मध्य कालीन भारत की शब्दावली -उर्दू भाषा, खड़ी बोली,गोद प्रथा,दास प्रथा ,सती प्रथा |Terminology of Middle India
मध्य कालीन भारत की शब्दावली
भारत में उर्दू भाषा का विकास
- मध्यकाल में तुर्की एवं मुगलों के भारत आक्रमण के दौरान उनके सैनिकों तथा भारत के स्थानीय व्यापारियों तथा कारीगरों के बीच एक नयी मिली-जुली भाषा का विकास हुआ, जिसमें तुर्की, फारसी, अरबी, अफगानी तथा तत्कालीन भारत में प्रचलित अवहट्ट या अप्रसंग सभी का समावेश था।
- इस भाषा को प्रारम्भ में रेखता, दक्कनी तथा हिन्दवी कहा गया जिसे बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक हिन्दुस्तानी कहा जाने लगा। वास्तव में यह संस्कृत और फारसी दोनों भाषाओं से प्रभावित थी। परन्तु बीसवीं सदी में हिन्दु-मुस्लिम साम्प्रदायिकता बढ़ने के कारण इसके दो रूप दृष्टिगत होने लगे।
- प्रथम संस्कृतगर्भित नागरी लिपि में लिखा गया रूप 'हिन्दू' और द्वितीय फारसीगर्भित एवं फारसी लिपि में लिखित रूप 'उर्दू' ।
- उर्दू का व्याकरण पश्चिमी शौरसेनी अप्रभंश पर आधारित है।
- उर्दू साहित्य में मसनवी, गजल, कसीदा, मर्सिया (शोकगीत) , रेख्ता, नज्म आदि प्रमुख विधाएं दृष्टिगत होती हैं।
- चौदहवीं शताब्दी मे उर्दू के प्रारम्भिक कवियों में शेख गुंजुल इल्म, ख्बाजा वंदा नवाज, मुकिनी, अहमद आदि प्रमुख थे | सत्रहवीं सदी में मुल्ला वज्ही उर्दू के प्रसिद्व मसनवी रचानकार हुए। इसके पश्चात् गजलों का युग आया। जिसके प्रारम्भिक रचयिताओं में अमीर खुसरो, हाशमी, कुतुबशाह,सराज आदि उल्लेखनीय हैं। परन्तु वली सर्वप्रसिद्व हुए। उन्हें "बाबा-ए-रेख्ता“ (रेख्ता का पितामह ) कहा गया है।
- 18 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध उर्दू का स्वर्ण युग था। 18वीं सदी और 19 वीं सदी के प्रारम्भ में उर्दू शायरी नवाबों व अमीरों की जीहजूरी में लीन हो गई।
खड़ी बोली का अर्थ
- खड़ी बोली हिन्दी का उद्भव शौरसेनी अप्रभंश से हुआ। परन्तु उसे पश्चिमी हिन्दी एवं पूर्वी हिन्दी की 8 बोलियों का प्रतिनिधि मानने पर उसका उद्भव शौरसेनी तथा अर्धमागधी अपभ्रंश से हुआ माना जाता है। इसका उद्भव काल लगभग 1000 ई0 माना जाता है। प्राचीन हिन्दी या प्रारम्भिक हिन्दी को परिनिष्ठित अप्रभंश से अलग करने के लिए 'अवहट्ट' नाम दिया गया।
- खड़ी बोली के प्रथम उत्थान का आरम्भ श्रीधर पाठक की रचनाओं से तथा द्वितीय उत्थान का पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं से हुआ।
- आधुनिक काल में हिन्दी में दो नवीन प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं। एक ओर खड़ी बोली में गद्य रचना आरम्भ हुई और दूसरी ओर ब्रज तथा अवधी से हटकर खड़ी बोली में काव्य रचना होने लगी। प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण उपाध्याय, प्रेमधनजी, पं0 अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', वियोगी हरि आदि इस काल के प्रसिद्ध कवि हुए। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी को नवीन आयाम प्रदान किया।
गोद प्रथा क्या है
- भारत में प्रारंभ से ही गोद प्रथा का प्रचलन मिलता है।
- भारत में अंग्रेजी राज्य के समय इस नीति पर अंकुश लगाया गया। लार्ड डलहौजी की साम्राज्यवाद से प्रेरित नीति, जिसके अन्तर्गत पुत्रहीन शासकों के लिए सन्तान गोद लेने से पूर्व कम्पनी की स्वीकृति आवश्यक कर दी गई। इस पर भारत के इतिहास में बहुत चर्चा हुई है।
- इस के अन्तर्गत सतारा (1848) लार्ड डलहौजी ने ले लिया और उसके पश्चात गोद प्रथा के रीति रिवाजों पर रोक लगा कर हड़प का सिद्धांत के अन्तर्गत सतारा, नागपुर, झांसी इत्यादि ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत सम्मिलित कर लिए गये।
दास प्रथा किसे कहते हैं
- दासप्रथा एक प्राचीन प्रथा रही है, इतिहास में इसका विवरण मिलता है। इसका उल्लेख मेगस्थनीज के लेख में भी मिलता है। लेकिन भारत में दासों का इतिहास तुर्कों के आगमन से मिलता है।
- भारत में सर्वप्रथम जिस सल्तनत की स्थापना हुई उसे दास वंश कहा गया है। इसे यामिनी या इलबरी भी कहा जाता था। यामिनी या इलबरी, तुर्कों की खास प्रजाति थी, जिससे पूर्व मध्यकालीन सुल्तान जुड़े थे,जबकि दास सुल्तान उन्हें कहते थे जिन्होंने अपनी योग्यता से शासक पद हासिल किया था।
- ऐबक से लेकर फिरोज शाह तुगलक तक इन की संख्या बढती गई लेकिन फिरोज तुगलक के शासन काल में दासों की संख्या 1,80,000 तक पहुंच गई। अकबर दासों को माल कहकर पुकारा करता था।
- मुगल काल में भी इनकी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया। अकबर ने 1562 में दास प्रथा को बन्द करवा दिया था लेकिन बाद के शासकों के समय यह प्रथा पुनः जारी रही। आधुनिक काल तक दासों का प्रचलन रहा लेकिन भारत में लॉर्ड एलिनबरॉ के काल में 1843 में इस प्रथा को सदैव के लिए समाप्त कर दिया गया।
सती प्रथा किसे कहते हैं
- सती का विवरण ऋग्वेदिक काल से मिलता है। प्राचीन भारत में यह प्रथा प्रचलन में थी सुल्तानों के शासनकाल में भी यह प्रथा प्रचलित रही थी लेकिन इसको रोकने की मुहम्मद तुगलक के अतिरिक्त किसी ने कोशिश नहीं की।
- हिन्दुओं में सती प्रथा का प्रचलन था। पति की मृत्यु के बाद स्त्री अपने पति की चिता के साथ अपने को जला देती थी। यह कई प्रकार का होता था। सहभरण, अनुसरण, सहगमन तथा अनुगमन। इब्नबतूता के अनुसार धर्म के आधार पर ब्राहमण सती के लिए प्रोत्साहित करता था डा0 अशरफ के अनुसार हिन्दु समाज में विधवाओं की उपेक्षा के कारण स्त्रियां पति की मृत्यु के बाद सती हो कर अपने शरीर का त्याग कर देती थीं।
- अबुल फजल के अनुसार सती होने के लिए उनके परिवार वाले बाध्य करते थे। कुछ लोक लज्जा के कारण जल कर भस्म होना चाहती थीं। अधिकांश रीति रिवाज के कारण सती होना स्वीकार करती थीं।
- इब्नबतूता के अनुसार सती होने से पूर्व सरकार की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था। हूमायूं तथा अकबर ने सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
- 19 वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय तथा अन्य समाज सुधारकों के अथक प्रयास के परिणामस्वरूप यह कुप्रथा समाप्त हो गई।
- सती होने वाली स्त्रियों के सम्मान में पाषाण स्मारक लगाये जाते थे जिन्हें सती मन्दिर भी कहा जाता था। बदांयूं में तो ये स्मारक आसानी से देखे जा सकते थे |
- इल्तुतमिश ने भी इस पर प्रतिबन्ध लगाने का अथक प्रयास किया परन्तु असफल रहा। इस प्राचीन व्यवस्था को अंग्रेजों के शासनकाल में 1829 में अधिनियम के अनुसार समाप्त करके रोक लगा दी गई।
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