सनातन धर्म क्या है |सगुण मार्गी भक्ति |निर्गुण मार्गी भक्ति | Sanatan Dharm Kya Hai
सनातन धर्म क्या है |सगुण मार्गी भक्ति |निर्गुण मार्गी भक्ति
सनातन धर्म क्या है ? सनातन का अर्थ क्या है Sanatan Dharm Kya Hai
- भारत का सर्वप्रमुख धर्म हिन्दू धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण सनातन धर्म भी कहा जाता है।
- ईसाई, इस्लाम बौद्व जैन आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी पैगम्बर या व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है।
- एक विकासशीन धर्म होने के कारण विभिन्न कालों में इसमें नये-नये आयाम जुड़ते गये। वास्तव में हिन्दू धर्म इतने विशाल परिदृश्य वाला धर्म है कि उसमें आदिम ग्रामदेवताओं, स्थानीय देवी-देवताओं से लेकर त्रि-देव एवं अन्य देवताओं तथा निराकार ब्रह्म और अत्यंत गूढ़ दर्शन तक सभी बिना किसी अन्तर्विरोध के समाहित हैं और स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार सभी की आराधना होती है।
- वास्तव में हिन्दू धर्म लघु एवं महान परम्पराओं का उत्तम समन्वय दर्शाता है। एक ओर इसमें वैदिक तत्व तथा पुराणकालीन देवी देवताओं की पूजा अर्चना होती है तो दूसरी ओर कापालिक और अवधूतों द्वारा भी अत्यन्त भयावह कर्मकंडीय आराधना की जाती है।
- एक ओर भक्ति रस से सराबोर भक्त हैं, तो दूसरी ओर अनीश्वर, अनात्मवादी और यहां तक कि नास्तिक भी दिखाई पड़ जाते हैं।
- हिन्दू धर्म सर्वथा विरोधी सिद्धान्तों का भी उत्तम एवं सहज समन्वय है। यह हिन्दू धर्मावलम्बियों की उदारता सर्वधर्मसम्भाव, समन्वयशीलता तथा धार्मिक सहिष्णुता की श्रेष्ठ भावना का ही परिणाम और परिचायक है।
- हिन्दू धर्म की परम्पराओं का मूल वेद ही हैं। वैदिक धर्म प्रकृति-पूजक बहुदेववादी तथा अनुष्ठानपरक धर्म था।
- यद्यपि उस काल में प्रत्येक भौतिक-तत्व का अपना विशेष अधिष्ठातृ देवता या देवी की मान्यता प्रचलित थी, परन्तु देवताओं में वरूण, पूषन, मित्र, सविता, सूर्य, अश्विन, उषा इन्द्र, रूद्र, पर्जन्य, अग्नि, वृहस्पति, सोम आदि प्रमुख थे। इन देवताओं की आराधना, यज्ञ तथा मंत्रोच्चारण के माध्यम से की जाती थी।
- मंदिर तथा मूर्तिपूजा का अभाव था। उपनिषद काल में हिन्दू धर्म के दार्शनिक पक्ष का विकास हुआ। साथ ही एकेश्वरवाद की अवधारणा बलवती हुई।
- ईश्वर को अजर-अमर, अनादि सर्वव्यापी कहा गया। इसी समय योग, सांख्य, वेदांत आदि षडदर्शनों का विकास हुआ। निर्गुण तथा सगुण की भी अवधारणाएं उत्पन्न हुई। नौंवीं से चौदहवीं शताब्दी के मध्य विभिन्न पुराणों की रचना हुई।
1 सर्ग (जगत की सृष्टि)
2 प्रतिसर्ग (सृष्टि का विस्तार, लोप एवं पुनः सृष्टि)
3 वंश (राजाओं की वंशावली)
4 मन्वंतर ( भिन्न भिन्न मनुओं के काल की प्रमुख घटनाएं) तथा
5 वंशानुचरित ( अन्य गौरवपूर्ण राजवंशों का विस्तृत विवरण)
- इस प्रकार पुराणों में मध्य युगीन धर्म, ज्ञान-विज्ञान तथा इतिहास का वर्णन मिलता है। पुराणों ने ही हिन्दू धर्म में अवतारवाद की अवधारणा का सूत्रपात किया। इसके अलावा मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, व्रत आदि इसी काल की देन है।
- पुराणों के पश्चात भक्ति काल का आगमन होता है। जिसमें विभिन्न संतों एवं भक्तों ने साकार ईश्वर की आराधना पर जोर दिया तथा जनसेवा परोपकार और प्राणी मात्र की समानता एवं सेवा को ईश्वर आराधना का ही रूप बताया। फलस्वरूप प्राचीन कर्मकांडों के बंधन कुछ ढीले पड़ गये। दक्षिण भारत के अलवार संतों, गुजरात में नरसि मेहता, महाराष्ट्र में तुकाराम, बंगाल में चैतन्य, उत्तर में तुलसी, कबीर, सूर और गुरू नानक के भक्ति भाव से ओत-प्रोत भजनों ने जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।
सनातन धर्म की अवधारणाएं एवं परम्पराएं
- ब्रहम को सर्वव्यापी एकमात्र सत्ता, निर्गुण तथा सर्वशक्तिमान माना गया है। ब्रहम को सर्वव्यापी माना गया है। अतः जीवों में भी उसका अंश विद्यमान आत्मा के अमरत्व की अवधारणा से ही पुनर्जन्म की भी अवधारणा पुष्ट होती है।
- आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं। ऐसी 84 करोड़ योनियों की कल्पना की गई है।
- प्रत्येक जन्म के दौरान जीवन भर किये गये कृत्यों का फल आत्मा को अगले जन्म में भुगतना पडता है। ये कर्मफल से सम्बन्धित दो लोक है।
- स्वर्ग में देवी देवता अत्यंत ऐशो-आराम की जिन्दगी व्यतीत करते हैं, जबकि नरक अत्यन्त कष्टदायक, अंधकारमय और निकृष्ट है।
मोक्ष का तात्पर्य
- मोक्ष का तात्पर्य है आत्मा का जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुक्त हो जाना अर्थात् परमब्रहम में लीन हो जाना है। इसके लिए निर्विकार भाव से सत्कर्म करना और ईश्वर की आराधना करना आवश्यक है।
- हिन्दू धर्म में काल को चक्रीय माना गया है। इस प्रकार एक कालचक्र में चार युग, सत्ययुग (क्रत), त्रेता, द्वापर तथा कलि माने गये हैं इन चारों युगों में कृत सर्वश्रेष्ठ और कलि निकृष्टतम माना गया है। इन चारों युगों में मनुष्य की शारीरिक और नैतिक शक्ति क्रमशः क्षीण होती जाती है। जिसके अंत में पृथ्वी पर महाप्रलय होता है।
- हिन्दू समाज चार वर्गों में विभाजित है। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये चार वर्ण प्रारम्भ में कर्म के आधार पर विभाजित थे।
- प्राचीन हिन्दू संहिताएं मानव जीवन को 100 वर्ष की आयु वाल हुए उसे चार चरणों अर्थात् आश्रमों में विभाजित करती हैं। ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास प्रत्येक की संभावित अवधि 25 वर्ष मानी गई। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ ही जीवन के वांछित उद्देश्य हैं।
- ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा राजयोग ये चार योग हैं जो आत्मा को ब्रहम से जोड़ने के मार्ग हैं।चार धाम- उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम- चारों दिशाओं में स्थित चार हिन्दू धाम क्रमशः बद्रीनाथ, रामेश्वर, जगन्नाथपुरी और द्वारका हैं। जहां जाना प्रत्येक हिन्दू का पुनीत कर्तव्य है।
सगुण मार्गी भक्ति
- सगुण मार्गी भक्तों ने अपने ईष्ट देवों राम और कृष्ण की भक्ति को अधिक महत्व दिया। भक्ति का एक महत्वपूर्ण आधार सगुण मार्ग है।
- भक्त किसी भी आकार को अपना आराध्य मानकर उसमें एकाकार होने का प्रयास करता है और मूर्तरूप में उसका ध्यान कर भक्ति और पूजा अर्चना करता है। जैसे मीरा ने कृष्ण मूर को अपना सर्वस्व और आराध्य मानकर सर्वस्व न्यौछावर कर जीवन समर्पित कर
- तुलसीदास ने राम को अपना आराध्य मानकर जनसाधारण में उनका गुणगान कर भगवान के मूर्त रूप को सजीवता प्रदान की और जीवन पर्यन्त उनकी आराधना करते रहे। इसी तरह चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, जैसे भक्तों ने कृष्ण भगवान के सगुण रूप को अर्थात् मूर्त रूप को स्वीकार किया और भगवान के रूप में उनकी आराधना की।
निर्गुण मार्गी भक्ति
- निगुण मार्गी भक्तों ने ज्ञान तथा प्रेम का आश्रय लेते हुए एकेश्वरवाद का प्रचार कर हिन्दू तथा मुस्लिम जनता को एक दूसरे के समीप लाने के प्रयास किया निर्गुण अर्थात् निराकार, जिसका कोई आकार न हो ऐसे ईश्वर की आराधना करना निर्गुण भक्ति कही जाती है।
- सन्त कबीर, गुरूनानक, रामानुजाचार्य, रामानन्द, दादूदयाल, रैदास, वल्लभाचार्य तथा तुकाराम जैसे भक्त सन्तों ने अपने ज्ञान द्वारा समाज में व्याप्त आडम्बरों, कुरीतियों तथा अंधविश्वास को आपसी वैमनस्य की भावना को प्रेम द्वारा खत्म कर समाज सुधार का कार्य किया। उन्होंने प्रेम द्वारा ज्ञान का संचार किया, एक ऐसी भक्ति को जगाया जो निराकार निर्गुण थी।
तीर्थकर क्या होता है
- ये एक तीर्थ कर था। जिसे हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों से हिन्दुओं से लिया जाता था। गंगा के घाटों,मन्दिरों आदि पर अमीर, गरीब के अनुसार यह कर लगाया जाता था।
- अकबर ने राजपूत रानी से विवाह करने के पश्चात् हिन्दुओं से वसूला जाने वाला तीर्थ कर समाप्त करवा दिया था। जहांगीर ने भी अपने शासनकाल में जामिया व तीर्थकर नहीं लगाये।
- शाहजहां ने हिन्दुओं पर पुनः तीर्थयात्रा कर लगाया । हिन्दुओं को तीर्थयात्रा कर देने का आदेश दिया गया था। परन्तु बाद में बनारस के कविन्द्राचार्य के अत्यधिक प्रार्थना करने पर यह कर हटा दिया गया था।
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