समुद्रगुप्त की विजय और साम्राज्य का संगठन |समुद्रगुप्त का सिंहासनारोहण |Samudra Gupta GK in Hindi

 समुद्रगुप्त की विजय और साम्राज्य का संगठन 

समुद्रगुप्त की विजय और साम्राज्य का संगठन |समुद्रगुप्त का सिंहासनारोहण |Samudra Gupta GK in Hindi


समुद्रगुप्त सिंहासनारोहणविजय और साम्राज्य का संगठन (Samudragupta: Crowned, Victory and Organization of Kingdom)

 

समुद्रगुप्त के बारे में जानकारी के साधन-

  • समुद्रगुप्त की विजयोंराज्य विस्तार तथा चरित्र के सम्बन्ध में हमें जानकारी के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। उसके दो शिलालेखों तथा दो ताम्रलेखों का विशेष महत्त्व है। सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैइलाहाबाद के अशोक के स्तम्भ पर समुद्रगुप्त का उत्कीर्ण लेख इसमें उस समय की देश की राजनीतिक दशा तथा समुद्रगुप्त की सफलताओं और व्यक्तित्व का विस्तृत वर्णन है। यह एक प्रशस्ति है जिसकी रचना सम्राट के उच्च पदाधिकारी हरिषेण ने की थी। इसके अतिरिक्त एरण अभिलेखरघुवंश आर्यम श्रीमूलकल्प तथा मुद्राओं इत्यादि से भी इन पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। पर इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयाग प्रशस्ति ही है।

 

समुद्रगुप्त का सिंहासनारोहण

  • इलाहाबाद के लेख से प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त अपने पिता का सबसे बड़ा पुत्र न थाकिन्तु उसके चरित्र बल तथा योग्यता के कारण चन्द्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना। दरबार के सामने राजा ने नेत्रों में आँसू भरकर अपने पुत्र से कहा, "तुम योग्य होइस सारी पृथ्वी पर शासन करो।" कवि लिखता है कि इस घोषणा से दरबारियों को बहुत प्रसन्नता हुईकिन्तु अन्य लोगों को जो समुद्रगुप्त के प्रतिद्वन्द्वी थे और स्वयं सिंहासन प्राप्त करने के इच्छुक थेबहुत डाह हुआ। कुछ विद्वानों का मत है कि चन्द्रगुप्त ने अपने अन्तिम दिनों में राज्य त्याग दिया था और अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को सिंहासन पर बिठा दिया था। अन्य विद्वानों के मतानुसार समुद्रगुप्त पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा।

 

  • विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि समुद्रगुप्त के भाइयों ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया और सबसे बड़े भाई काच को सिंहासन पर बिठा दिया। काच नाम के राजा के कुछ सिक्के मिले हैं जो समुद्रगुप्त के सिक्कों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। किन्तु एलन तथा अन्य विद्वानों का मत है कि काच सम्राट का ही मूल नाम थाबाद में अपनी विजयों के उपलक्ष्य में उसने समुद्रगुप्त नाम धारण किया। "

 

  • इस बात का भी अनुमान लगाया गया है कि समुद्रगुप्त के सिंहासन पर बैठने के समय राज्य में कुछ गड़बड़ी फै गयी थी। पड़ोस के राजाओं ने उसके उत्तराधिकार को स्वीकार नहीं किया और अनेक राजाओं ने मिलकर उस पर आक्रमण भी कियाकिन्तु समुद्रगुप्त सब आपत्तियों पर विजयी हुआ और शीघ्र ही उसने अपनी स्थिति को दृढ़ कर लिया।

 

  • जहाँ तक समुद्रगुप्त के राज्यारोहण का प्रश्न है इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ लेखकों के अनुसार वह 340 तथा 350 ई. के बीच किसी समय सिंहासन पर बैठा। अन्य विद्वान उसके सिंहासनारोहण की तिथि 325 और 335 ई. के बीच मानते हैं। सम्भवतः वह चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् 328 ई. या 330 ई. में गद्दी पर बैठा और 380 ई. के लगभग तक शासक बना रहा।

 समुद्रगुप्त की विजय का वर्णन
समुद्रगुप्त की विजयें

  • जिस समय महान् शासक समुद्रगुप्तजिसे विद्वानों ने 'भारतीय नेपोलियनकी उपाधि से विभूषित किया हैगद्दी पर बैठा उस समय भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यन्त ही डावांडोल थी। नाग तथा वाकाटक राजाओं के दबाव के कारण गंगा यमुना दोआब में महान कुषाणों की शक्ति नष्ट हो चुकी थीकिन्तु पश्चिमी पंजाब तथा सीमान्त प्रदेश अब भी उनके अधिकार में थे। इस क्षेत्र में (पूर्वी एवं दक्षिणी पंजाब) भी अन्य कई स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हो चुकी थी। लगभग यही अवस्था मध्य भारत में भी थीं। बुन्देलखंड तथा विन्ध्य के दुर्गम प्रदेशों में स्वतन्त्र जातियों का निवास था जो स्थानीय सामन्तों के अधिकार में थीं। देश के अन्य भागों में भी स्वतंत्र शासक थे। इस प्रकार देश विभिन्न राजनीतिक इकाइयों में विभक्त था। 


  • देश में किसी केन्द्रीय शक्ति का सर्वथा अभाव था। इस समय की राजनीतिक अवस्था बहुत कुछ मौर्य साम्राज्य के पतन के समय की अवस्था के समान थी। एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट होने के कारण समुद्रगुप्त इस अवस्था को समाप्त कर एक सुसंगठित साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। इसके लिए उसने दिग्विजय की नीति अपनाई। प्रयाग प्रशस्ति से इस पर प्रकाश पड़ता है। 

 समुद्रगुप्त का विजय अभियान 

समुद्रगुप्त की विजयों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

 

(1) आर्यावर्त (उत्तरी भारत) (2) आटविक राज्य (3) दक्षिण भारत के राज्य (4) सीमान्त राज्य एवं (5) गणराज्य |

 

(1) आर्यावर्त की विजय 

  • प्राचीन काल में विन्ध्यपर्वत तथा हिमालय के बीच का प्रदेश 'आर्यावर्तके नाम से विख्यात था। इन्हें उत्तरी भारत के राज्य भी कहा जाता है। आर्यावर्त की विजय के सिलसिले में समुद्रगुप्त ने नौ प्रमुख राज्यों को पराजित कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार उसने उत्तरी भारत में एकछत्र राज्य की स्थापना की। प्रयाग प्रशस्ति में 'आर्यावर्तके इन राजाओं के नामों का तो उल्लेख है पर इनके राज्य की सीमा नहीं बतलाई गयी है। इन राजाओं के नाम थे रुद्रदेवमतिलनागदत्तचन्द्रवर्मनगणपतिनागनागसेनअच्युतनन्दि एवं बलवर्मा।

 

  • इन नौ राजाओं की पहचान विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से की है। रैप्सन महोदय का विचार है कि ये राजा विष्णुपुराण में वर्णित नव नाग नरेश हैं। इन नागवंशी नरेशों ने एक सम्मिलित राज्य स्थापित किया था जिन्हें समुद्रगुप्त ने पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया था। परन्तु इस मत को समर्थन प्राप्त नहीं है। सच तो यह है कि ये शासक विभिन्न स्थानों पर राज्य करते थे। इतिहासकार जायसवाल तथा दीक्षित महोदय रुद्रदेव को वाकाटक नरेश रुद्रसेन प्रथम मानते हैं यद्यपि बहुत से विद्वान उस समीकरण से संतुष्ट नहीं हैं। मतिल के विषय में अभी तक कोई मत निश्चित नहीं हो सका है। इतिहासकार इसे उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर के समीप का शासनकर्ता मानते हैंजहाँ पर इसकी नामांकित मुहर मिली है। एलन इस मत से सहमत नहीं हैं। साथ ही काशी प्रसाद जायसवाल इसे अन्तरदेवी में शासन करने वाला नागवंशी शासक मानते हैं। नागदत्त की बहुत सी मुद्राएँ मथुरा के निकट प्राप्त हुई हैं। इस आधार पर विद्वान 'नागदत्तको मथुरा के निकटवर्ती प्रदेश का शासक मानते हैंपरन्तु डॉ. जायसवाल इसे भी नाग-राजा ही मानते हैं। चन्द्रवर्मन की पहचान भी अनिश्चित है। सूसूनिया (बांगलादेशबांकुड़ा) से प्राप्त शिलालेख में इसे 'पुष्करणका शासक बतलाया गया है। इस पुष्करण को हरप्रसाद शास्त्री मारवाड़ का पोकरण तथा चन्द्रवर्मन को मारवाड़ का शासक बतलाते हैं। परन्तु डॉ. भण्डारकर एवं डॉ. चटर्जी इसे स्वीकार नहीं करते हैं। जायसवाल तो इसे पूर्वी पंजाब का शासक मानते हैं। इस प्रकार इस राजा के विषय में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। गणपति नाग नागवंशी राजा था। यह नागों की राजधानी पद्मावती (ग्वालियर के निकट पद्म पवाया) का शासक था। डॉ. भण्डारकर के अनुसार सम्भवतः यह नागों की विदिशा शाखा पर शासन करता था जिसका उल्लेख विष्णुपुराण में किया गया है।

 

  • इस राजा के सिक्के मारवाड़ तथा बेसनगर के समीप प्राप्त हुए हैं। नागसेन भी नागवंशी राजा था। वह नागों की दूसरी शाखा का राजा था और सम्भवतः मथुरा का शासक था। कुछ विद्वान इसे हर्षचरित में वर्णित नागसेन भी मानते हैं जो उचित नहीं है। अच्युत के समीकरण में भी बहुत मतभेद है। जायसवाल अच्युत तथा नन्दि को एक मानते हैं तथा उसे अहिच्छत्रा (बरेलीउ. प्र.) का शासक स्वीकार करते हैं। अन्य विद्वानों की धारणा है कि अच्युत भी कोई नागवंशी शासक ही था और वह अहिच्छत्रा का शासक था। नन्दि भी नाग राजा ही था। इसके राज्य की सीमा निश्चित नहीं है। बलवर्मा प्रयाग प्रशस्ति की 'आर्यावर्तसूची का अंतिम शासक है। इसके सम्बन्ध में विद्वानों की कोई निश्चित धारणा नहीं है। कुछ विद्वान् इसे हर्षवर्द्धन के समकालीन आसाम के राजा प्रभाकरवर्मन् का पूर्वज मानते हैं जो युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। इन सभी राजाओं को पराजित कर समुद्रगुप्त ने इन पर अपना अधिकार कायम कर लिया तथा अपने साम्राज्य की सीमा काफी विस्तृत कर ली।

 

( 2 ) आटविक राज्य 

  • उत्तरी भारत के शासकों को पराजित करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अपना ध्यान दक्षिण भारतीय राज्यों की तरफ दिया। परन्तु दक्षिण विजय के पूर्व उसे आटविक नरेशों को पराजित करना आवश्यक हो गया। कारण दक्षिण जाने के लिए मध्य भारत के विस्तृत घने जंगलों से ही उसे गुजरना पड़ता प्रयाग-प्रशस्ति में कहा गया है, 'परिचारिकीकृत सर्वाटविकराजस्य'। उसने आटविक राजाओं को जीता तथा उन्हें अपना सेवक बनाया। एरण की प्रशस्ति से भी इस बात की पुष्टि होती है। फ्लीट के अनुसार आटविक नरेश गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। परिव्राजक वंश के एक राजा के एक शिलालेख से पता चलता है कि आटविक-राज्यों की संख्या 18 थी। इस क्षेत्र को महाकान्तार भी कहा गया हैजिसे डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी मध्य भारत का जंगल मानते हैं और रायदास जी जबलपुर से छोटानागपुर तक झारखण्ड का क्षेत्र इन राजाओं को परास्त करने के बाद ही वह दक्षिणापथ की ओर बढ़ा।

 

( 3 ) दक्षिण भारत की विजय 

  • मध्य भारत को पारकर समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ पर आक्रमण किया तथा वहाँ के राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया। प्रयाग प्रशस्ति में इन शासकों का उल्लेख कया गया है। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार इन दक्षिणी नरेशों ने संयुक्त होकर कोलेरू तालाब के किनारे समुद्रगुप्त का मार्ग रोककर उसके साथ युद्ध किया। इन राजाओं का नेतृत्व मन्तराज तथा विष्णुगोप कर रहे थे। यह युद्ध 345-46 ई. के लगभग हुआ था। परन्तु अनेक अन्य विद्वानों की धारणा है कि दक्षिणी नरेशों के साथ अलग-अलग स्थानों पर युद्ध हुए। इस युद्ध में दक्षिण के राजा पराजित हुए तथा उन लोगों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। 


दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली 

  • दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली इस प्रकार है कोशल का महेन्द्र (महाकोशलविलासपुररायपुर और सम्बलपुर के जिले) इस कोशल को दक्षिण कोशल कहते हैं जिसकी राजधानी श्रीपुर ( रायपुर ) थी।

 

महाकान्तार व्याघ्रराज-

  • व्याघ्रराज महाकान्तार का शासक था। महाकान्तार विस्तीर्ण जंगलों के लिए प्रयुक्त होता है। केरल का मन्तराज (कोशल का मन्तराज) दक्षिण भारत का कोराड़ अथवा सोनपुर का प्रदेश जिसकी राजधानी महानदी के तौर पर ययातिनगरी थी। कोलहर्ण के अनुसार यह प्रदेश गोदावरी तथा कृष्णा के बीच कोलेरुकासार था। सम्भवतः यह प्रान्त उड़ीसा तथा मद्रास के बीच था।

 

पैष्टपुरक-महेन्द्रागिरि-कौटुर का स्वामिदत्त

  • पिष्टपुरमहेन्द्रगिरि और कौटुर का शासक स्वामिदत्त था। पिष्टपुर को कुछ लोग कलिंग प्रदेश का प्रधान नगर मानते हैं। महेन्द्रगिरि तथा कोट्टुर गंजाम जिले में हैं। 


एरण्डपल्ल का दमन- 

  • यह स्थान गंजाम जिले में चिकाकोल के समीप एरण्डपल्ली में है। दमन के सम्बन्ध में कुछ जानकारी नहीं है। 

 

कांचेय का विष्णुगोप-विष्णुगोप कांची का शासक था। मद्रास के निकट कांजीवरम् ही कांची है।

 

आवमुक्त का नीलराज-इसकी राजधानी गोदावरी के निकट पिथुंडा थी। 


बैंगेय का हस्तिवर्म-हस्तिवर्म बेंगी का राजा था। यह स्थान सम्भवतः एलेर में पेडवेगी से मिलता है। 


पल्लक का उग्रसेन- -राजा उग्रसेन पल्लक का शासक था। यह स्थान नेलोर जिले में है। कुछ लोग इसे कृष्णा जिले में मानते हैं।

 

दैवराष्ट्र का कुबेर -राजा कुबेर दैवराष्ट्र स्थान का था। यह स्थान विजगापट्टम् जिले का एलमंचि है। यह आन्ध्रप्रदेश में था।

कोस्थलपुर का धनंजय- कोस्थलपुर का शासक धनंजय था। यह स्थान उत्तर आरकट का कुट्टलुर है। 

(4) सीमान्त राज्य

  • दक्षिण भारतीय नरेशों को पराजित करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने सीमान्त शासकों (प्रत्यम नृपतियों) को अपने अधीन किया। ऐसे राजाओं की दो श्रेणियों का उल्लेख इलाहाबाद अभिलेख में किया गया है। इनमें से पाँच विभिन्न प्रदेशों के शासक थे जिनके लिए 'नृपति' (राजा) शब्द का व्यवहार किया गया है। इसके अतिरिक्त नौ अन्य राज्यों का भी नाम मिलता है जो गणराज्य थे। इस अभियान के अन्तर्गत समुद्रगुप्त ने उत्तर और पूरब के राजाओं तथा पश्चिम में नौ गणराज्यों को पराजित कर अपने अधीन किया। इन सीमांत शासकों के नामों का उल्लेख तो प्रशस्ति में नहीं किया गया है परन्तु इनके राज्यों के नामों का जिक्र अवश्य मिलता है।

 

ऐसे राजतंत्रात्मक राज्यों में (i) समतट (ii) दवाक (iii) कामरूप (iv) नेपाल (v) कर्तृपुर के राज्य थे। 

  • समतट पूर्वी बंगाल का (बंगला देश) समुद्री तट का प्रदेश था। यह गंगा तथा ब्रह्मपुत्र के मध्य में स्थित था। इसकी राजधानी कर्मान्त थी। 


  • दवाक में बोगरा, दीनाजपुर तथा राजशाही (थंगलादेश) जिले सम्मिलित थे। 


  • कामरूप (आसाम) प्राग्ज्योतिषपुर के राज्य का एक भाग था। 


  • नेपाल का तत्कालीन शासक संभवत: जयदेव प्रथम था। यद्यपि इसके नाम का उल्लेख अभिलेख में नहीं हुआ है परन्तु इसी समय से नेपाल में गुप्त संवत का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। 


  • र्तृपुर आधुनिक कर्तारपुर है जो जालंधर के पास है। इस राज्य में संभवतः कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखंड के प्रदेश शामिल थे। इन राज्यों की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त पश्चिम की तरफ मुड़ गया एवं गणराज्यों को अपना अधीनस्थ बनाया। 


(5) गणराज्य

भारत के पश्चिमी क्षेत्रों में अति प्राचीन काल से ही विभिन्न गणों (संघों) का प्रभुत्व था। राजनीतिक अराजकता का लाभ उठाकर ये गणराज्य काफी शक्तिशाली बन गए थे। मौर्यों एवं कुषाणों ने भी इनकी तरफ पूरा ध्यान नहीं दिया था; परन्तु समुद्रगुप्त ने इनको हमेशा के लिए समाप्त करने का निश्चय किया। इन राज्यों की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गयी। 

यद्यपि वे पूर्ववत् शासन करते रहे परन्तु वे समुद्रगुप्त के अधीनस्थ राज्य बन गए। ये गणराज्य निम्न थे-

(1) मालव गणराज्य, इसमें अजमेर से चित्तौड़ तक प्रदेश था। 

(2) अर्जुनायन, यह अलवर तथा भरतपुर जिले का क्षेत्र था। 

(3) यौधेय गणराज्य, यह यमुना तथा सतलज नदी के बीच के प्रदेश में था। 

(4) मद्रक रावी और चिनाव के बीच का क्षेत्र 

(5) आमीट गणराज्य, यह सौराष्ट्र तथा मध्य भारत क्षेत्र के पर्वतीय और बेतवा नदी के बीच का प्रदेश था 

(6) अर्जुन-गणराज्य, यह मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के समीप था। 

(7) खरपरिक गणराज्य यह मध्य प्रदेश के दमोह जिले के क्षेत्र में था। 

(8) सनकानिक और 

(9) काक गणराज्य विदिशा के समीपवर्ती क्षेत्र में स्थित था।

 

  • इस प्रकार अपने विजय अभियानों से समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य की सीमाओं का सम्पूर्ण भारत में व्यापक विस्तार किया। किन्तु उसमें दिग्विजय की नीति का पालन करते हुए केवल आर्यावर्त के शासकों को छोड़कर अन्य शासकों को अपने-अपने राज्यों में स्वतंत्र रूप से शासन करने के लिए छोड़ दिया। उन्होंने केवल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर देकर तथा अन्य सेवाओं के द्वारा संतुष्ट रखा।

 

विदेशी राज्यों से सम्बन्ध अथवा पर राष्ट्रनीति

समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाओं से परे भारत के भीतर और बाहर विदेशी राज्य थे; जैसे, सिंहल और समुद्र पार के द्वीप, जिनके साथ वह समुचित सम्बन्ध रखना चाहता था, जिससे शान्ति स्थापित करने में सहायता मिल सके। उसने उन लोगों के साथ निम्नलिखित शर्तों पर 'सेवा और सहयोग की सन्धियाँ' कीं-

 

- आत्मनिवेदन (मैत्री का प्रस्ताव), 

- कन्योपायन (राजमहल में सेवा के लिए कन्याओं का उपहार).

- दान (स्थानीय वस्तुओं की भेंट),

- उनकी स्वायत्तता और सुरक्षा (स्वविषयभुक्ति) को प्रमाणित करने वाली मुद्रांकित सनदों का याचन (गरुत्मदंकस्वविषयभुक्तिशासनयाचन। 

ये विदेशी राज्य इस प्रकार वर्णित किये गये हैं- 

(1) दैवपुत्रशाही शाहानुशाही' ये लोग उत्तर पश्चिमी में शासन करने वाले कुषाण थे

(2) शक- जो उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी भारत में विद्यमान् थे

(3) मुरुण्ड एक कुषाण जाति का नाम था।

सिंहल और हिन्दमहासागर के छोटे-छोटे द्वीपों में वह शक्ति नहीं थी कि वे समुद्रगुप्त का सामना करते। प्रयाग-प्रशस्ति में सर्वद्वीपवासिन् शब्द का भी व्यवहार हुआ है। दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीप समूहों में बसे भारतवासियों का भारत से अभी तक गहरा सम्बन्ध रहा होगा। सिंहल के राजा मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त की राजसभा में उपहार सहित एक दूतमण्डल भेजकर बोधगया में यात्रियों के ठहरने के लिए एक मंदिर बनवाने की अनुमति माँगी थी और समुद्रगुप्त ने इसे मंजूर भी किया था। फाहियान को जावा में एक सम्पन्न हिन्दू उपनिवेश देखने को मिला था। जाबानी तान्त्रिका मण्डक के आधार पर यह ज्ञात होता है कि वहाँ का इक्ष्वाकुवंश का महाराज ऐश्वर्यपाल अपने को समुद्रगुप्त का वंशज मानता था। इन सब कारणों से समुद्रगुप्त को एक शक्तिशाली नौसेना रखने का श्रेय होना चाहिए, जिससे वह समुद्र पार के देशों और द्वीपों के साथ अपना सम्बन्ध निबाह सका। उसके काल में बृहत्तर भारत का श्रीगणेश हुआ।

 

समुद्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार 

  • डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त के साम्राज्य में "कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध और गुजरात के अतिरिक्त शेष सारा भारत सम्मिलित था और छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा के प्रदेश व पूर्वी तट के साथ-साथ दक्षिण में विंगनपट तक या उससे भी आगे तक के प्रदेश साम्राज्य में सम्मिलित थे।" डॉ. आर. के. मुखर्जी के अनुसार, समुद्रगुप्त ने अपना साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक दक्षिण में नर्मदा तक और उत्तर में हिमालय तथा कश्मीर तक बढ़ाया। डॉ. वी. ए. स्मिथ के अनुसार चौथी शताब्दी के मध्य में उत्तरी भारत के सर्वाधिक जनसंख्या वाले तथा उपजाऊ प्रदेश समुद्रगुप्त के साम्राज्य में सम्मिलित थे। पूर्व में ब्रह्मपुत्र से पश्चिम में यमुना व चम्बल तक तथा उत्तर में हिमालय के आधार से दक्षिण में नर्मदा तक यह साम्राज्य फैला हुआ था। इन विस्तृत सीमाओं से आगे आसाम तथा गंगा के डेल्टा के सीमावर्ती राज्य और हिमालय की दक्षिणी ढलानों के राज्य तथा राजपूताना और मालवा की स्वतंत्र जातियाँ साम्राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण सन्धियों से सम्बन्धित थीं और दक्षिण के लगभग सभी राज्यों पर सम्राट की सेनाओं ने विजय प्राप्त की थी और उन्होंने उसकी अरोध्य शक्ति को स्वीकार किया। इस प्रकार यह साम्राज्य छः शताब्दियाँ पूर्व के अशोक के साम्राज्य के पश्चात् भारत में सबसे बड़ा था और स्वाभाविक था कि विदेशी राज्य भी उस साम्राज्य के स्वामी का सम्मान करें। "

 
 समुद्रगुप्त के साम्राज्य का संगठन

  • समुद्रगुप्त केवल महान विजेता ही न था। जिस प्रकार उसने विजित देशों को संगठित किया, उससे उसकी उच्च कोटि की राजनीतिज्ञता प्रकट होती है। वह महत्त्वाकांक्षी था और एक सार्वदेशिक साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। किन्तु उसने समस्त साम्राज्य पर एक केन्द्र से शासन करने का प्रयत्न नहीं किया। उसने केन्द्रीय प्रभुत्व तथा स्थानीय स्वायत्तता के सिद्धान्तों का अच्छा समन्वय किया। उसने विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों को रोकने तथा साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाने के लिए दृढ़ केन्द्रीय सत्ता की स्थापना की, किन्तु साथ ही साथ उसने दूरस्थ प्रदेशों के शासकों को केवल करद बनाकर छोड़ दिया। पड़ोस के विदेशी शासकों के साथ भी उसने इसी प्रकार का मैत्री सम्बन्ध रखा साम्राज्य की प्रतिरक्षा की दृष्टि से यह नीति अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण थी।

 

 समुद्रगुप्त का अश्वमेध-

  • उसके समय उसके समान प्रतापी नरेश और कोई नहीं था। महान् विजय रूपी यज्ञ की पूर्णाहुति स्वरूप अब समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध का अनुष्ठान सार्वभौम प्रभुता का सूचक था। इस यज्ञ में दान के लिए उसने सोने के सिक्के भी ढलवाये। उन सिक्कों पर एक ओर यज्ञस्तम्भ (यूप) में बँधे हुए घोड़े की मूर्ति है, दूसरी ओर हाथ में चँवर लिए समुद्रगुप्त की महारानी का चित्र अंकित है और उन सिक्कों पर अश्वमेध पराक्रम लिखा हुआ है। समुद्रगुप्त के लिए उसके वंशजों ने 'चिरोत्सन्नाश्वमेधाहर्तुः' कहा है, जिससे स्पष्ट है कि चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञ का उसने फिर से अनुष्ठान किया। इसका अनुष्ठान उसने सामरिक योजनाओं के पश्चात् किया होगा, क्योंकि प्रयाग-प्रशस्ति में इसका उल्लेख नहीं प्रभावतीगुप्त के पूना प्लेट अभिलेख से मालूम होता है कि उसने एक से अधिक अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया। इसके धर्म से अनुप्रमाणित प्राचीन राजनीतिक आदर्शों के पुनरुत्थान की सूचना मिलती है। यह भारत की राजनीतिक एकता का भी द्योतक था।


समुद्रगुप्त के समय की मुद्राएँ 

  • उसने विभिन्न प्रकार की मुद्राएं जारी कीं, जिनसे उसके गुण और कर्म प्रकट होते हैं। ध्वज-प्रकार की मुद्राओं से उसकी प्रभुशक्ति प्रकट होती है; धनुर्धर और युद्ध परशु के प्रकारों से उसकी सामरिक शक्ति का आभास मिलता है; वीणावादक प्रकार से उसके संगीत प्रेम और अश्वमेध प्रकार से उसकी विजय का परिचय प्राप्त होता है। 


  • वह 'अप्रतिवार्यवीर्यः' अर्थात् अजेय शक्ति रखने वाला था। व्याघ्रहन्ता प्रकार की मुद्राओं से वन भूमियों पर उसकी विजय परिलक्षित होती है। उसकी मुद्राओं पर राजा की वेशभूषा, दुर्गा, लक्ष्मी, कार्तिकेय आदि भारतीय देवी-देवताओं की आकृतियाँ, व्याघ्र सिंह, गेंडा, हाथी आदि भारतीय पशुओं के चित्र तथा गरुड़ध्वज का अंकन मिलता है। कुषाण मुद्राओं का प्रभाव उसके सिक्कों पर देखा जाता है। 


  • मुद्राओं में उसे अप्रतिवार्यवीर्य, अजितराजजेताजितः (अजित राजाओं पर विजय प्राप्त करने वाला), व्याघ्रपराक्रमः (व्याघ्र के समान भयंकर) धरणीबन्धस्य ( देश का एकीकरण करने वाला), मृदुहृदयः (कोमल हृदय वाला) अनुकंचा, लोकानुग्रह, विग्रहवान, अमनुज और कविराज भी कहा गया है। 


समुद्रगुप्त के सिक्कों को छ: प्रकारों में बाँटा जा सकता है-

(i) गरुड़ध्वजांकित सम्राट के बाँये हाथ के नीचे समुद्र या समुद्रगुप्त अंकित है और पास में पराक्रमः लिखा हुआ है। 

(ii) दूसरे प्रकार के सिक्कों में अप्रतिरथो विजित्य क्षितिसुचरितैः दिवे जयति लिखा हुआ है।

(iii) तीसरे प्रकार के सिक्कों में चारों ओर गोलाई में कृतान्तपरशुर्जयत्याजतराजजेताजितः लिखा हुआ है। 

(iv) चौथे प्रकार के सिक्कों में व्याघ्रपराक्रम और राजा समुद्रगुप्त लिखा हुआ है। 

(v) पाँचवें प्रकार के सिक्कों में संगीतप्रेमी सम्राट का चित्र है।

(vi) छठे प्रकार के सिक्कों में राजाधिराजः पृथ्वी विजित्वा दिवं जयत्याहतवाजिमेधः लिखा हुआ है और दूसरी ओर अश्वमेध - पराक्रमे। उसके सोने के सिक्कों की तौल 118-122 ग्रेन है। उसके दो ताँबे के सिक्के भी मिले हैं जिन पर गरुड़ का चित्र है।


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