उत्तरवैदिक काल में आर्थिक जीवन | उत्तरवैदिक काल में जाति प्रथा | Uttar Vedik Kal Aarthik Jeevan
उत्तरवैदिक काल में आर्थिक जीवन
- उत्तरवैदिक काल में लोहा तकनीकी
- उत्तरवैदिक काल में कृषि
- उत्तरवैदिक काल में पशुपालन
- उत्तरवैदिक काल में धातुकर्म
- उत्तरवैदिक काल में अन्य धन्धा
- उत्तरवैदिक काल में वाणिज्य
- उत्तरवैदिक काल में सामाजिक जीवन
- उत्तरवैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था
- उत्तरवैदिक काल में विकास
- उत्तरवैदिक काल में जाति प्रथा
- उत्तरवैदिक काल में ब्राह्मण
- उत्तरवैदिक काल में क्षत्रिय
- उत्तरवैदिक काल में वैश्य
- उत्तरवैदिक काल में शूद्र
- जाति प्रथा के लाभ और हानि
- उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था
- उत्तरवैदिक काल में परिवार
- उत्तरवैदिक काल में स्त्रियाँ
- उत्तरवैदिक काल में विवाह
- उत्तरवैदिक काल में वेशभूषा
- उत्तरवैदिक काल में भोजन
उत्तरवैदिक काल में आर्थिक जीवन
- उत्तरवैदिक काल में एक स्थान पर बसने के परिणामस्वरूप ऋग्वैदिक काल की तुलना में कई क्षेत्रों में काफी विकास हुआ। ऋग्वैदिक काल की ग्रामीण व्यवस्था अब समाप्त होती जा रही थी और लोग नागरीय व्यवस्था की ओर उत्तरवैदिक काल में अग्रसर हो रहे थे।
उत्तरवैदिक काल में लोहा तकनीकी
- लोहा तकनीकी विकास को ध्यान में रखकर अगर देखा जाये तो हम पायेंगे कि उत्तरवैदिक काल ही वह काल है। जब भारत में लोहा युग का आरम्भ हुआ। लोहा के पहले कांसा ही तकनीकी विकास के लिए मुख्य धातु था। यह ताम्बा और टीन को मिलाकर बनाया जाता है।
- कांसा के बाद धीरे-धीरे लौह-युग की शुरूआत उत्तर वैदिक काल से हो गई। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहा के लिए श्याम अयस् या कृष्ण अयस् शब्द मिलता है। भारत में लोहे का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा पूर्व 1000 में शुरू हो गया।
- इस काल में आधुनिक पाकिस्तान में स्थित गांधार प्रदेश में खुदाई से कई औजार मिले हैं। लगभग नौवीं सदी ईसा पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों की खुदाई से लोहे के फलक मिले हैं। ये फलक तीर एवं भाले में लगाकर दुश्मनों पर चलाये जाते थे। लोहे के इन्हीं हथियारों से लगता है कि आर्यों ने अपने बचे हुए दुश्मनों को हराया होगा।
- अनुमान किया जाता है कि उत्तरी गंगा की घाटियों में जो जंगल थे वे लोहे की कुल्हाड़ी से ही साफ किये गये होंगे। बहुत ज्यादा वर्षा नहीं होने के कारण यहाँ के जंगल तो बहुत घने नहीं होंगे लेकिन फिर भी लकड़ी की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए इन्हें जलाने से अधिक उपयोगी काटना रहा होगा।
- लोहे के अलावा किसी दूसरी धातु से मोटी-मोटी लकड़ियों का काटना आसान नहीं आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भागों में तो ईसा पूर्व सातवीं सदी से लोहे के औजार मिलने लगते हैं।
- लोहे के इस तकनीकी विकास ने उत्तरवैदिक काल के बाद के कालों को भी काफी प्रभावित किया खुदाई से प्राप्त लोहे के अनेक औजारों का अध्ययन करने से पता चलता है कि लोहे से शुरू-शुरू में लड़ाई के औजार बनाये गये लेकिन बाद में इसका प्रयोग कृषि एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी होने लगा।
उत्तरवैदिक काल में कृषि
- उत्तरवैदिक काल में कृषि संबंधी लोहे के औजार बहुत कम मिले हैं फिर भी अब लोगों की जीविका का मुख्य साधन कृषि हो गया था। उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग तथा आस-पास के अनेक क्षेत्रों में खुदाई से लोहा मिला है। लोहे के साथ-साथ चित्रित धूसर, मृद्भांड के भी कई टुकड़े पाये गये हैं। इससे अनुमान किया जा सकता है कि उत्तर वैदिक आर्य इस तरह के बर्तनों का प्रयोग करते थे।
- इसका अर्थ हुआ कि आर्य लोगों ने खानाबदोश की जिन्दगी छोड़कर एक जगह बसना शुरू कर दिया था। ऋग्वैदिक काल की तरह इस समय भी लोग झोपड़ी में अपने पशुओं के साथ किसी तरह रहते थे। लेकिन खेती इन लोगों ने ऋग्वैदिक काल की तुलना में अधिक पैमाने पर शुरू कर दिया था। खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए पहले की अपेक्षा अब अच्छे प्रकार के हल बनने लगे थे। खाद का प्रयोग भी होने लगा था।
- इसके परिणामस्वरूप खेत अधिक उपजाऊ हो गये और अन्न की पैदावार बढ़ गयी। साल में लगभग तीन फसलें होती थीं। खेत में पानी डालने के लिए सिंचाई का भी प्रबंध इस काल में होने लगा। अब चावल, दलहन, गेहूँ, तिल आदि की पैदावार होने लगी।
- खेत में फसलों की ठीक से रक्षा करना किसानों के लिए इस समय एक विकट समस्या थी अनेक प्रकार के जहरीले कीटाणु, चूहों, टिड्डी, ओले आदि से फसल को बहुत नुकसान हो जाता था। फिर आवश्यकता से बिल्कुल कम वर्षा या आवश्यकता से बहुत अधिक वर्षा होने के कारण सूखा एवं बाढ़ अलग समस्याएँ थीं। इनसे बचने के लिए किसानों के पास जादू-टोना ही एकमात्र उपाय था। सिंचाई के लिए पानी नालियों के द्वारा खेतों तक पहुँचाया जाता था। इन नालियों में पानी नदियों से लाया जाता था। खेती के काम के लिए भैंसा पालतू पशु था।
- हल से खेत जोतने के सम्बन्ध में छह, आठ, बारह और चौबीस बैलों का प्रयोग उत्तर वैदिक आर्यों द्वारा किया जाता था। इस काल के लोग सेम से भी परिचित थे। खेती का महत्त्व जैसे-जैसे बढ़ता गया, पशुओं को पालने की प्रवृत्ति लोगों के बीच से समाप्त होने लगी।
- परिणाम यह हुआ कि आर्य अब पशुओं का पालना और खानाबदोश की जिन्दगी को छोड़ते चले गये। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि आबादी दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी और मात्र पशुओं को पालकर जीवन भर गुजर-बसर करना अब मुश्किल होता जा रहा था।
उत्तरवैदिक काल में पशुपालन
- पशुपालन युग की अर्थव्यवस्था छिन्न भिन्न हो रही थी क्योंकि आबादी बढ़ने के साथ-साथ लोहे की मदद से आर्य लोगों ने एक जगह बसकर खेती करना प्रारंभ कर दिया था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि सारे पशुओं को आर्य परिवार अपने यहाँ से निकालकर भगा दे रहे थे। बहुत से लोग खेती के साथ-साथ पशुपालन का धंधा भी अपनाये हुए थे।
- अभी भी किसानों के पास बकरी, भेड़, बैल, गाय आदि पशु काफी मात्रा में थे। धनी व्यक्तियों एवं राजाओं के पास भी पशु काफी मात्रा में अभी भी थे।
- उत्तर वैदिक समाज में भी गायों की पूजा होती थी। गाय का अभी भी दूध के कारण आर्थिक महत्व था पशुओं को चरने के लिए गांव से सटे हुए अलग मैदान की व्यवस्था थी जिसमें पशुओं को चरने के लिए घास आदि रहती थी। दूध-दही का प्रयोग स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए किया जाता था। गाय दान में भी दी जाती थी।
उत्तरवैदिक काल में धातुकर्म
- ऋग्वैदिक काल में कुछ ही धंधों की चर्चा हम पाते हैं, लेकिन उत्तरवैदिक काल के साहित्य में कई नये धंधों की चर्चा मिलती है। इस काल में सोना काफी प्रमुख धातु हो गया।
- उत्तर वैदिक साहित्य में इनका उल्लेख कई बार हुआ है। सोने की पवित्रता पर बहुत जोर डाला गया है। अनेक प्रकार के स्वर्णाभूषणों की चर्चा उत्तर वैदिक ग्रन्थों में मिलती है। चांदी के गहनों का भी प्रयोग यहां के लोग करते थे। इस काल में धातु गलाने का धंधा चल पड़ा था। यह तो बताना बड़ा मुश्किल लगता है कि लोहे का इस्तेमाल कितना किया जाता था।
- लेकिन ताम्बा के बारे में हम कह सकते हैं कि इस धातु से अनेक तरह के सामान बनाये जाते थे। लोहे की तुलना में ताम्बा का प्रयोग अभी भी अधिक मात्रा में किया जाता है। टीन और सीसे का प्रयोग भी बाद के वैदिककाल में मिलता है।
उत्तरवैदिक काल में अन्य धन्धा
- बाद के वैदिक साहित्य में और भी नये धंधों का उल्लेख मिलता है।बढ़ई, बुनकर, चर्मकार, जौहरी, रंगसाज, कुम्हार आदि का धंधा काफी जोरों से चल पड़ा था। मछुआ भी मछली मारकर अब अपनी जीविका चलाने लगा था। सारथि की बहाली रथों को चलाने के लिए होती थी। गड़रिये भेड़ चराकर अपना काम चला लेते थे। जंगल से फंसाकर लाये हुए पशु-पक्षी को बेचकर व्याधा अपना खाना-पीना कर लेता था। जुलाहा, नाई, धनुष बनाने वाले तथा चटाई और रस्सी बनाने वाले ने भी अपना अपना धंधा स्वतंत्रतापूर्वक करना शुरू कर दिया था।
- बाद के ग्रन्थों के अनुसार वस्त्रों को बनाने का काम भी प्रमुख उद्योग की श्रेणी में आ गया था। इस काल में ऊनी वस्त्रों का निर्माण काफी मात्रा में होता था। सन से बोरा एवं चटाईयाँ बनायी जाती थीं। धनी वर्ग के लोग श्रौम नामक वस्त्र पहनते थे, जानवरों की खाल का उपयोग ब्रह्मचारी एवं तपस्वी करते थे।
- अनुमान किया जाता है कि कपड़ा बुनने के लिए करघा जैसी कोई चीज होती थी। बुनाई का काम अधिकतर स्त्रियाँ ही करती थीं। कपड़ा रंगने वाला रंगसाज भी होता था। चाक के सहारे कुम्हार मिट्टी के बर्तन भी बनाया करते थे। मिट्टी के बर्तनों में घड़ा, प्याला, कटोरा, तस्तरी आदि अधिक प्रचलित थे। चिकित्सा के दृष्टिकोण से तन्त्र मंत्र का बड़ा महत्त्व था।
- व्यापारिक संघ-बाद के वैदिककाल में आर्थिक उन्नति व्यापार बढ़ने के कारण हुई। नये-नये व्यापारियों ने सुरक्षा एवं सुविधा के दृष्टिकोण से संगठित होकर रहना पसंद किया। इन लोगों का संगठन लगता है श्रेष्ठी नाम से जाना जाता था। श्रेष्ठ अर्थात प्रधान या मुख्य शब्द से श्रेष्ठी बना है। बाद के वैदिक ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण में श्रेष्ठी शब्द की चर्चा है। यह शब्द शायद किसी व्यापारियों के संघ के प्रधान या श्रेष्ठ के लिए किया गया है। उत्तर वैदिककाल के कुछ दूसरे ग्रंथ में गण एवं गणपति शब्द भी मिले हैं। ये शब्द भी लगता है किसी व्यावसायिक संगठन के लिए ही प्रयोग किये गये हैं। उत्तर वैदिक काल में व्यापार के कारण व्यापारिक संगठन तो होंगे ही लेकिन ग्रंथ में इनकीचर्चा विस्तृत रूप से नहीं मिलती है।
उत्तरवैदिक काल में वाणिज्य
- उत्तरवैदिक काल के कई ग्रन्थों में हमें वाणिज्य शब्द मिलता है, जिससे पता चलता है कि इस काल में व्यापार बड़े पैमाने पर होने लगा था। व्यापारी व्यापार के सिलसिले में एक स्थान से दूसरे स्थान में जाया करते थे। ये व्यापारी मुख्य रूप से वैश्य ही होते थे।
- सूदखोर को कुसुदिन कहा गया है। विनिमय का माध्यम मुद्रा की चर्चा तो प्रत्यक्ष रूप से हमें नहीं मिलती है लेकिन ग्रन्थ में निष्क शब्द की चर्चा मिलती है। विद्वानों ने अनुमान किया है कि निष्क सिक्के का द्योतक है। लेकिन विद्वान अभी किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं।
- खरीद बिक्री में अभी सामान के बदले सामान वाली बात प्रचलित थी। गाय को सिक्का के रूप में इस्तेमाल करके भी कोई चीज खरीदी जा सकती थी।
- कुछ ग्रन्थ में शतमान्य नामक शब्द मिला है। कहते हैं, यह भी एक प्रकार का सिक्का था।
- इस बात का समर्थन प्रकांड विद्वान डॉ. आर. भण्डारकर ने भी किया है। कुछ अन्य विद्वान इसे मुद्रा नहीं मानते हैं। शतमान्य के बारे में उनका कहना है कि यह मात्र क्रय-विक्रय का साधन था।
- डॉ. भण्डारकर ने बाद के ग्रन्थ में पाये गये कृष्ण एवं पाद नामक शब्द को भी मुद्रा माना है। ये यहाँ तक कहते हैं कि पूर्ववैदिक काल से ही मुद्रा का प्रयोग पाया जाता है। वैसे निश्चित तौर पर तो मुद्रा ईसा पूर्व सातवीं सदी के पहले नहीं मिलती है।
उत्तरवैदिक काल में सामाजिक जीवन
- पूर्ववैदिक काल के लोगों के खानाबदोश की जिन्दगी एक तरह से सरल, साधारण एवं सीधी थी। इनका जीवन बहुत ज्यादा व्यवस्थित नहीं था तो समाज में तनाव भी कम था। उत्तरवैदिक काल में स्थायी जीवन व्यतीत करने के फलस्वरूप इनका जीवन काफी व्यवस्थित हो गया था। इसके परिणामस्वरूप आर्यों के बीच सामाजिक विभाजन बड़ा मजबूत हो गया। सामाजिक विभाजन वर्ण पर आधारित था।
उत्तरवैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था
- अलग-अलग विद्वानों ने वर्ण शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न ढंग से बताया है। वर्ण का शाब्दिक अर्थ रंग होता है। इसका दूसरा अर्थ प्रतिष्ठा एवं स्थिति भी होता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि रंग एवं व्यवस्था के संयोग से वर्णव्यवस्था बनी। आधुनिक काल में जाति शब्द भी वर्ण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उत्तरवैदिक काल में चार वर्णों की चर्चा हम पाते हैं जिनकी उत्पत्ति देवता के अलग-अलग अंग से हुई। कहते हैं, मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य एवं पैर से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। जिस देवता के मुख, भुजा, जंघा एवं पैर से अलग-अलग वर्णों की उत्पत्ति हुई वह कल्पना पर आधारित है। इस सम्बन्ध में किसी तरह का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है। अतः अध्ययन की सुविधा के लिए उस देवता को प्रथम मानव या ब्राह्मण या देवता या कुछ और भी कह सकते हैं। इस तरह उत्तरवैदिक काल के सम्पूर्ण समाज को एक शरीर मानकर इसे चार भाग में बाँट दिया गया है। इस विभाजन का आधार धार्मिक है। तर्क की कहीं कोई गुंजाइश नहीं।
- इस सम्बन्ध में रौसन महोदय ने भी अपना विचार दिया है। वर्ण व्यवस्था का आधार वे रंग-भेद को मानते हैं। आ का रंग गोरा और शरीर सुडौल एवं सुगठित था। भारत में आने पर उनका सम्पर्क अनार्यों से बढ़ा। अनार्य देखने में सांवले तथा कद के छोटे थे। इनकी नाक भी चपटी थी। कहा जा सकता है कि अनार्य देखने में बदसूरत थे। अतः आर्य उनके साथ घुलना मिलना नहीं चाहते थे। धीरे-धीरे आर्यों एवं अनार्यों का स्वतंत्र पृथक् अस्तित्व रहने के कारण दोनों रंग या वर्ण के आधार पर दो वर्गों में विभाजित हो गये। यहाँ के मूल निवासी अनार्य की तुलना में बाहर से आकर अपने को आर्य कहने वाले लोग अपने को श्रेष्ठ मानने लगे। इस तरह प्रारंभिक दौर में रंग के आधार पर समाज में दो ही वर्ग था। कोई महत्त्वपूर्ण रास्ता नहीं दिखलाई पड़ने के कारण सांवले लोगों के बीच कोई महत्त्वपूर्ण विभाजन नहीं हो सकता। सुन्दर दिखाई देने वाले लोग अपने को आर्य कहने के साथ-साथ द्विज भी कहने लगे। बाद में चलकर ये द्विज तीन श्रेणी में बंट गये, जिन्हें क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य कहा जाने लगा। इस तरह शूद्र मिलकर चार वर्ण हो गये।
उत्तरवैदिक काल में विकास
- ब्राह्मणों के प्रयास से उत्तरवैदिक काल का समाज बहुत ही ठोस ढंग से चार भागों में बंट गया था। नीचे का दो भाग अर्थात वैश्य एवं शूद्र तो जबर्दस्त ढंग से उत्पादन के कार्य में लगे हुए थे लेकिन उत्पादन के लिए बिना किसी तरह का परिश्रम किये हुए ब्राह्मण वर्ग सुविधा प्राप्त वर्ग में थे। ब्राह्मण एवं क्षत्रियों का ही उत्पादित वस्तुओं पर नियंत्रण था। वैश्यों एवं शूद्रों द्वारा उत्पादित सामानों का एक ठोस हिस्सा बिना विशेष परिश्रम के ये लोग पूजा-पाठ एवं सुरक्षा के नाम पर ले लेते थे।
- ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेष सुविधा प्राप्त वर्ग में थे तो जरूर लेकिन दोनों वर्ग आपसी तनाव भी रखते थे। उत्तर वैदिक ग्रन्थ में एक ऐसे दृश्य का वर्णन है जिसमें ब्रह्म तथा क्षेत्र के बीच लड़ाई दिखाया गया है। इसी तरह मित्र एवं वरुण के बीच भी लड़ाई की बात बतायी गई है। इन उल्लेखों के आधार पर विद्वानों का कहना है कि ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के बीच स्वार्थवश आपसी तनाव रहता ही था। आपसी तनाव का कारण तो अपना-अपना स्वार्थ था ही, वैश्यों एवं शूद्रों का शोषण करने के लिए ये दोनों वर्ग आपस में मिलकर एक भी हो जाते थे। दोनों उच्च वर्ग में आपसी संघर्ष का दूसरा कारण समाज में प्रथम स्थान पाना भी था। लेकिन इनके द्वन्द्व का मुख्य कारण तो जैसा कि ऊपर भी बताया जा चुका है, वैश्यों एवं शूद्रों द्वारा किये गये उत्पादन में से अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करना था।एक तरफ ब्राह्मणों को हम देखते हैं कि ये लोग केवल लेना जानते थे अनेक स्रोतों से इन्हें बहुत ज्यादा धन की प्राप्ति होती थी। ये लोग वैश्य एवं शूद्रों से लेने के अलावा क्षत्रियों से भी कुछ-न-कुछ प्राप्त कर लेते थे। दूसरी और हम क्षत्रियों को देखते हैं जो केवल वैश्वों और शूद्रों से ही वसूल पाते थे। ब्राह्मणों से वसूलना तो दूर रहा, उन्हें उल्टे किसी न किसी धार्मिक अनुष्ठान के बहाने देना ही पड़ता था। अतः क्षत्रियों को अधिक धन की आवश्यकता थी। चूंकि क्षत्रियों का मुख्य काम ही युद्ध करना था। अतः ब्राह्मणों को उनसे परास्त होना ही पड़ता था। अंत में हम पाते हैं कि उत्पादन पर मुख्य रूप से क्षत्रियों का ही आधिपत्य हो गया। आवश्यकता से अधिक सामान या अतिरेक पर अब क्षत्रियों का नियंत्रण हो गया, ब्राह्मणों को समझौता करना ही पड़ा क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं था, वैसे ब्राह्मण प्रथम श्रेणी में अपना स्थान बनाए रखे लेकिन यह श्रेणी मुख्य रूप से आदर पाने के दृष्टिकोण से ही उपयोगी थी। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र तीनों को क्षत्रियों से सम्पर्क रखना आवश्यक था। इस तरह क्षत्रियों की श्रेष्ठता सबने स्वीकारी। इतना ही नहीं, क्षत्रियों की प्रमुखता ब्राह्मणों की तुलना में इस बात से भी प्रमाणित होती है कि राज्याभिषेक के अवसर पर ब्राह्मण स्वयं क्षत्रिय राजा को परमश्रेष्ठ ब्राह्मण की पदवी से विभूषित करता है। बाद में चलकर तो हमें इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण धर्मों को क्षत्रियों द्वारा कई बार चुनौती दी गई। क्षत्रिय राजा अपने उद्देश्य की सफलता के लिए समाज के सभी वर्गों को आतंकित भी करता था।
- बाद के वैदिक समाज में वैश्य वर्ग का स्थान तीसरा था बनजारा एवं पशुचारण की अवस्था को पार करने के पश्चात आर्यों ने व्यवस्थित ढंग से कृषि के काम को अपना लिया। आर्य समाज की यह एक नई विशेषता हो गई। इस व्यवस्था में खेती, पशुपालन एवं व्यापार करने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से वैश्य वर्ग के कंधे पर आयी। वैश्यों ने अनेक बस्तियों के बीच आर्थिक संबंध कायम किये। धीरे-धीरे वैश्यों का एक वर्ग किसानों हो गया। इनका मुख्य काम खेती करना हो गया। दूसरा वर्ग व्यापारियों का हो गया। ये व्यापारी वर्ग शुरू-शुरू में अधिक सम्पन्न किसानों के बीच से आये क्योंकि वे ही व्यापार में हुए आर्थिक नुकसान को बर्दाश्त करने की स्थिति में थे।
- उत्तर वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि काफी धनवान होने के बावजूद समाज में वैश्यों का स्थान ब्राह्मण एवं क्षत्रियों की तुलना में निम्न था। वैश्य वर्ग का मुख्य काम ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के खर्च को चलाना था। इनके द्वारा बलि, शुल्क, भाग आदि राजा को दिये जाते थे। वैश्यों को राजा अपनी सुविधा के लिए इतना शोषण करता था कि ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार राजा को उत्पादक वर्ग अर्थात वैश्यों एवं शूद्रों का भक्षक कहा गया है। किसानों को भी अपनी इच्छा के अनुसार चलने के लिए क्षत्रिय राजा हमेशा दबाव डाले रहता था। राजा की इस प्रवृत्ति का धार्मिक ग्रंथों ने विरोध नहीं बल्कि समर्थन किया है। राजा के आदेश नहीं मानने वाले वैश्य को बहुत ही बुरा आदमी कहा गया है। किसानों का आर्थिक शोषण हो इसका प्रयास न केवल राजा ने बल्कि ब्राह्मणों ने भी किया। पक्षी, कीड़े-मकोड़ों आदि से फसल की काफी बर्बादी होती थी, जो कृषकों के लिए बहुत बड़ी समस्या थी। इस समस्या का समाधान तो राजा के लिये करना दूर रहा उल्टे कर नहीं देने के कारण राजा किसी भी किसान की सम्पत्ति एवं भूमि छीन सकता था।
- संकट की स्थिति में राजा सफलता के लिए राज्य के सभी लोगों के साथ बैठकर खाना खाता था लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि राजा और प्रजा में अच्छा संबंध था। युद्ध के काल में वैश्यों से सैनिक सेवाएँ भी राजा के द्वारा ली जाती थीं। बाद के वैदिक ग्रन्थों में राजा एवं ब्राह्मणों के ऐसे कठोर व्यवहारों के विरोध में वैश्यों द्वारा विद्रोह करने की चर्चा हमें नहीं मिलती है। लेकिन एक बात की महत्वपूर्ण जानकारी होती है कि ब्राह्मणों ने पुनर्जन्म पर बड़ा जोर दिया है। अच्छा कर्म करने से अगले जन्म में लाभ होगा' ब्राह्मणों के द्वारा इस कथन से ऐसा लगता है कि वैश्यों का शोषण करने के लिए ही प्रचार किया गया ताकि वैश्य राजा से विद्रोह न कर सकें। वैदिक ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख भी हमें मिलता है कि राजा द्वारा लगाए गये भारी कर को नहीं हो सकने के कारण दक्षिण पंचाल के लोग उत्तर में चले गये। वैश्यों के बीच अनेक भेदों की चर्चा भी मिलती है। ये टुकड़ों में बंटने लगे थे। इनके बीच कृषि और व्यापार को लेकर आपसी तनाव भी बढ़ता जा रहा था। कुछ वैश्य तो कृषि का काम करने लगे थे. कुछ वैश्य अलग-अलग काम करने के कारण सोनार, लोहार, बढ़ई, रथकार, कुम्हार आदि कहलाने लगे। शूद्रों की हालत और बुरी थी। इनका वर्ग चौथा था। तीनों ऊँचे वर्गों की सेवा करना ही उनका कर्त्तव्य था। राजा अपनी इच्छा के अनुकूल उसे मार सकता था और आतंकित कर सकता था शूद्रों की श्रेणी में वैसे मूल कबीले के लोग थे जिन्हें आर्यों ने युद्ध में हरा दिया था। आर्यों एवं अनार्यों के आपसी मेल से जो बच्चा हुआ उसे भी शूद्र की श्रेणी में रख दिया गया। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार वैसे आर्य भी शूद्र की श्रेणी में रख दिये गए जो आर्यों के द्वारा ही समतल भूमि पर अधिकार करने के दौरान परास्त कर दिये गये थे। मुख्यतः तीन रास्तों से शूद्रों का आगमन हुआ। वैदिक ग्रन्थों में शूद्रों को हरेक प्रकार की सेवा करने वाला सेवक माना गया है। इनका वध भी कर दिया जाये तो वह अपराध नहीं कहा जाता था।
उत्तरवैदिक काल में जाति प्रथा
- समाज के उपर्युक्त विभाजन के आधार पर सबसे ज्यादा लाभ ब्राह्मणों को था। समय बीतने के साथ-साथ ब्राह्मण भी इस बात को समझ चुके थे। इस विभाजन में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हो इसके लिए धर्म का सहारा लेना आवश्यक था। अतः उन्होंने देवताओं के मुंह से लेकर पैर तक में बीच के चारों वर्णों को उत्पन्न करा दिया।
- इस वर्ण व्यवस्था को अमर रूप देने के लिए वर्ण को कर्म या पेशा के अनुसार नहीं बल्कि वंश या जन्म के अनुसार मान लिया गया। अब चारों वर्गों के एक साथ खाने पर रोक लगा दी गयी। इसी समय विवाह के नियम भी एक निश्चित दायरे में बना दिये गये। एक ही वर्ण में या एक वर्ग के व्यक्ति की शादी दूसरे वर्ण में करने के संबंध में भी नियम बना दिये गये। यह ध्यान देने की बात है कि वर्षों से सम्बन्धित जो उपर्युक्त नियम बने उनसे केवल चार वर्णों के लोग ही प्रभावित नहीं थे बल्कि अलग-अलग वर्गों में भी जो अनेक उपवर्ण या अनेक पेशे के लोग, जैसे किसान, शिल्पकार, कर्मकार, सैनिक, राजा आदि बने वे भी प्रभावित हुए। अलग-अलग व्यवसाय के आधार पर जातियाँ बन गयीं। जाति शब्द जन्म से बना है। जाति वाली स्थिति में वर्ण का अब विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। ब्राह्मण वर्ण में कुछ तो पूजा-पाठ का काम करने लगे, कुछ अध्ययन अध्यापन का कार्य और कुछ ब्राह्मण अपने मवेशियों के साथ बहुत छोटे-छोटे समूहों में पूर्व के घने जंगलों में चले गये। ये लोग बिना अस्त्र-शस्त्र के जंगल में चले जाते थे और जंगली जातियों से मैत्री कर लेते थे। दरिद्रता एवं अहानिकर स्वभाव के कारण ब्राह्मण आदिवासियों या निषादों के साथ रहने लगे। क्षत्रियों में भी कुछ क्षत्रिय तो राजा बन गये और कुछ क्षत्रिय उसके दरबार में सैनिकों का काम करने लगे। कुछ वैसे क्षत्रिय भी थे जिनको व्यापारी अपनी सुरक्षा के लिए साथ में लेकर जंगलों से होकर एक जगह से दूसरी जगह जाया करते थे। धीरे-धीरे बदले में व्यापारी उन्हें निश्चित रकम देते थे। ये क्षत्रिय धीरे-धीरे भृत्तिभोगी समूह बन गये और भाड़ा मिलने पर किसी के लिए भी लड़ने के लिए तैयार रहते थे। धीरे-धीरे इन ब्राह्मणों, क्षत्रियों या वैश्यों का अलग-अलग पेशा भी वंशानुगत होता गया। इस तरह पेशा एवं जाति में घनिष्ठ संबंध होने लगा। परिणामस्वरूप एक वर्ण से निकलकर दूसरे वर्ण में जाने पर स्वतः रोक लग गई। उपर्युक्त स्थिति में अब ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य शूद्र-कन्या से विवाह कर सकते थे लेकिन शूद्र मर्द उच्च वर्ण की लड़की से शादी नहीं कर सकता था। इसका कारण यह था कि उत्तरवैदिक काल में समाज में वर्णभेद की स्थिति मजबूत होती रही थी। ययन की सुविधा के लिए उत्तर वैदिक में चारों वर्गों के मुख्य कार्यों को समझना जरूरी है।
उत्तरवैदिक काल में ब्राह्मण
- वर्णव्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों की स्थिति बड़ी अच्छी थी। ये मुख्य रूप से धार्मिक कार्यों से संबंधित थे। ये लोग अनेक विषयों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करते थे। अपने यहाँ शिष्यों को अनेक विषय पढ़ाते भी थे। मुख्य रूप से वेद पढ़ना तथा शिष्यों को पढ़ाना इनका काम था। इसके अलावा अनेक प्रकार की कठिन प्रक्रियाओं से प्रभावित यज्ञ में पुरोहित का काम करते थे। इनके धार्मिक अनुष्ठान इतने जटिल बन गये कि उन्हें याद रखना साधारण बात नहीं थी। इन्हें याद करने में वर्षों लग जाते थे। यह तो वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है कि कुछ ब्राह्मणों ने इन कठिन चीजों को याद कर लिया। मंत्रों को भी कण्ठस्थ याद कर लिये। यज्ञ संबंधी सारे नियम भी उन्हें कण्ठस्थ याद रहते थे। इस तरह समाज में सम्मानपूर्वक स्थान इन्होंने बना लिया। इनका सम्मान उस स्थिति में और बढ़ गया जब राजा भी उनको पुरोहित बनाकर न केवल धार्मिक कार्यों के लिए अपने दरबार में रखने लगा बल्कि राजकाज के कामों में इनसे राय लेने लगा।
- इस तरह ब्राह्मण ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया। समाज के लोगों को प्रभावित करने के लिए ये धार्मिक सेवा खूब करने लगे। अपने कठिन परिश्रम के बल पर इस वर्ग ने अपने बीच से अनेक ऋषि मुनि, विद्वानों को पैदा किया। इन्होंने जीवन एवं मृत्यु से संबंधित अनेक समस्याओं को तर्क की कसौटी पर खरा उतारने का प्रयास किया। मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना आदि रहस्यमय विषयों पर भी ब्राह्मणों ने समाज के लोगों को बताना शुरू किया। इन सारे क्रियाकलापों में उनका सबसे बड़ा स्वार्थ यह था कि इसी के आधार पर समाज में ये लोग अपना महत्त्व बनाये रखना चाहते थे। अंत में ये लोग अपनी महत्ता बनाये रखने के लिये कई तरह का प्रपंच करने उत्तरवैदिक काल में लगे। अपनी महत्ता दर्शाने के लिए झूठ बोलने में थोड़ा भी नहीं हिचकिचाते थे। परिणामस्वरूप इनकी महत्ता धीरे-धीरे घटती गई और छठी शताब्दी ईसा पूर्व में अपनी गलत गतिविधि के कारण ये नये धर्मों के भार से बहुत दिनों के लिए धराशायी हो गये।
उत्तरवैदिक काल में क्षत्रिय
- आर्यों के समाज में एक कबीले का दूसरे कबीले के साथ युद्ध होता रहता था। फिर एक राज्य का दूसरे राज्य से भी युद्ध होता रहता था। इस अवसर पर समूची जाति के बलिष्ठ एवं योग्य युवक युद्ध करने जाते थे। युद्ध के बाद फिर वे अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते थे। धीरे-धीरे युद्ध प्रतिदिन की चीज हो गई और हमेशा के लिए नौजवानों का एक बड़ा जत्था युद्ध में व्यस्त रहने लगा। इस तरह राज्य को हमेशा के लिए सेना रखने की आवश्यकता महसूस हुई। यही सेना क्षत्रिय के नाम से जानी जाने लगी, जिसका मुख्य काम राज्य की सुरक्षा एवं सीमा का विस्तार करना था। अब क्षत्रिय एक अलग वर्ग ही बन गया।
उत्तरवैदिक काल में वैश्य
- कृषि एवं व्यापार करने वाला तीसरा वर्ग वैश्य कहलाता था, जो ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के बाद वाली श्रेणी में था। इसका मुख्य कर्त्तव्य समाज की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। समाज का खर्च चलाने का भार एक तरह से इसी के कंधे पर था। ये लोग ब्राह्मणों को दान देते थे, यज्ञ कराते थे तथा धार्मिक कृत्यों में आर्थिक सहायता देते थे।
उत्तरवैदिक काल में शूद्र
- सबसे निचला वर्ण शूद्र कहलाता था। यह नाम लगता है किसी कबीले से आया था। शूद्र वैसे दास थे, जो पशुओं की भांति सम्पूर्ण कबीले की सम्पत्ति होते थे। प्राचीन यूनान और रोम के जैसा शूद्रों की खरीद-बिक्री भारत में वैदिक काल में नहीं होती थी। इसका कारण यह नहीं था कि भारतीय दयालु थे। वास्तव में वस्तु उत्पादन और व्यक्तिगत सम्पत्ति का अभी काफी विकास नहीं हुआ था।
बाद में चलकर उपर्युक्त वर्ण अनेक उपवर्णों में
बंट गये। उपवर्गों में बंटने का प्रमुख कारण नया नया पेशा था। नये-नये पेशे में
लगे व्यक्ति समय बीतने के साथ-साथ खानपान या शादी-ब्याह अपने ही पेशे वालों के बीच
करने लगे। धीरे-धीरे एक जाति अपने को दूसरी जाति से भिन्न समझने लगी।
जाति प्रथा के लाभ और हानि
एक सिक्के के दो पहलू के समान जाति प्रथा से
कुछ लाभ हुए तो कुछ हानि।
जाति प्रथा के लाभ
- जाति प्रथा के कारण जिम्मेदार व्यक्तियों की संख्या बढ़ी। जिस तरह संयुक्त परिवार में आलसी व्यक्तियों की संख्या ज्यादा होती है और जब लोग पृथक् हो जाते हैं तो सारा आलसीपन भुलाकर भोजन के लिए दिन रात परिश्रम करना पड़ता है। तरह विभिन्न पेशे में लगने अधिक अधिक उत्पादन होता था। जिसके कारण उत्तरवैदिक काल या उसके बाद की भी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। अलग-अलग कार्यों में काफी निपुणता पाने के लिए भी जाति प्रथा का होना आवश्यक है। इस प्रथा के कारण कोई भी व्यक्ति बचपन से ही यह जानता था कि भविष्य में उसे कौन-सा काम सीखना है। अतः बचपन से ही अपने पिता या अभिभावक का पेशा सीखना शुरू कर देता था। इससे किसी भी विशेष व्यवसाय में निपुण व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाती थी।
जाति प्रथा से हानि
- वर्णों में विभाजन होने से सामाजिक तनाव बढ़ गये। बात-बात पर एक पेशे वाले से दूसरे पेशे वाले के साथ मार-पीट की सम्भावना बनी रहती थी। समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव भी बड़े जोरों से फैला। जाति व्यवस्था के कारण हिन्दुओं का दृष्टिकोण बड़ा संकुचित हो गया। समाज में आपसी एकता का भी अभाव हो गया। इसी एकता के अभाव के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने कई बार भारत में सफलता प्राप्त की। जाति प्रथा के कारण ही धर्म के क्षेत्र में मतभेद बढ़े। लोग अनेक सम्प्रदायों में बंट गये जिससे तनाव और बढ़ा। जाति प्रथा के कारण समाज में छुआछूत का भी भेदभाव बढ़ा।
उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था
- उत्तरवैदिक काल के ऋषियों ने व्यक्ति के जीवन को चार भागों में बांटा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास
- ब्रह्मचर्य की अवधि में व्यक्ति जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष में किसी गुरुकुल में रहकर ज्ञानार्जन करता था। इस काल में व्यक्ति को गुरु के कठोर अनुशासन में रहना पड़ता था। यह काल कठिन साधना का होता था। प्रथम पच्चीस वर्ष किसी ब्रह्मचर्याश्रम में बिताने के बाद दूसरा आश्रम गृहस्थ हो जाता था। जीवन के इस द्वितीय चरण में व्यक्ति धन कमाता था तथा उससे अपने सामाजिक एवं धार्मिक कर्त्तव्यों को पूरा करता था। गृहस्थ जीवन में भी पच्चीस वर्ष तक ही व्यक्ति रहता था। गृहस्थ आश्रम को बहुत ही आदर की दृष्टि से देखा जाता था। वशिष्ठ सूत्र के अनुसार जिस तरह सब छोटी-बड़ी नदियाँ अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह सभी आश्रमों के मनुष्य गृहस्थ आश्रम पर ही निर्भर रहते हैं।
- तीसरा चरण वानप्रस्थ आश्रम था। इस समय पचास वर्ष की अवस्था में व्यक्ति परिवार का भार अपने बेटों को सौंपकर सांसारिक जीवन को त्याग देता था तथा तीसरे चरण में जीवन के मोह त्यागकर, त्याग और तपस्या का जीवन बाहर में व्यतीत करता था। इस तीसरे आश्रम के समय वानप्रस्थ लोग गांव या नगर से बाहर आश्रम बनाकर रहते थे और ब्रह्मचारियों अर्थात प्रथम आश्रम में जाने वाले को विद्यादान देते थे। चौथा चरण परिव्राजक या संन्यास का था। जीवन के इस स्तर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति अब एक स्थान पर बहुत दिनों तक नहीं रुकता था। वह दूर दूर के क्षेत्रों में भ्रमण किया करता था। हमेशा भ्रमण करते रहने के कारण उसे परिव्राजक या संन्यासी कहा जाता था। इस आश्रम में मनुष्य संसार के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता था। फिर ब्रह्म चिन्तन में मस्त होकर मुक्ति के लिए प्रयास करता था। इस तरह वैदिक काल के ब्राह्मणों ने जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आश्रम व्यवस्था को अपनाया।
उत्तरवैदिक काल में परिवार
- परिवार समाज की इकाई थी। इस काल में परिवार पितृसत्तात्मक था, अर्थात परिवार में पिता का ही महत्त्व सबसे ज्यादा था। अनेक परिवारों के संयोग से एक घराना या ग्राम बनता था। प्रारंभिक बस्तियों में परिवार एक-दूसरे से सम्बन्धित हुआ करते थे। वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है, साधारण तौर पर एक परिवार में तीन पीढ़ी तक के व्यक्ति सदस्य के रूप में एक साथ परिवार में रहते थे। इसमें पुरुषों की प्रधानता होती थी। वैदिक ग्रंथों में इस बात की भी चर्चा मिलती है कि भूमि या पशु के लिए आपस में तनाव और यहाँ तक कि मार-पीट भी हो जाया करती थी। अतः वैदिक ग्रन्थों में बहुत सी ऋचाएँ हैं, जिनमें पारिवारिक एकता की शांति को बनाये रखने के लिए प्रार्थना की गई है। एक मर्द कई शादियाँ करते थे तथा ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि पत्नियाँ आपस में लड़ती थीं। वैसे सबसे बड़ी एवं पहली पत्नी का ही पति पर विशेष अधिकार होता था। पुत्र की प्राप्ति से परिवार में खुशी की लहर फैल जाती थी, दूसरी तरफ पुत्री का जन्म दुःख का बहुत बड़ा कारण होता था। अथर्ववेद के अध्ययन से पता चलता है कि परिवार में अनेक पत्नियाँ अनेक मदों की होती थीं जो आपस में झगड़ा भी कभी-कभी किया करती थीं। कभी-कभी बहुएँ झगड़ों से रंज होकर अपने मायके भी भाग जाया करती थीं। इस तरह उत्तर वैदिक परिवार में शांति एवं झगड़ा दोनों का वातावरण बना रहता था।
उत्तरवैदिक काल में स्त्रियाँ
- उत्तरवैदिक काल में स्थायी रूप से बसने के साथ-साथ स्त्रियों पर प्रतिबंध लगने शुरू हो गये। औरतों को अपने पतियों के प्रति बहुत भक्ति का भाव दिखाना पड़ता था। पत्नियों को पति की आज्ञाकारिणी होना भी आवश्यक हो गया था। पतिव्रता स्त्री को ही समाज में सम्मान मिलता था। अपनी पतिव्रतता को प्रमाणित करने के लिए पति के मरने पर पत्नी को भी उसी के साथ प्रतीकात्मक आत्मबलिदान करना पड़ता था। वैदिक ग्रन्थ इस बात को स्पष्ट नहीं कर पाता है कि विधवा को पति के साथ प्रतीकात्मक रूप से आत्मदाह करने की बात केवल अमीर परिवारों में ही थी या गरीब परिवार में भी लगता है सती प्रथा की शुरूआत बाद के काल में यहीं से हुई। वैदिक ग्रन्थ में लड़कियों को बेचना अच्छा नहीं माना गया है। इससे पता चलता है कि लड़कियाँ बिकती थीं। स्त्रियों तुलना शराब एवं पाशा से की गयी है जो औरतों के स्थान में गिरावट का लक्षण है। पुत्रियों का जन्म परिवार के लिए दुःख का कारण माना गया है। औरतों के द्वारा अधिक बोलने पर भी रोक लगाने की बात हम पाते हैं। (वृहदारण्यकोपनिषद 6 ) | अभी भी औरतों को कुछ सुविधायें मिली थीं। उदाहरणस्वरूप पति के जाने के पश्चात विधवा अपने पति के छोटे भाई के साथ विवाह कर लेती थी। इस तरह औरतों की स्थिति उत्तरवैदिक काल में ठीक नहीं थी।
उत्तरवैदिक काल में विवाह
- विवाह प्रायः युवावस्था में होता था। पिता की सातवीं पीढ़ी तथा माता की पांचवीं पीढ़ी तक के बीच विवाह नहीं होता था। इसे सपिण्ड कहा जाता था। एक ही पेट या कोख से उत्पन्न लड़का और लड़की के बीच विवाह नहीं होता था। शतपथ ब्राह्मण तो माता और पिता की तीन-चार पीढ़ियों तक ही समाज में विवाह करने पर रोक लगाता है। उसके बाद आपस में शादी की अनुमति दे देता है। मर्द एक से अधिक शादी कर सकता था। वैदिक ग्रन्थ चार प्रकार की पत्नियों के बारे में बताता है। पालागही अर्थात बड़े-बड़े अधिकारियों की पुत्री जिससे राजा राजनीतिक उद्देश्य से शादी करता था। वावात अर्थात प्रियतमा विहिवृक्ति अर्थात वैसी पत्नी जो पुत्र पैदा करने के लायक नहीं हो और चौथी तरह की पत्नी पटरानी या महिषि कहलाती थी। इस काल में विवाह के बाद पत्नी को अपने पति की आज्ञाकारिणी एवं विश्वासिनी होना पड़ता था। विवाह के बाद पति के अचानक मर जाने से स्त्री को उत्तरवैदिक काल में तो प्रतीकात्मक आत्मबलिदान करना पड़ता था लेकिन बाद की शताब्दी में सही मायने में पति के साथ चिता में जलकर मर जाना पड़ता था।
- इस काल में व्यभिचार या दूसरी औरतों के साथ नाजायज सम्बन्ध अच्छा नहीं माना जाने लगा। औरत प्रायः अपने पति के साथ ही शारीरिक सम्बन्ध रख पाती थी। किसी पराये पुरुष से किसी तरह का अनैतिक सम्बन्ध बुरा माना जाने लगा था।
उत्तरवैदिक काल में वेशभूषा
- पूर्व वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक के लोगों की वेशभूषा में कोई खास अन्तर देखने को हमें नहीं मिलता है। इस काल में आच्छादन चोल चोर एवं चीवर आदि वस्त्रों का प्रयोग होने लगा था। अब आर्य न केवल धोती पहनने लगे थे बल्कि ठंड से बचने के लिए कंबल भी ओढ़ने लगे थे। सिर को ढंकने के लिए पगड़ी का प्रयोग होने लगा था। पगड़ी बांधने की परम्परा राजस्थान एवं पंजाब के क्षेत्रों में अभी भी पायी जाती है। स्त्रियाँ साड़ी भी पहनने लगी थीं। साड़ियाँ प्रायः किनारेदार होती थीं। फैशनपरस्त युवा युवतियाँ एवं धनी लोग बालों में तेल लगाया करते थे। आंखों की सुन्दरता के लिए काजल का प्रयोग होता था। पूर्व वैदिक काल की तुलना में उत्तरवैदिक काल में अधिक सुन्दर आभूषण पहने जाने लगे थे।
उत्तरवैदिक काल में भोजन
- खानपान में भी हम परिवर्तन पाते हैं। ब्रीहि अर्थात चावल का प्रयोग उत्तरवैदिक काल में होने लगा था। ऋग्वैदिक काल में जौ ही मुख्य आहार था। इस काल में पशुओं का मांस खाना समाज में बहुत प्रिय नहीं माना जाता था। शराब पीना भी समाज में अच्छा नहीं माना जाता था। गाय का आर्थिक महत्त्व उत्तर वैदिक काल के लोग समझते जा रहे थे। अतः गाय का मांस खाना समाज में अब ठीक नहीं माना जाने लगा था। भोजन में दूध एवं घी का प्रयोग बढ़ता जा रहा था।
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