गुप्तकाल की सामाजिक दशा (Social Conditions in Gupta Empire)
गुप्तकाल की सामाजिक दशा (Social Conditions in Gupta Empire)
गुप्तकाल में वर्ण व्यवस्था
- गुप्तकाल का समाज परम्परागत चार वर्णों में विभक्त था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च था। शैक्षणिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विशेषाधिकार उसे प्राप्त थे। प्रधानतः उसके छह कर्म थे वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। ये कर्म उसके स्वधर्म के अन्तर्गत आते थे। वह समाज के विकास में अनवरत् सचेष्ट रहता था। अपनी तपश्चर्या और साधना से वह समाज के लोगों का सन्मार्ग और सद्भाव का मार्गदर्शन करता था।
- गुप्तकालीन साहित्यिक कृतियों से विदित होता है कि उस समय ब्राह्मण को प्राणदंड नहीं दिया जाता था। शूद्रक के मृच्छकटिक के नौवें अंक में ब्राह्मण चारुदत्त को हत्यारा सिद्ध किये जाने पर भी आक्रमण होने के कारण उसे प्राणदंड नहीं दिया गया था।
- मनु ने ब्रह्महत्या को महापातक माना है। दशकुमारचरित में ब्राह्मण मंत्री राजद्रोह का दोषी होने पर केवल अंधा बना दिया गया था।
- गुप्तकाल में ब्राह्मण राजवंशों के प्रमाण मिलते हैं जिनमें वाकाटक और कदम्ब प्रमुख थे। गुप्तों का सामन्त शासक मातृविष्णु ब्राह्मण था।
- मनु का कथन है कि क्षत्रियकर्म से जीवन निर्वाह न कर सकने के कारण ब्राह्मण वैश्य के कर्म-कृषि, गो-पालन और व्यापार ग्रहण कर सकता था। संकट के समय वह व्यापार कर सकता था। मनु का कथन है कि ब्राह्मण को धनवर्द्धक वस्तुएँ बेचनी चाहिए।
- समाज में क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों के बाद थी गुप्तकालीन सभी स्मृतिकारों और पुराणकारों ने क्षत्रियों को द्वितीय स्थान प्रदान किया है। उन पर ही देश और समाज का रक्षा प्रबन्ध था। युद्ध में जीती हुई सारी वस्तुएँ क्षत्रिय की होती थीं।
- मनु के अनुसार रथ, घोड़ा, हाथी, छत्र, धन, धान्य (सब प्रकार के अन्न), पशु, स्त्रियाँ (दासी आदि), सब तरह के द्रव्य (गुड़, नमक आदि) और कुप्य (सोना-चाँदी के अतिरिक्त ताँबा पीतल आदि धातु) जो योद्धा जीतकर लाता था, उसी का होता था। जीती हुई वस्तुओं पर उसका पूर्ण स्वामित्व होता था। यही नहीं, विजित राजाओं और अधीनस्थ राजाओं से मिलने वाले उपहार राजा की विशेष सुविधाएँ थीं।
- सम्राट समुद्रगुप्त को ऐसे ही अनेक राजाओं से उपहार में बहुमूल्य धन सम्पत्ति और राज कन्याएँ प्राप्त हुई थीं। मनु ने क्षत्रियों को वैश्य कर्म अपनाने की सलाह दी है, पर कृषिकर्म उनके लिए वर्जित कहा है। पारिवारिक संकट-काल में वे वाणिज्य व्यापार भी कर सकते थे।
- समाज में वैश्यों का स्थान क्रमानुसार तीसरा था। व्यापारिक व्यवस्था और कृषि का समस्त भार उनके ऊपर था। गुप्तयुग में उन्हें श्रेष्ठ, वणिक्, सार्थवाह आदि नामों से संबोधित किया जाता था। राज्य को अधिकाधिक कर प्रदान करने वाला वर्ग वैश्य ही था, जो अपने वस्तुओं के विक्रय की आय में राजा को कर देता था। ब्राह्मण और क्षत्रिय की तरह वैश्य भी आपत्तिकाल में दूसरे कर्म करते थे। गौ, ब्राह्मण और वर्ण की रक्षा के लिए वैश्य भी शस्त्र ग्रहण कर सकता था।
- समाज में शूद्र का स्थान अत्यन्त निम्न था। हेमचन्द्र ने शूद्रों के लिए छह नाम निर्दिष्ट किए हैं शूद्र अन्त्यवर्ण, वृषल, पद्य; पज्ज: और जघन्य वह पतित और हेय माना जाता था। उसमें उत्साह प्रयास और व्यवहार का अभाव था। उसके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और नैतिक जीवन से सम्बन्धित जितने भी नियम थे, सभी उसकी नीचता प्रदर्शित करते थे।
- मनु ने उन्हें कुछ सुविधाएँ दी थीं। काष्ठशिल्प, धातुशिल्प, भांडशिल्प, चित्रकला आदि कर्म करने की उन्हें अनुमति दी गई। उन्हें विद्या ग्रहण करने की भी अनुमति दी गई। पुराणों में भी उनके प्रति उदार भावना व्यक्त की गई हैं तथा इन्द्रिय-निग्रह के साथ मोक्ष प्राप्ति का भी उल्लेख किया गया है। फिर भी शूद्र पूर्णरूपेण द्विजों की दया पर निर्भर थे।
- गुप्तकालीन स्मृतियों में कुछ मिश्रित जातियों- मूर्द्धाविषिक्त, अम्बष्ठ, पारशव, उग्र तथा करण के उल्लेख मिलते हैं। इस काल के प्राप्त शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि बाद की अपेक्षा इस काल में उपजातियों में गतिशीलता अधिक थी। फाहियान के यात्रा वृतान्त से उस समय तक एक अस्पृश्य (अछूत) जाति का उल्लेख मिलता है। वे निम्न वृत्ति का पालन करते थे। जंगली जानवरों का शिकार करना, मछली मारना श्मशान घाट की रखवाली करना आदि उनके कार्य थे। उन्हें बस्ती के बाहर रहना पड़ता था। ग्राम या नगर में प्रवेश करते समय वे ढोल बजाते थे, ताकि उन्हें स्पर्श करने से बच जाएँ। उन्हें स्मृतियों में अंत्यज अथवा चाण्डाल तथा प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न कहा गया है।
गुप्त काल में विवाह प्रथा
- तत्कालीन लेखों और सहित्य से उस समय की वैवाहिक प्रथा का भी पता चलता है। राजवंशों में अन्तर्जातीय विवाह होते थे।
- क्षत्रिय गुप्तों का विवाह सम्बन्ध ब्राह्मण, वाकाटक और नाग राजाओं के साथ था। विधवा विवाह और सती प्रथा का भी प्रचलन था। बहु-विवाह की प्रथा भी थी। अनमेल विवाह भी होता था जिसका उदाहरण कुमारगुप्त है। ऊँची जाति का पुरुष नीची जाति की स्त्री से विवाह कर सकता था। ऐसे विवाहों को अनुलोम कहा गया था।
- ऊँची जाति की स्त्रियाँ और नीची जाति के पुरुष में भी सम्बन्ध हो सकता था। ऐसे विवाह को प्रतिलोम कहा जाता था। ऐसे विवाहों के भी उदाहरण इस युग में मिलते हैं।
- कदम्ब राजा ब्राह्मण थे किन्तु उनकी कन्याएँ गुप्त परिवार में ब्याही गयी थीं।
गुप्त काल में दास प्रथा
- संसार के अन्य देशों की भाँति भारत में भी घरेलू ढंग की दास प्रथा अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आ रही थी। महाजनपदों के काल में इसका उल्लेख किया जा चुका था, आश्चर्य की बात यह है कि विदेशी यात्रियों ने इसका जिक्र नहीं किया है, युद्धबन्दियों, कर्जदारों और हारे हुए जुआरियों को बहुधा दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। कभी-कभी अकाल के समय गरीब लोग अपनी इच्छा से धनी लोगों की दासता स्वीकार कर लेते थे, जिससे उन्हें जीवन निर्वाह के लिए भोजन आदि मिल जाता था। किन्तु भारतवर्ष में दास प्रथा यूरोपीय देशों की भाँति नहीं रही। दास स्वतंत्र भी हो सकते थे। उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। अधिकतर उन्हें घरेलू काम-धन्धे ही करने पड़ते थे। पुराने यूनान अथवा रोम की भाँति हम हजारों की संख्या में दासों को खेतों पर काम करते हुए नहीं पाते।
गुप्त काल में रहन-सहन
- अधिकांश जनता का भोजन साधारण तथा सात्विक था। लोग ज्यादातर शाकाहारी थे; माँस-मदिरा आदि का प्रयोग चाण्डाल किया करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि गुप्तकाल में भी लोगों पर जैनधर्म और बौद्धधर्म का विशेष प्रभाव बना रहा।
- जनता साधारण वस्त्रों का प्रयोग करती थी। साधारण श्रेणी के लोग सूती वस्त्र और उच्च श्रेणी के लोग रेशमी वस्त्र का प्रयोग करते थे। स्त्री और पुरुष दोनों को आभूषणों का बड़ा चाव था। तरह-तरह के सुन्दर आभूषण प्रयोग में लाये जाते थे। स्त्रियाँ कानों में जड़ाऊ और बालियाँ, गले में मोतियों की मालाएँ और हार, हाथों में रत्नजड़ित चूड़ियाँ, कंगन और कड़े, उँगलियों में अंगूठियाँ और कमर में करधनी पहनती थीं। पैरों में पायजेब भी पहने जाते थे। स्त्रियाँ केश सँभार में विशेष रुचि लेती थीं। उस काल में केश विन्यास के नमूने अजन्ता की चित्रकारी में दिखाये गये हैं। ये नमूने बड़े ही आकर्षक हैं। पुरुष भी गले में मालाएँ, कानों में कुंडल, हाथ में कड़े और उँगलियों में अंगूठियाँ पहनते थे। मुख और होंठों की सुन्दरता के लिए रंगों और सुगन्धित पाउडरों का प्रयोग किया जाता था। विलासिता की वस्तुएँ उस समय के समाज में अधिकता से प्रयोग की जाती थीं।
गुप्त काल में मनोरंजन
- उस समय के समाज में खेल कूद मनोरंजन के साधनों का यथेष्ट प्रचार था। स्त्री पुरुष दोनों ही चौपड़ तथा शतरंज खेलते थे। भेड़ों और मुर्गों की लड़ाई देखने का जनता को बड़ा चाव था। समारोहों और उत्सवों के अवसर पर स्त्रियाँ गाती, बजाती, नाचती और गेंद के कई प्रकार के खेल खेलती थीं। बालकों को गेंद और आँखमिचौनी के खेलों में अभिरुचि थी। नाटक तथा खेल-तमाशे मनोरंजन के साधन समझे जाते थे। उस युग के समाज में धार्मिक उत्सवों का विशेष प्रचार था। जनता उत्सवों में बड़ी रुचि रखती थी। उनमें सम्मिलित होकर वह आनन्द प्राप्त करती थी। रथों की दौड़ और रथ यात्रा का अधिक प्रचार था। स्त्रियाँ भी रथ यात्रा में सम्मिलित होती थीं। उस समय की गणिकाएँ नाच-गाकर समाज का मनोरंजन करती थीं। गणिकाओं को समाज में सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा जाता था। गुप्त सम्राटों को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। वे बड़ी तैयारियों के साथ शिकार को जाया करते थे। सामज में गोष्ठियों का भी प्रचलन था। गोष्ठियाँ प्राय: एक ही स्तर और स्वभाव के लोगों में होती थीं।
गुप्त काल की कौटुम्बिक व्यवस्था
- इस युग में सम्मिलित कुटुम्ब की प्रथा थी पिता कुटुम्ब की सम्पत्ति का स्वामी समझा जाता था। लेकिन भाइयों तथा पुत्रों का भी हिस्सा होता था। इस युग में मिताक्षर नियम प्रचलित था जिसके अनुसार पुत्र का अपने पूर्वजों की सम्पत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता था। विधवाओं को केवल जीवन-वृत्ति मिलती थी। कन्याओं को पिता की सम्पत्ति में भाग नहीं मिलता था।
गुप्त काल में स्त्रियों की स्थिति
- समाज में स्त्रियों की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। बाल विवाह का प्रचलन था। कुछ स्मृति ग्रंथों में पिताओं के लिए यह अनिवार्य ठहराया गया है कि वे अपनी कन्याओं का विवाह उनके रजस्वला होने के पूर्व ही कर दें। जो ऐसा नहीं करते थे, वे नरक के भागी होते हैं। गुप्तकालीन स्मृति ग्रंथ स्त्रियों को शिक्षा देने की अनुमति नहीं प्रदान करते। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च कुलों में नारियों को शिक्षा दी जाती थी।
- आश्रमवासिनी कन्यायें इतिहास और पुराण का अध्ययन करती थीं। वे स्वयं भी पद्य-रचना करती थीं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में अनसूया शकुन्तला के छन्दोबद्ध प्रणय संदेश को समझ लेती है। महाकवि कालिदास ने आदर्श पत्नी के अन्य गुणों के साथ उसकी ललित कला निपुणता का भी उल्लेख किया है। शकुन्तला की सखी अनसूया चित्रकला में और यक्ष की पत्नी वीणावादन में कुशल थीं।
- अमरकोश में नारी शिक्षिकाओं (उपाध्याया और उपाध्यायी) तथा वैदिक मंत्रों की शिक्षा देने वाली नारियों का उल्लेख है। 'ललित विस्तर' से विदित होता है कि गोपा नामक राजकन्या अनेक शास्त्रों में प्रवीणा थीं। मनु ने लिखा है कि सभ्य नागरिक पत्नी को दैनिक, मासिक तथा वार्षिक आय-व्यय का विवरण रखने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है।
- स्त्रियों का संपत्ति पर भी अधिकार था। याज्ञवल्क्य ने निर्देश दिया है कि पुत्र और विधवा के अभाव में पुत्री ही उत्तराधिकारिणी है। वृहस्पति ने भी उसके उत्तराधिकार को स्वीकार किया है। भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने भी स्त्री-धन को कम से कम छः प्रकार का बताया है पिता, माता, भ्राता और पति द्वारा दिया हुआ, अग्नि की सन्निधि में विवाह के समय कन्यादान के साथ प्राप्त तथा अधिवंदन के निमित्त मिला हुआ धन। यही नहीं, विवाह होने के पश्चात् प्रीतिपूर्वक सास, श्वसुर आदि से पादवन्दनादि प्रथा में स्त्री को जो प्राप्त होता था, वह भी स्त्री धन था।
- स्त्री धन के अन्तर्गत परिवार की भूमि के अतिरिक्त उसके मूल्यवान वस्त्राभूषण भी होते थे जिनका वह स्वयं उपयोग करती थी गुप्तकालीन समाज में कुछ सीमा तक पर्दा प्रथा का भी प्रचलन था। कुलीन स्त्रियाँ घरों से निकलने पर घूंघट अथवा पर्दे का प्रयोग करती थीं। विधवाओं की स्थिति दयनीय होती जा रही थी। उन्हें न केवल पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करना पड़ता था बल्कि उनके लिए 'सती' हो जाना श्रेयष्कर माना जाता था। उत्तर भारत की कुछ सैन्य जातियों में बड़े पैमाने पर विधवाओं के जल मर जाने की प्रथा थी।
वेश्यावृत्ति-
- मृच्छकटिक के द्वारा गणिकाओं के जीवन पर प्रकाश पड़ता इस ग्रन्थ में वेश्या के घर को युवकों का निवास स्थान कहा गया है, वेश्यागामी को समाज निम्न दृष्टि से देखता था। जो वेश्याएँ वृद्धा हो जाती थीं, उनका रूप व्यापार समाप्त हो जाता था। अतएव वे कुट्टनी का काम करना प्रारम्भ कर देती थीं। वे एक तरह से नई वेश्याओं के लिए मार्गदर्शिका का काम करती थीं और इसके लिए उनकी आमदनी में भाग लेती थीं। दयनीय दशा में पड़ी युवतियों को गणिका वृत्ति सिखा देना और युवकों को पथभ्रष्ट करना उनका काम था। कुट्टनियों के हथकंडों एवं उनकी गर्हित जीवन-वृत्ति पर दो प्राचीन ग्रंथ 'कुट्टीनीमतम्' और 'दूतीकर्म-प्रकाश' उल्लेखनीय हैं।
जन-जीवन
- गुप्तकालीन जनता समृद्धि सम्पन्न और सुखी थी। साम्राज्य के विभिन्न भागों में अनेको समृद्धिपूर्ण विशाल नगर अपनी अद्भुत आभा से साम्राज्य की शोभा वृद्धि कर रहे थे। साम्राज्य की जनसंख्या द्रुतगति से बढ़ती जा रही थी, जिसका प्रमुख कारण जनसाधारण के सुखमय जीवन, भोजन, आवास तथा वस्त्राभूषणों की बहुलता पर आधारित था। चीनी यात्री फाहियान ने भारतीयों के सदाचार और नैतिक गुणों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। वह लिखता है-“लोगों का आपसी व्यवहार बड़ा सुन्दर था। वे प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। " माँस, मदिरा आदि का सेवन सिवाय चाण्डालों के और कोई नहीं करता था। लहसुन, प्याज आदि का भी प्रयोग नहीं होता था। सुअर और मुर्गी पालना घृणित समझा जाता था। अन्त्यज और चाण्डाल ही इस काम को करते थे। समाज में नैतिकता की भावना प्रबल थी। समृद्ध लोग मुक्तहस्त से दीन व्यक्तियों की सहायता करते और मन्दिर, धर्मशालायें बनवाने तथा प्याऊ आदि लगवाने में भारी धनराशि व्यय करते रहते थे। धनवानों की ओर से धर्मार्थ औषधालय एवं अन्न क्षेत्र खुले हुए थे, जिनमें बीमारों का इलाज होता तथा भूखे-प्यासे अपाहिजों को भोजन कराया जाता था। बाजारों में दुकानों पर आवश्यकता की सभी वस्तुएँ विक्रयार्थ रखी रहती थीं।
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चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
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चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मूल्यांकन
फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
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