनेक राज्य उसके प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत थे। इसके अतिरिक्त पश्चिमोत्तर भारत में स्थित कुछ विदेशी शक्तियों, सिंहलद्वीप तथा कुछ अन्य द्वीपों के शासकों के साथ उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये थे।
समुद्रगुप्त महान् शासक
- समुद्रगुप्त एक महान् विजेता के अतिरिक्त एक महान् शासक भी था। अपने विशाल साम्राज्य में शासन करने के लिए उसने सामन्ती प्रथा का प्रचलन किया। उसने साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों का शासन अपने सामन्तों को सौंप दिया, जो सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। संधिविग्रहिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक आदि विभिन्न बड़े-बड़े पदाधिकारी थे। हरिषेण संधिविग्रहिक या परराष्ट्रमंत्री था। साम्राज्य के उच्च कोटि के पदाधिकारी कुमारामात्य थे। महादण्डनायक सेनापति था जो सेना का संचालन करता था। प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को अनेक भुक्तियों तथा विषयों में विभाजित कर दिया था। भुक्ति का तात्पर्य आधुनिक प्रान्त और विषय का आधुनिक जनपद अथवा जिले से था। अहिच्छत्र, श्रावस्ती, कोशाम्बी, वर्द्धमान आदि उसके शासन काल के भुक्ति थे। पूर्वी मालवा भी उसके साम्राज्य का एक प्रान्त था।
- मुद्रा में सुधार लाकर समुद्रगुप्त ने एक कुशल शासक का परिचय दिया। उसने उत्तरकालीन कुषाणों की निम्न कोटि की स्वर्ण मुद्राओं का परित्याग कर शुद्ध स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन करवाया। उसकी स्वर्ण मुद्राएँ छ: प्रकार (गरुड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, व्याघ्र निहन्ता एवं वीणाधारण) की थीं। इनमें प्रथम तीन प्रकार की मुद्राएँ (गरुड़, धनुर्धर एवं परशु) सम्राट के सैनिक एवं वीर जीवन से सम्बन्धित हैं। गरुड़ मुद्राएँ इसी सम्राट ने प्रचलित की थीं। बयाना-निधि में समुद्रगुप्त की 183 मुद्राएँ मिली हैं जिनमें 136 गरुड़ प्रकार की हैं। इससे प्रतीत होता है कि उस समय गरुड़ मुद्राएँ अधिक लोकप्रिय थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि गरुड़, धनुर्धर एवं परशु मुद्राओं को उसने उस समय प्रचलित किया होगा जब वह अपने प्रतिद्वन्द्वियों तथा शत्रुओं के उन्मूलन में लगा होगा। दिग्विजय होने के उपलक्ष्य में उसने अवश्मेध मुद्राएँ प्रचलित की होंगी। अपने कुल में उसी ने सर्वप्रथम अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था, अतएव उसके उत्तराधिकारियों ने उसे अश्वमेधहर्त्ता की उपाधि प्रदान की थी। व्याघ्र निहन्ता वर्ग की मुद्राएँ उसके सर्वाटविकराज विजय तथा दक्षिणापथ-नरेश व्याघ्रराज विजय से सम्बन्धित लगती हैं। सम्भवतः यह उसकी व्यक्तिगत अभिरुचि (आखेट प्रेम) का भी परिचायक है। वीणाधारण (गान्धर्व ललित) भाँति की मुद्राएँ समुद्रगुप्त के कला प्रेम पर प्रकाश डालती हैं। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार वह संगीत शास्त्र का मर्मज्ञ था। समुद्रगुप्त की व्यक्तिगत अभिरुचि, सांस्कृतिक उपलब्धियाँ साम्राज्य-सीमा, धार्मिक एवं आर्थिक दशाओं के परिज्ञान की दिशा में उसकी मुद्राएँ काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं। आजकल उसकी अधिकांश मुद्राएँ ब्रिटिश संग्रहालय, लखनऊ- संग्रहालय, बयाना-निधि, भारतीय संग्रहालय, ऑक्सफोर्ड संग्रहालय आदि स्थानों में सुरक्षित हैं।
समुद्रगुप्त महान् राजनीतिज्ञ
- समुद्रगुप्त एक महान् राजनीतिज्ञ भी था। डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त के शब्दों में, “ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त एक शक्तिशाली तथा दृढ़ संकल्प शासक था और उसमें एक राजनीतिज्ञ के महान् गुण विद्यमान थे। " प्रयाग स्तम्भलेख से हमें पता चलता है कि समुद्रगुप्त में सम्पूर्ण भारत को एकराष्ट्र बनाने की आकांक्षा थी। किन्तु, एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ के रूप में उसने अनुभव किया कि आवागमन की कठिनाइयों के कारण यह कठिन है। अतएव उसने केवल उत्तर भारत के ही कुछ प्रदेशों को अपने साम्राज्य में शामिल कर एक सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की स्थापना की। एक चतुर तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ की भाँति उसने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने आटविक-नरेशों को अपना सेवक बनाया। सीमान्त प्रान्तों में उसे कर देकर उसकी आज्ञा मानकर तथा अभिवादन कर उसकी सत्ता स्वीकार की जाती थी। इन सीमान्त प्रान्तों के साथ उसका बड़ा आदर तथा दयापूर्ण व्यवहार रहता था। उसने विजित राजाओं को पदच्युत नहीं किया, वरन् उनका राज्य तथा उनका धन लौटा दिया। इससे वे सम्राट के परम भक्त बन गए। इससे गुप्त साम्राज्य को स्थायित्व प्राप्त हुआ। यह समुद्रगुप्त के एक महान् राजनीतिज्ञ होने के दावे की पुष्टि करता है।
साहित्य कला का पोषक
- डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के शब्दों में “समुद्रगुप्त अद्भुत प्रतिभा का व्यक्ति था। वह न केवल शस्त्रों में वरन् शास्त्रों में भी कुशल था। वह स्वयं ही सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगति बड़ी प्रिय थी। "2 उसके मंत्री हरिषेण ने प्रयाग-प्रशस्ति में लिखा है, "संगीत, कला में उसने नारद तथा तुम्बुरु को भी लज्जित कर दिया था। अनेक काव्यों को लिखकर उसने कविराज की उपाधि प्राप्त की थी।" इससे पता चलता है कि उसने सरस्वती और लक्ष्मी के विरोध को मिटा दिया था। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। बौद्ध विद्वान् वसुबंधु, कवि हरिषेण आदि उसके दरबार में थे। समुद्रगुप्त कलाप्रेमी भी था। नारद साथ उसकी तुलना उससे वीणा वादन का मर्मज्ञ प्रमाणित करती है। वह अपने एक सिक्के पर वीणा बजाता हुआ अंकित किया गया है। इससे उसके संगीत प्रेमी होने का परिचय मिलता है।
उदार शासक-
- समुद्रगुप्त एक उदार शासक था, वह दानी तथा कोमल प्रकृति (मृदुहृदस्य) का था। विद्वानों और ब्राह्मणों को पुरस्कृत करने में वह थकता नहीं था। गुप्तवंशीय अभिलेखों में उसे कोटि, गौओं एवं सुवर्ण मुद्राओं का प्रदाता (अनेक-गो-हिरण्य-कोटि प्रदस्य) कहा गया है। वह सज्जनों का उद्धारक तथा दुष्टों का संहारक (साद्धवसाधूदय-प्रलय-हेतु पुरुषस्य) कहा गया है। वह असहाय, दीन, अनाथ तथा रोगी व्यक्तियों के लिए अवलम्ब था। फाहियान के यात्रा वृतान्त से ज्ञात होता है कि दीन-हीन, अपंग- अकिंचन एवं विधवाओं की निःशुल्क चिकित्सा की जाती थी तथा उन्हें भोजन वस्त्र मिल जाता था। इससे समुद्रगुप्त के प्रजावत्सल सम्राट होने का परिचय मिलता है।
धर्म सहिष्णु
- समुद्रगुप्त धर्मपरायण सम्राट था। प्रयाग-प्रशस्ति में उसे धर्म की चहारदवारी (धर्म प्राचीरबन्धः) कहा गया है। अपने व्यक्तिगत जीवन में वह वैष्णव था। उसकी राजाज्ञाएँ गरुड़ मुद्रा में अंकित (गरुत्मदंक) हुआ करती थीं। उसके सिक्कों पर गरुड़ध्वज एवं वैष्णवधर्म के प्रतीक अंकित हैं। किन्तु वह अन्य धर्मों (जैन, बौद्ध) के प्रति सहिष्णु था। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबंधु उसके दरबार में था। हेमचन्द्र रायचौधरी का मत है कि वह अपनी दयालुता एवं सहृदयता के कारण कभी-कभी अशोक का स्मरण दिलाता है। श्रीलंका के शासक मेघवर्ण ने बोधगया में एक बौद्ध मंदिर के निर्माण की अनुमति प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त के पास एक दूत भेजा था। समुद्रगुप्त ने बौद्ध मंदिर निर्माण की अनुमति दे दी। कालान्तर में यह मंदिर एक विशाल बौद्ध मठ के रूप में विकसित हुआ।
भारत का नेपोलियन
- चूंकि समुद्रगुप्त वीर, साहसी तथा पराक्रमी योद्धा था। अतः स्मिथ ने उसे 'भारत का नेपोलियन' कहा है। उनके ही शब्दों में “वह वास्तव में विलक्षण प्रतिभा का व्यक्ति था और वह भारत नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है। जिस प्रकार फ्रांस का सम्राट नेपोलियन एक महान् योद्धा तथा विजेता था और अपने बाहुबल तथा रणकौशल से सम्पूर्ण यूरोप को आतंकित कर दिया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने अलौकिक पराक्रम से न केवल समस्त भारत को बल्कि सीमान्त एवं विदेशी राज्यों को भी नतमस्तक कर दिया। नेपोलियन के विषय में कहा जाता है कि वह चालीस युद्धों का विजेता था, किन्तु समुद्रगुप्त को समरशत (सौ युद्धों) का विजेता कहा गया है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि समुद्रगुप्त की तुलना नेपोलियन से केवल इसलिए की जाती है कि वह नेपोलियन की भाँति एक महान् विजेता था। नेपोलियन की तरह घृणा, उसका धर्म, प्रतिशोध, उसका कर्त्तव्य और क्षमादान कलंक नहीं था। इस दृष्टि से समुद्रगुप्त के समक्ष नेपोलियन का व्यक्तित्व मन्द पड़ जाता है। उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि समुद्रगुप्त गुप्त वंश का पराक्रमी दिग्विजयी सम्राट के अतिरिक्त कुशल शासक, प्रवीण, राजनीतिज्ञ, धर्म सहिष्णु एवं साहित्य कला का पोषक था।
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चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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