सिन्धु सभ्यता का सामाजिक संगठन एवं जीवन |Social organization and life of Indus civilization

सिन्धु सभ्यता का सामाजिक संगठन एवं जीवन  

सिन्धु सभ्यता का सामाजिक संगठन एवं जीवन   सिन्धु सभ्यता का  सामाजिक जीवन


सिन्धु सभ्यता का  सामाजिक जीवन

 

  • सिन्धु सभ्यता के सामाजिक संगठन एवं जीवन के सम्बंध में निश्चित रूप से कुछ बताना मुश्किल है क्योंकि उसकी लिपि को विद्वान अभी तक नहीं पढ़ पाये हैं। 
  • लेकिन खुदाइयों से प्राप्त मूर्तियोंसोने-चांदी के आभूषणहाथी दांत की बनी विभिन्न शृंगार सामग्री के आधार पर सिन्धु सभ्यता के सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
  • भवन अवशेष के आधार पर वहां के लोगों के सामाजिक संगठन पर ठीक से प्रकाश नहीं डाला जा सकता है। 
  • सिन्धु घाटी में पाये गये सभी मकान एक समान हैं। अतः यहां के निवासियों का जीवन स्तर भी समान रहा होगा। जब हम आर्थिक दृष्टिकोण से सिन्धु सभ्यता के लोगों का अध्ययन करते हैं तो यहां के निवासियों का जीवन स्तर एक समान नहीं पाते हैं। 
  • यहां के लोग सामाजिक दृष्टिकोण से कई भागों में बंटे हुए थे।
  • सुविधापूर्वक अध्ययन के दृष्टिकोण से इन्हें हम मुख्यतः चार भागों में बांट सकते हैं। प्रथम श्रेणी में व्यापारीदूसरे में विद्वानतीसरे में श्रमिक और चौथी श्रेणी में सैनिक थे। 
  • सिन्धु काल के बाद विश्व में एकमात्र देश चीन में भी हम पाते हैं कि सैनिकों का स्थान समाज में काफी नीचे था क्योंकि यह देश भी प्राचीन काल में शांतिप्रिय था। 
  • ऋग्वैदिक काल में तो लड़ने वाला वर्ग भारतवर्ष में द्वितीय श्रेणी में था। 
  • पुजारीज्योतिषी तथा वैद्य विद्वान वर्ग में आते थे। मेहनत-मजदूरी करने वाले तथा घरेलू नौकर श्रमिक वर्ग में थे। 
  • इसके अलावा श्रमिक वर्ग में चमारटोकरी बनाने वाले मछुआरे आदि भी शामिल थे। विभिन्न तरह के उद्योग करने वाले लोग व्यापारी वर्ग में थे।


  • सिन्धु घाटी के समाज में आर्थिक दृष्टिकोण से धनीमध्यम एवं गरीब तीनों वर्ग के लोग थे। यहां से दूर-दूर के देशों के साथ व्यापार होता था। अतः समाज में व्यापारियों की प्रतिष्ठा काफी थी। 
  • पारिवारिक जीवन और स्त्रियों की दशा परम्परागत परिवार सिन्धु घाटी सभ्यता काल में समाज की इकाई थी। पाये गये अवशेषों के आधार पर परिवारों के रहने की योजना मिलती है। द्रविड़ और आर्य सभ्यता के पहले के काल में समाज मातृसत्तात्मक था। 
  • अवशेषों के आधार पर हम कह सकते हैं कि यहां का समाज मातृप्रधान था। फलतः सिन्धु क्षेत्र के निवासी मातृदेवी का बड़ा आदर करते थे। यहां के समाज में स्त्रियों को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। इस काल में पर्दाप्रथा की बात नहीं पायी गयी है।
  • स्त्रियों का मुख्य काम शिशुपालन और सूत काटना था। यहां खुदाई से कई स्त्रियों की मूर्तियाँ भी मिली हैं। इसमें सबसे ज्यादा आश्चर्य कांसे की बनी हुई नर्तकी की एक मूर्ति देखकर होता है। यह नर्तकी गले में कंठहार पहनी हुई है। यह सारी भुजाओं को ढंके हुए है तथा वलय समूह के अतिरिक्त नग्न है। उसकी वेणी एक सुन्दर केशावरण में सुसम्बद्ध है।
  • इस नर्तकी की एक भुजा अपने कूल्हे पर रखी है। यह अद्भवनत जंघा के साथ उत्तेजनात्मक मुद्रा में खड़ी है। इसे देखने से ऐसा लगता है कि इसमें सजीव धृष्टता का गर्व है। इस तरह की सजीव धृष्टता का गर्व विश्व की दूसरी प्राचीन सभ्यताओं में नहीं मिलता है।
  • सिन्धु क्षेत्रों की खुदाई से कुछ प्रभावहीन देवियों की मूर्तियां मिली हैं। इससे पता चलता है कि सिन्धु समाज में औरतों की अवस्था बाद के काल अर्थात ऋग्वैदिक काल से भिन्न थी। विद्वानों का मत है कि ये देवियों की मूर्तियां वास्तव में नर्तकीदेवदासी एवं वेश्याओं की प्रतिनिधि थीं। मध्य पूर्व की सभ्यताओं में देवदासी और वेश्याएं थीं लेकिन सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त मूर्तियों के बारे में निश्चय रूप से बताना कि वे वेश्याओं की प्रतिनिधि थींमुश्किल है। इतना तो निश्चित है कि सिन्धु समाज में देवीपूजा काफी प्रचलित थी क्योंकि खुदाई से बहुत सी साधारण किस्म की मूर्तियां मिली हैं जो लगभग नग्न थीं। उनके शिरोपरिधान सुन्दर थे।

 सिन्धु सभ्यता में वेश-भूषा 

  • सामाजिक दृष्टिकोण से वेशभूषा का आज भी महत्त्व है। सिन्धु क्षेत्र में खुदाई से कोई वस्त्र नहीं मिला हैवैसे पुरातत्व से वस्त्र मिलना सम्भव भी नहीं। 
  • वहां पाये गये दो-चार खंडित मूर्तियों तथा खिलौनों के वेशों से है। इस पुरुष हम वहां के वस्त्रों के बारे में थोड़ा बहुत जान सकते हैं। शाल ओढ़े हुए एक मूर्ति मिली है जो किसी पुरुष की है। इसमें हम पाते हैं कि वह पुरुष शाल को बायें कुहने के ऊपर तथा दायें हाथ के नीचे से ओढ़े हुए मूर्ति से यह पता नहीं चल पाता है कि शरीर पर चादर लपेटने के अलावे उसके भीतर वह और कोई वस्त्र पहनता था या नहीं। 
  • मूर्ति को देखने से लगता है कि शाल किसी पिन की सहायता से शरीर में लपेटा जाता था। स्त्रियों के लिये सिर पर पहनने के लिए खास तरह का वस्त्र होता था जो सिर के पीछे की ओर पंखे की तरह उठा रहता था। इस सिर के वस्त्र की तुलना आधुनिक काल में ईसाई औरतों के द्वारा शादी के अवसर पर सिर पर पहनने वाले उस वस्त्र से की जा सकती है जो पीछे की ओर पंखे की तरह उठा रहता है। 
  • सिन्धु सभ्यता में औरत एवं मर्द के वस्त्रों में विशेष अन्तर नहीं था। इस प्रदेश की खुदाई से प्राप्त सोना तथा ताम्बे के बटन मिलने से वहां के निवासियों की वेशभूषा के विषय में जानकारी मिलती है। इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार की ऋतुएं होती थीं। परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के वस्त्र भी यहां के लोग पहनते थे। 
  • यहां के निवासी नोक वाली टोपी पहना करते थे। स्त्री पुरुष दोनों टोपियों का व्यवहार करते थे। ऊंचे वर्ग के लोगों का वस्त्र साधारण आदमी से भिन्न था। कलात्मक ढंग से ऊँचे वर्गों के लोगों का वस्त्र सजाया गया रहता था। ये लोग दाढ़ी भी रखते थे। स्त्रियों एवं पुरुषों में लम्बे बाल रखने की प्रथा थी। ऊंचे घर की औरतें उत्सव के अवसर पर नये ढंग के वस्त्रों का इस्तेमाल करती थीं। ये वस्त्र देवी माता की मूर्तियों के कलात्मक शिरपरिधानों के समान होते थे। 
  • देवियां साधारणतया छोटा घाघरा पहना करती थींलेकिन एक ऐसी मुद्रा भी मिली है जिस पर कुछ नारियों का चित्र है। ये नारियां जो शायद पुजारिनें होंगीबड़े-बड़े घाघरों में इनका प्रदर्शन किया गया है।

केश विन्यास

  • आधुनिक काल की तरह उस समय भी सिर को सजाने की प्रथा औरतों में थी। चोटी गूंथने की परम्परा समाज में औरतों के बीच काफी प्रचलित थी। जूड़े के रूप में भी बालों को गूंथकर पीछे मोड़ लेने की प्रथा थी। अमीर स्त्रियां एवं पुरुष बाल बांधने के लिए सुनहरे नाड़ों को प्रयोग करते थे। अति आधुनिक औरतों की तरह उस समय की औरतें भी कटे हुए छोटे बाल रखती थीं। 
  • बिना गूंथे हुए बाल को भी पीछे फेंकने की बात खुदाई से प्राप्त मूर्तियों को देखने से पायी जाती है। वैसे मर्द जो दाढ़ी-मूंछ रखते थे मूर्तियों एवं मुद्राओं दोनों में सुव्यवस्थि ढंग से दिखाये गये हैं। शृंगार करने के लिए वहां के निवासी अस्तुरे, पाउडर, सिन्दूर आदि का प्रयोग करते थे। मुख तथा होठ को आकर्षक बनाने के लिए स्त्रियां एक विशेष प्रकार के पदार्थ का प्रयोग करती थीं। 
  • सिन्धु क्षेत्र के लोगों के शृंगार एवं विलासिता के सम्बंध में सर जॉन मार्शल का कहना है कि यहां एक साधारण नागरिक भी जिस तरह की सुविधा एवं विलासपूर्वक जीवन बिताता था उसकी तुलना इस काल के किसी भी अन्य देश से नहीं की जा सकती है।

 

सिन्धु सभ्यता में आभूषण

  • अति सुन्दर दिखने के लिए तथा तंत्र-मंत्र एवं जादू-टोना से प्रभावित होकर हड़प्पावासी अनेक तरह के आभूषणों का प्रयोग करते थे खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर पता चलता है कि यहां के लोग गले में हार, सिर पर आभूषण, सिरबन्द, पैर में पायल, हाथ की कलाई में कंगन, पैर में कड़े कानों में बालियां तथा अंगुली में अंगूठी भी पहनते थे।
  • समाज के गरीब लोग ताम्बा, हड्डी एवं मिट्टी के बने आभूषण पहना करते थे। धनी वर्ग के लोग सोना, चांदी तथा हाथी दांत के आभूषण पहनते थे। 
  • आभूषण औरत और मर्द दोनों के द्वारा पहना जाता था। अपने आपको संवारने के लिए पीतल का बना हुआ आईना एवं हाथी दांत की कधियों का इस्तेमाल किया जाता था। आंखों की सुन्दरता बढ़ाने लिए सुरमे का भी प्रयोग लोग करते थे।

 

सिन्धु सभ्यता के लोगों का रहन-सहन 

  • सिन्धु घाटी से प्राप्त अवशेषों के आधार पर वहां के निवासियों की रहन-सहन पर भी प्रकाश पड़ता है। धनी लोग अपने मकानों को सजाकर रखते थे। मकान के आगे में एक बैठका होता था जिसमें कुर्सी, पलंग और स्टूल रखा जाता था।
  • सोने के लिए लोग चारपाई का इस्तेमाल करते थे। चारपाइयां प्राय: लकड़ी की बनती थीं। नरकुल की भी चटाइयां बनाई जाती थीं। 
  • घर में रोशनी के लिए दीपक जलता था। ये दीपक ताम्बे और मिट्टी के बनाये जाते थे। सीप को भी दीपक के रूप में प्रयोग किया जाता था। मोम और रूई की बत्तियां घरों में प्रकाश के लिए इस्तेमाल की जाती थीं। पत्थर के दीप भी बनाये जाते थे। सामान ढोने के लिए टोकरियों का प्रयोग किया जाता था। ये टोकारियां लकड़ी या बेंत की बनी होती थीं।

 

सिन्धु सभ्यता में मनोविनोद के साधन 

सिन्धु सभ्यता के लोगों के मनोरंजन के साधन 

  • दिन भर के थके-हारे शहरी व्यक्ति के लिए मानसिक रूप से तरोताजा होने के लिए आधुनिक काल की तरह सिन्धुकाल में भी मनोविनोद का बड़ा महत्त्व था। मानसिक तनाव कम करने के लिए आज भी इसका काफी महत्त्व है। 
  • सिन्धु घाटी के निवासियों के मनोरंजन के कई साधन थे। यहां के लोग मुख्यतः शिकार करने, नाचने और गाने में बहुत रुचि रखते थे। 
  • खुदाई से यहां बहुत सी नाचने वाली स्त्रियों की मूर्तियां मिली हैं जिनसे पता चलता है कि यहां के लोग नृत्य के शौकीन थे। शतरंज एवं जुआ खेलने की भी प्रथा समाज में थी। 
  • सिन्धु लोग रथदौड़ में भी भाग लेते थे। लखनऊ के नवाबों के समान चिड़ियां उड़ाना भी मनोरंजन का एक मुख्य साधन था। इसके लिए चिड़ियां पाली जाती थीं। गोली खेलना, पासा फेंकना तथा गेन्द खेलना लोगों के मनबहलाव के साधन थे। 
  • गोली खेलने की प्रथा सिन्धु घाटी के अलावे सुमेर एवं मिस्र में भी थी। पुरातत्व से काफी संख्या में पासा मिलने से लगता है कि सिन्धुघाटी के निवासी जुआ खेलने के बहुत शौकीन थे। ऋग्वैदिक काल में भी हम पाते हैं कि पासा खेलना काफी लोकप्रिय था। 
  • सिन्धुवासियों को शिकार करने का बहुत शौक था। इसकी जानकारी खुदाई से प्राप्त मुद्राएं देती हैं। इन सिक्कों पर बने चित्रों से पता चलता है कि यहां के लोगों को धनुष-बाण से बकरियों, हिरणों आदि का शिकार करना प्रिय था। 
  • बैलों से कुश्ती कराने की प्रथा प्रचलित थी। बच्चों के मनोरंजन के साधन के बारे में भी जानकारी मिलती है।
  • छोटी-छोटी गाड़ियां बनाकर सिन्धु समाज के बच्चे खेला करते थे। मनुष्य तथा पशुओं के आकार के खिलौने भी बनते थे। ये मिट्टी के हुआ करते थे। बच्चों को खेलने के लिए मिट्टी के भेड़ भी बनाये जाते थे। 
  • एक बैल जैसा खिलौना मिला है जिसका सिर हिलता है। एक हाथी भी मिला है जिसका सिर दबाने से शब्द उत्पन्न होता है। 
  • सिन्धु क्षेत्र में एक ऐसे पशु का अवशेष मिला है जिसका सर तो भेड़ के समान है लेकिन शरीर चिड़ियां के समान है। कुछ पक्षियों की भी चर्चा मिलती है। बन्द पिंजड़े में दिखाये गये हैं। मिट्टी की चिड़ियां भी मिली हैं जिनमें टांगे अलग से जोड़ दी जाती थीं। 
  • बच्चों को खेलने के लिए मिट्टी के झुनझुने भी बनाये जाते थे। मुंह से बजाने वाली सीटियां भी मिली हैं। बच्चों के लिए मनुष्य आकृति के मिट्टी के खिलौने भी मिले हैं। बौनी के रूप में खिलौना भी बच्चों द्वारा खेला जाता था। 
  • मिस्र में भी ऐसे बौने खिलौने के रूप में मिले हैं। पहिए वाली गाड़ी का भी खिलौने रूप में उपयोग किया जाता था। ताम्बे की बनी एक छोटी सी सुन्दर गाड़ी भी हड़प्पा की खुदायी में मिली है। उपर्युक्त खिलौने के आधार पर सिन्धुवासी के जीवन को समझने में हमें सुविधा मिलती है।

 सिन्धु सभ्यता मृतक क्रिया
 सिन्धु सभ्यता में मृतक संस्कार

सिन्धुकाल में वैसे तो मृतक संस्कार के सम्बन्ध में कुछ बताना आसान नहीं लेकिन मोहनजोदड़ो से प्राप्त अवशेष के आधार पर पता चलता है कि मृतक संस्कार के तीन प्रकार थे


(क) शव को मांसभक्षी जानवरों के सामने फेंक दिया जाता था। मांस खाने के बाद जो हड्डियां जानवरों के द्वारा छोड़ दी जाती थीं उन्हें दफना दिया जाता था। 

(ख) लाश को उसी तरह दफना दिया जाता था। 

(ग) दाहक्रिया करने के बाद अस्थियों को दफना दिया जाता था। अस्थियाँ, कोयला तथा भस्म तीनों चीजों से भरे अनेक कलश सिन्धु क्षेत्र में मिले हैं। इससे पता चलता है कि दाहक्रिया करने के पश्चात अस्थियों को दफनाने की प्रथा ही अधिक प्रचलित थी।

  • हड़प्पा से प्राप्त कुछ अवशेषों से पता चलता है कि लाश का सिर उत्तर की ओर रहता था। शव को लम्बा रखने की प्रथा थी। 
  • शव के साथ जेवरात और शृंगार की चीजें भी गाड़ दी जाती थीं। कुछ ऐसे भी शिव मिले हैं जिनके दाहिने हाथ की अंगुली में ताम्बे की अंगूठी मिली है। 
  • शव के पास पायल, हार, आईना आदि भी मिले हैं। एक स्थान पर खुदाई से एक साथ कई लाशें मिली हैं। अनुमान किया जाता है कि किसी युद्ध में मरे हुए लोगों को एक साथ ही गाड़ दिया गया था।
  • कहीं-कहीं स्त्री-पुरुष दोनों की लाशें एक साथ मिली हैं। ऐसे अवशेष हड़प्पा से मिले हैं।
  • हड़प्पा के समान ही प्राचीन सुमेर में भी इसी तरह की प्रथा प्रचलित थी।
  • हड़प्पा से एक ऐसा शव मिला है जिसकी बगल में एक बकरी की लाश भी है। 
  • विद्वानों का अनुमान है कि अंतिम संस्कार के अवसर पर शायद बकरे की बलि चढ़ाई गयी होगी।

 

सिन्धु सभ्यता में औषधियों का प्रयोग

  • सिन्धुकाल में प्रयोग की गयी दवाइयों के बारे में बताना बहुत मुश्किल है। बीमारी तो होती ही होगी। फलत: कुछ न कुछ औषधियों का प्रयोग भी यहां के निवासियों द्वारा किया जाता था।
  • मोहनजोदड़ो में खुदाई से शिलाजीत मिला है। यह काले रंग का है जिसे घोलने के बाद इसका रंग गहरे बादामी रंग का हो जाता है। 
  • इसका प्रयोग आज भी कई बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता है। 
  • औषधि के रूप में समुद्र के फेन का भी प्रयोग लोग करते थे। 
  • कर्नल स्यूयल के अनुसार हिरण तथा बारहसिंगों के सींगों का प्रयोग भी औषधि बनाने के लिए किया जाता था। 
  • नीम की पत्तियों से भी औषधि आज की ही तरह बनायी जाती थी।

 

सिन्धु सभ्यता का भोजन

  • सिन्धु प्रान्त में खुदाई से प्राप्त खाद्य सामग्री के आधार पर वहां के लोगों के भोजन के सम्बंध में जानकारी मिलती है।
  • खाद्य सामग्री पैदा करने के लिए लोगों को प्राकृतिक सुविधाओं पर अधिक निर्भर रहना पड़ता था। आज भी भारत के किसान प्राकृतिक सुविधाओं पर ही ज्यादा निर्भर हैं। 
  • मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चलता है कि वहां के लोग भोजन में गेहूं तथा जौ का इस्तेमाल करते थे। वहां राई और मटर की भी पैदावार होती थी। 
  • हड़प्पा की खुदाई से भी कई खाद्य सामग्री के बारे में जानकारी होती है। यहां के लोग चावल, दाल एवं सब्जी के अतिरिक्त खजूर, तिल, फलियाँ और तरबूज भी खाते थे।
  • पशुओं के दूध पीने से स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है, इसकी जानकारी हड़प्पावासियों को थी। दूध से घी भी बनाया जाता था। नींबू की भी जानकारी उन्हें थी।
  • भोजन में वे मिठाई और रोटी से भी परिचित थे। अनाज को कूटा एवं पीसा जाता था। बड़े-बड़े गोदाम भी रहते थे जिसमें धनी लोग अपना अनाज रखते थे। 
  • गरीब व्यक्ति अपना अनाज साधारण लिपे हुए गड्ढे में रखते थे। 
  • यहां के लोग मांसाहारी भी थे। पत्थर के औजार मिले हैं जिनसें जानवर और बड़ी-बड़ी मछलियाँ काटे जाते थे। खाने के बर्तन के रूप में प्याला, चम्मच, तश्तरी थाली आदि का प्रयोग होता था।

 

सिन्धु सभ्यता में यातायात के साधन 
  • इस काल में बैलगाड़ी यातायात का मुख्य साधन था। चक्के के विकास ने यातायात को महत्त्व प्रदान किया। ताम्बे से बनी हुई गाड़ियां मिली हैं। 
  • गर्मी एवं बरसात से बचने के लिए इसमें ऊपर से छतरी लगायी जाती थी। उन्हें जानवरों के द्वारा एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता था। 
  • मस्तूल वाले जहाज की भी चर्चा मिलती है, जो व्यापारियों एवं अन्य यात्रियों को पानी के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह ले जाता था। इसमें पतवार लगी रहती थी और मल्लाह खेता था। नाव भी यातायात के साधन के रूप में इस्तेमाल की जाती थी।

सिन्धु सभ्यता की जनसंख्या

  • एच० टी० लाम्ब्रिक ने यह अनुमान किया था कि मोहनजोदड़ो की जनसंख्या लगभग उन्नचालीस हजार रही होगी। 
  • एक दूसरे विद्वान डब्लू० ए० फेयरसर्विस के अनुसार इस स्थान की आबादी इकतालीस हजार दो सौ नब्बे के लगभग थी। 
  • फेयरसर्विस ने हड़प्पा की आबादी के सम्बन्ध में भी जानकारी दी है। हड़प्पा की आबादी वे लगभग तेइस हजार पांच सौ बताते हैं।

 

सिन्धु सभ्यता में जातियां

  • पहले से चले आ रहे विचार के अनुसार सिन्धु घाटी की सभ्यता में मेडिटरेनियन वालों की प्रधानता थी। इसके बाद यहां प्रोटोऑस्ट्रोल्वायड मोंगोल्वायड और एल्फिन जातियां पायी जाती थीं। 
  • ड़प्पा क्षेत्र से प्राप्त हड्डियों को इधर हाल में फिर से जांचा गया है। इस जांच से पता चलता है कि जाति का अध्ययन करने के दृष्टिकोण से हमारा पहला ज्ञान बहुत ही अधूरा है। पहले सीमित उदाहरणों के आधार पर ही इसका अध्ययन किया जाता था। 
  • उदाहरण के लिए मोंगोल्वायड, प्रोटोऑस्ट्रोल्वायड इत्यादि में हड़प्पा के लोगों को बांट देना अर्थहीन लगता है। हड़प्पा सभ्यता के लोग जाति के दृष्टिकोण से बहुत अलग-अलग नहीं थे।

    हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में निवास करने वाले लोगों की ऊँचाई लम्बी थी। उनके सिर भी लम्बे होते थे। वे लोग चौड़ी नाक वाले थे। 

    लोथल नामक स्थान से पायी गई खोपड़ी का अध्ययन करने पर पता चला है कि इसकी खोपड़ी सिन्धु घाटी के अन्य स्थानों के लोगों की खोपड़ी की अपेक्षा अधिक चौड़ी नजर आती है। अतः प्रोफेसर एशिया के विचार से सहमत हुआ जा सकता है। उसके अनुसार सिन्धु घाटी की जनसंख्या को अनेक मानव जातियों का बताना तर्कसंगत मालूम नहीं पड़ता है।

  • हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में निवास करने वाले लोगों की ऊँचाई लम्बी थी। उनके सिर भी लम्बे होते थे। वे लोग चौड़ी नाक वाले थे। 
  • लोथल नामक स्थान से पायी गई खोपड़ी का अध्ययन करने पर पता चला है कि इसकी खोपड़ी सिन्धु घाटी के अन्य स्थानों के लोगों की खोपड़ी की अपेक्षा अधिक चौड़ी नजर आती है। अतः प्रोफेसर एशिया के विचार से सहमत हुआ जा सकता है। उसके अनुसार सिन्धु घाटी की जनसंख्या को अनेक मानव जातियों का बताना तर्कसंगत मालूम नहीं पड़ता है।

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