उत्तरवैदिक काल बौद्धिक एवं धार्मिक अवस्था | Uttar Vedik Kal Me Baudhik Evam Dharmik Awastha

 उत्तरवैदिक काल बौद्धिक एवं धार्मिक अवस्था

उत्तरवैदिक काल बौद्धिक एवं धार्मिक अवस्था | Uttar Vedik Kal Me Baudhik Evam Dharmik Awastha


 

  • ऋग्वैदिक काल भारतीय आर्यों की सभ्यता का प्रथम सोपान था। यद्यपि इस प्रथम सोपान में भी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने जो उन्नति की वह प्रशंसनीय है और उसका प्रमाण ऋग्वेद हैंपर उत्तर वैदिककालीन आर्यों ने अपने पूर्वजों से आगे बढ़ने का प्रयास किया। अब उनमें विद्या के विशेष अनुराग होता जा रहा थाइसी युग में लेखनकला में भी उन्नति होने लगी। कुछ विद्वानों की राय है कि उत्तरवैदिक काल में ही इस कला का प्रारम्भ हुआ और भारत में लिपि का प्रचलन सर्वप्रथम 800 ई.पू. के लगभग मेसोपोटामिया के प्रभाव से हुआ। किन्तु अब तक कोई प्रमाण नहीं प्राप्त हो सका है जिस पर पूरा पूरा विश्वास करके इसे स्वीकार किया जाये। प्राचीन भारतीय लिपि में भारतीयता का पुट इतनी अधिक मात्रा में है कि वह हमें शीघ्र ही यह स्वीकार करने नहीं देता कि भारतीय लिपि का जन्म मेसोपोटामिया के प्रभाव से हुआ।

 

 उत्तरवैदिक काल में शिक्षा

  • उपनिषदों से पता चलता है कि उत्तरवैदिक काल में शिक्षा की अपूर्व उन्नति हुई। ऋग्वेद में हमें सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं घर पर पढ़ा लेते थे। लेकिन उत्तरवैदिक काल में देश में अनेक शिक्षण संस्थाएँ कायम हुई। बड़े-बड़े आचार्य अपने आश्रमों में विद्यार्थियों को एकत्र करते और उन्हें शिक्षा दिया करते थे। गुरु के घर रहने के कारण विद्यार्थियों को अन्तेवासी कहा जाता था। विद्यार्थियों को किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं देना पड़ता था। उन्हें सरलता तथा सादगी के साथ जीवन व्यतीत करना पड़ता था। विद्यार्थियों के लिए भिक्षावृत्ति से निर्वाह करनापवित्र जीवन व्यतीत करना तथा सभ्यता एवं विनम्रता को अपनाना आवश्यक था। सभी विद्यार्थियों को अनेक वर्षों तक कठोर परिश्रम द्वारा विभिन्न प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता था। उन्हें सोच-समझकर भली-भांति वेदमन्त्रों को कंठस्थ करना पड़ता था। अध्ययन समाप्त करने के बाद जब विद्यार्थी आचार्य का घर छोड़ता था तब उसे गुरु दक्षिणा अवश्य देनी पड़ती थी। आश्रमों में सबसे अधिक महत्त्व अनुशासन को दिया जाता था। आचार्य लोग राजा-महाराजाओं के पुत्रों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते थे जैसा कि साधारण लोगों के पुत्रों के साथ गुरुभक्ति विद्यार्थियों का मुख्य धर्म था। लोगों का विश्वास था कि जिस विद्यार्थी पर गुरु प्रसन्न हो जाते हैं उसको ज्ञान अपने-आप उद्भासित हो जाता है। इसलिए अनेक प्रकार की सेवासुश्रूषा करके गुरु को प्रसन्न करना ही विद्यार्थियों का मुख्य ध्येय था। आचार्य लोग समय-समय पर शिष्यों की श्रद्धाभक्ति आदि की जांच के लिए कठिन परीक्षा लेते थे। इस प्रकार के बीसों उदाहरण उपनिषदों में मिलते हैं।

 

  • शिक्षा देने का मुख्य उत्तरदायित्व ब्राह्मणों पर था। उत्तरवैदिक काल में आचार्यों ने अपने चरणगोत्र आदि के आधार पर अपने अलग-अलग संघ बना लिए थेजो वैदिक ज्ञान की पाठशालाओं की तरह थे। उनमें वैदिक साहित्य का अपार ज्ञान बिना क्षय हुए संचित रहता था। आश्रमों में आचार्यों का जीवन भी अत्यन्त सरलपवित्र तथा धार्मिक और आध्यात्मिक हुआ करता था। नैतिकता तथा सामाजिक गुणों के लिए उनकी सर्वत्र पूजा होती थी. बड़े बड़े राजा महराजा भी उनके सामने सिर नवाते थे। वे विद्यार्थियों को पुत्रवत् समझते और निःस्वार्थ भाव से उनकी शारीरिकमानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते थे। धार्मिक प्रश्नों पर वाद विवाद के लिए विद्वान मंडली की बैठक होती थीजिसके उदाहरण वृहदारण्यक उपनिषद् तथा शतपथ ब्राह्मण में मिलते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद तथा सनत्कुमार का जो वार्तालाप दिया गया हैउससे ज्ञात होता है कि उन दिनों विभिन्न प्रकार के विषय पढ़ाये जाते थे जिसमें देवविद्याभूतविद्या क्षात्र विद्या नक्षत्र विद्या देवजन विद्याकल्पश्राद्धतर्कशास्त्र आदि प्रमुख थे। इसी प्रकार वृहदारण्यक उपनिषद् से भी इतिहासउपनिषद् अनुव्याख्यानव्याख्यान आदि की शिक्षा का बोध होता है। शिक्षा समाप्त हो जाने के उपरांत गुरु शिष्य को उपदेश देता था कि सदा सच बोलनाअपने कर्त्तव्य का पालन करनावेद पढ़ते रहना तथा गृहस्थ बनना।

 

 उत्तरवैदिक काल में साहित्य और कला की दशा

  • उत्तरवैदिक काल में साहित्य और कला का भी विकास हुआ। ब्राह्मणआरण्यक और उपनिषदों की रचना इसी युग में हुई। ब्राह्मणों का सूत्र साहित्य भी बहुत कुछ इसी युग में लिखा गया। उत्तरवैदिक काल में कला के क्षेत्र में भी कई परिवर्तन हुए। काव्यकला का स्वरूप अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक हो गया था। ऋग्वेद केवल स्तुति मंत्रों का संग्रह थालेकिन अब यजुर्वेदसामवेदअथर्ववेदब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्रों की रचना का काव्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत कर दिया गया। यजुर्वेद में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है। सामवेद गीतिकाव्य है और संगीतकला पर उसका विस्तृत प्रभाव पड़ा। ब्राह्मण ग्रन्थों में उच्च कोटि का दार्शनिक विवेचन है। यजुर्वेद में तन्त्र-मन्त्र हैं। सूत्रों की रचना इसी काल में हुई थी। इस समय संक्षेप में लिखने की कला की बड़ी उन्नति हुई। खगोलविद्या का भी विकास हुआ। इस काल में आर्य नये-नये नक्षत्रों को जान चुके थे।

 

 उत्तरवैदिक काल में धर्म

  • उत्तरवैदिक काल में आर्यों का धार्मिक जीवन ऋग्वैदिक काल के धार्मिक जीवन से सर्वथा बदल गया। उनकी धार्मिक धारणा और विश्वासों में भारी परितर्वन उत्पन्न हो गया। ऋग्वैदिक युग का धर्म सरल तथा आडम्बरहीन था। प्रकृति के विभिन्न रूपों के सौन्दर्य से प्रभावित होकर ऋषियों ने अनेक देवताओं की कल्पना की थी और उनके स्तवन में मन्त्र गाये थे। यज्ञादि अनुष्ठानों में भी सरलता थी किन्तु उत्तरवैदिक काल में यह स्थिति बदल गयी। देवताओं की संख्या में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआपर उनकी स्थिति में अवश्य परिवर्तन हो गया। वरुणइन्द्र आदि की प्रधानता जाती रही तथा रुद्रविष्णु और प्रजापति का महत्व बढ़ गया। रुद्र अब कल्याणकारी शिव बन गये और उनके लिए महादेव संज्ञा का प्रयोग होने लगा। इसी प्रकार प्रजापति का स्थान भी प्रमुख हो चला। ऋग्वेद में इस देवता का उतना अधिक महत्त्व नहीं थाकिन्तु इस काम में वह यज्ञों का स्वामी हो गया। विष्णु को ऋग्वेद में सूर्य का ही रूप माना गया था। अब उनकी आराधना सर्वत्र होने लगी।

 

यज्ञ तथा बलि 

  • ऋग्वैदिक काल में यज्ञ तथा बलि का बड़ा महत्त्व था। उत्तरवैदिक काल में इनके विधानों का और भी विकास हुआ और ब्राह्मणों का महत्त्व बढ़ गया। भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के पुरोहितों की आवश्यकता पड़ने लगी। अब बलि और वैदिक मन्त्रों का महत्त्व भी पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गया। अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तथा महीनों और वर्षों तक चलने वाले व्ययशील यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया। इस कारण पुरोहितों का महत्त्व बढ़ा। बहुत से यज्ञों में सोलह सत्रह पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती थी।

 

  • यज्ञ कराने की विधियाँ भी जटिल हो गयीं। यह विश्वास जमने लगा कि यज्ञों द्वारा सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति हो सकती है। साधारण जनता भूत-प्रेतजादू-टोनासम्मोहन वशीकरण आदि में विश्वास रखने लगी। फलतः उनमें अन्धविश्वास फैलने लगा। पहले घर में परिवार का मुखिया यज्ञ कर लेता थापरन्तु अब बिना पुरोहित या ब्राह्मणों के यज्ञ कराना असम्भव था। अतः जनता के धार्मिक जीवन की कुंजी पुरोहितों के हाथ पहुँच गयी।
  • इस युग में बलि का प्रचार खूब बढ़ा। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि यदि पुरोहित बलि नहीं देंगे तो सूर्योदय नहीं होगा। अतएव यज्ञों में फलदूधघी आदि के साथ पशुओं की बलि दी जाने लगी। बहुत-सी बलि महीनों तथा वर्षों तक चलती थी। अश्वमेघ यज्ञ के आरम्भ में 600 पशुओं का बलिदान किया जाता था।

 

 उत्तरवैदिक काल में तप

  • उत्तरवैदिक काल में तप को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। तप के द्वारा आत्मा और मन को शुद्ध किया जाता था। तप के सम्बन्ध में ऋग्वेद के दसवें मण्डल से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसके पूर्व नौ मण्डलों में तप की कोई चर्चा नहीं है। ऋतु और सत्य की तप से उत्पत्ति हुईतप ही भावी जीवन की द्रष्टा हैतप से अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। देवता तप करते हैं और यज्ञ से देवताओं ने स्वर्ग जीता हैप्रजापति ने सृष्टि की रचना के लिए तप किया था आदि का उल्लेख हमें कई जगह वैदिक साहित्य में मिलता है। तैत्तरीय ब्राह्मण में भी उल्लेख हुआ है कि देवों ने तप के द्वारा देवत्व पाया था। तैत्तरीय उपनिषद् में वरुण अपने पुत्र को समझाता है, “तप से ब्रह्म को समझो क्योंकि तप ही ब्रह्म है।" मैत्रीय उपनिषद् में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि तप के बिना ज्ञान प्राप्त ही नहीं हो सकता।

 

 उत्तरवैदिक काल में दार्शनिक सिद्धान्तों का विकास

    • उत्तरवैदिक काल में यदि एक ओर कर्मकाण्ड तथा यज्ञों के विधि-विधानों में बुराइयाँ घुस रही थीं तो दूसरी ओर आत्मज्ञानब्रह्मज्ञान तथा तत्वचिन्तन की शक्तिशाली भावना का उदय और क्रमिक विकास हो रहा था। इस प्रकार के चिन्तन में लीन ब्रह्मज्ञानी यज्ञादि और उसकी जटिल क्रियाओं के विरुद्ध अपने विचार प्रकट करने लगे और उन्हें निरर्थक महत्त्वहीन तथा प्रांतिपूर्ण समझने लगे। उनका कहना था कि यज्ञों द्वारा मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन सारी बातों ने एक बौद्धिक क्रांति को जन्म दिया। इस क्रांति का नेतृत्व ब्राह्मणऋषियों तथा चिन्तनशील राजाओं ने किया। पहली कोटि में याज्ञवल्क्यउद्दालकआरुणिश्वेतकेतुसत्यकामजावालीअश्वपतिकैकेय आदि के नाम अग्रगण्य हैं और दूसरी में जनकविदेहप्रवहण जावालीअश्वपतिकैकेय आदि महत्वपूर्ण थे। याज्ञवालक्य और जनक को तो इस मानसिक आन्दोलन का प्राण कहा जा सकता है।

 

  • विश्व के वास्तविक रहस्य की खोज में इन विचारकों ने अपना सम्पूर्ण जीवन दे दिया। विश्व क्या हैउसकी उत्पत्ति कैसे हुईमनुष्य क्या हैउसके जीवन का उद्देश्य क्या है आदि अनेक प्रश्नों ने इन चिन्तकों का मन उद्वेलित कर दिया था। जिन दार्शनिक विचारों को उन्होंने जन्म दिया वे आरण्यकों और उपनिषदों में संग्रहीत हैं। इस प्रकार यज्ञों के जटिल विधि-विधानों के विरुद्ध आत्मचिन्तन की जो प्रभावशाली लहर उत्पन्न हुईउसने एक नवीन धर्म का प्रादुर्भाव किया जो भागवत धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में चलकर इस धर्म का विकास हुआ। पूर्ववैदिक काल में आर्य अपनी समस्याओं का समाधान प्राकृतिक शक्तियों द्वारा किया करते थे। लेकिनउत्तरवैदिक काल के आर्यों ने गहन मनन करना आरम्भ कर दिया। फलतः इस काल में आरण्यकोंउपनिषदों तथा दर्शनशास्त्रों की रचना हुई और इनमें आत्मा तथा परमात्मा के सम्बन्ध की जैसी विशद् विवेचना की गयीवैसी कहीं अन्यत्र नहीं मिलती है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का अनुमोदन इसी युग में किया गया और बतलाया गया कि मनुष्य का आगामी जन्म उसके कर्मों पर निर्भर रहता है। अच्छा काम करने वाला अच्छी योनि में और बुरा काम करने वाला बुरी योनि में उत्पन्न होता है।

 

  • विश्व की विविधता में एकता की खोज तो ऋग्वेद के दार्शनिक सूत्रों में शुरू हो गयी थी और सत् के रूप में उसका पता भी लग गया था। वहीं अद्वितीय सत्ता उपनिषदों में अधिक व्यापक रूप में ब्रह्म की कल्पना में अनुभूत हुई। यह केवल सत् ही नहींअपितु सत् चित् और आनन्दमयी दिखाई पड़ा। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म सर्वव्यापीनिर्गुणनिर्विकल्प तथा सर्वान्तर्यामी हैं। विश्व का उदयधारण और प्रलय उसी से होता है। वही एक वास्तविक सत्ता है। इसके अतिरिक्त विश्व कुछ नहीं है। आत्मा ब्रह्म की ही ज्योति है और उससे भिन्न नहीं है। व्यक्ति केवल अपनी अज्ञानता से अपने को ब्रह्म से अलग और शरीर तक सीमित समझता है। अज्ञान में पड़ी हुई आत्मा अपने शुभ और अशुभ कार्यों के अनुसार कर्म के सिद्धान्त में संचालित होकर बार-बार जन्म और मरण के चक्कर में पड़ती है। इस अज्ञान से छुटकारा और ब्रह्म तथा आत्मा में एकता की अनुभूति की व्यवस्था को मोक्ष बतलाया गया है। 
  • उपनिषदों के अनुसार मोक्ष का साधन है-ज्ञान और नैतिक आचरण इस काल में भारतीय दर्शन अर्थात् सांख्ययोगन्यायवैशेषिकमीमांसा तथा वेदान्त का विकास हुआ है। ये दर्शन आस्तिक तथा वेदसम्मत माने जाते हैं। इन दर्शनशास्त्रों द्वारा प्राचीन आर्यों ने सृष्टि के मूल तत्वों के परिज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास किया। दर्शनग्रन्थों में वैज्ञानिक रीति से इस बात को जानने का प्रयत्न किया गया कि इस सृष्टि के मूल तत्व क्या हैं और यह किन तत्वों से मिलकर बनी है और इसका कोई स्रष्टा है या नहीं। 


  • इसी युग में ग्राम एवं नगर बस्तियों के बाहर वनस्थलों में अनेक विचारक एवं दार्शनिक लोग अपने आश्रम बनाकर रहते थे और वहाँ ब्रह्मविद्या के जिज्ञासु अनेक व्यक्ति उपस्थित होकर तप एवं स्वाध्याय द्वारा अपनी ज्ञानपिपासा को शान्त करते थे। इस युग में ऐसे अनेक राजा भी हुए जो इसी प्रकार के विचारों से प्रेरित थे। विदेह राजा 'जनक', कैकय के 'अश्वपति', पांचाल के प्रवहणजावाली और काशी नरेश आजातशत्रु आदि के नाम आध्यात्मचिन्तकों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये नृपति स्वतः तत्वचिन्तक होने के साथ-साथ ब्रह्मर्षि मुनियों और दार्शनिकों के आश्रयदाता भी थे। इन राजाओं की राजसभा में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से एकत्र हुए मुनि लोग अध्यात्म विषयक प्रश्नों पर विचार किया करते थे। अनेकानेक विद्वान शास्त्रार्थ करते थे और राजा लोग भी उनमें भाग लेते थे। विभिन्न विचारकों में जिसका पक्ष प्रबल होता थाउसकी धन आदि पूजा की जाती थी।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्धिक एवं धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों ने भारतीय सभ्यता को युगों तक प्रभावित किया है।

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