राजा की शक्ति में वृद्धि
- इस काल के राज्यों के
विस्तार के साथ-साथ राजा की स्थिति में भारी परिवर्तन होने लगा था। राजाओं के
प्रभाव और शक्ति में भारी वृद्धि हुई। अब राजा अपने राज्य के किसी भी व्यक्ति को
दण्ड दे सकता था, किसी कर्मचारी को स्वेच्छा से पदच्युत कर सकता था तथा मनमानी कर लगा
सकता था। राज्य की सारी भूमि पर राजा का अधिकार माना जाता था। उसका पद वंशानुगत
था। वह न्यायकर्ता, प्रजापालक तथा सेनापति सब कुछ एक ही साथ होता था। कभी-कभी राजा प्रजा
द्वारा निर्वाचित भी कर लिया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि निर्वाचन राजवंश तक
ही सीमित था और इसके बाहर का व्यक्ति निर्वाचित नहीं किया जा सकता था।
- उत्तरवैदिक काल में राजा की स्थिति में महान
परिवर्तन होने लगे और सामन्ती प्रजा के सिद्धान्त के आधार पर राजसत्ता का भवन खड़ा
होने लगा। छोटे-छोटे राज्यों के बदले विशाल साम्राज्य की स्थापना की जाने लगी, परन्तु उस समय भी राजतन्त्र पूर्णतः
निरंकुश और स्वेच्छाचारी नहीं बन पाया था। बहुत से ऐसे संस्कार होते थे जिनमें
राजा को राजसिंहासन से उतर कर ब्राह्मण को प्रणाम करना पड़ता था। उसे यह शपथ लेनी
पड़ती थी कि पुरोहित के साथ वह धोखा नहीं करेगा। राज्यनियमों तथा ब्राह्मणों की
रक्षा करना राजा का प्रधान कर्त्तव्य होता था राज्याभिषेक के अवसर पर राजा को
प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वह यदि राज्यनियमों के प्रति निष्ठावान नहीं रहे और
ब्राह्मणों तथा धर्म की रक्षा न करे तो उसे जन्म से मृत्युपर्यन्त सचित पुण्यों, स्वर्गलोक, सन्तति और अपने जीवन से हाथ धोना
पड़ेगा। उत्तर वैदिककालीन राजाओं पर राज्याभिषेक के समय ही कितना अधिक
उत्तरदायित्व लाद दिया जाता था इसका प्रमाण हमें शतपथ ब्राह्मण में मिलता है, जिसमें यह कहा गया है कि 'तुमको (अभिषिक्त किये जाने वाले राजा
को ) यह राज्य दिया जा रहा है ताकि तुम कृषि, जनमंगल तथा उन्नति एवं समृद्धि कर
विकास करो।' राजा
को अपनी प्रतिज्ञा से विमुख एवं अत्याचार करते देख राजसिंहासन से उतार दिया जाता
था और प्रायश्चित कर लेने पर उसे फिर से राजा बना दिया जाता था। प्रजा राजा को
निर्वाचित भी कर सकती थी। शतपथ ब्राह्मण से हमें पता चलता है कि सभा तथा समिति
दैवी संस्थाएं समझी जाती थीं और इनकी सहायता तथा परामर्श लेना और इन्हें प्रसन्न
रखना राजा का परम धर्म होता था। धर्म अर्थात् पवित्र नियमों के सामने राजा को
नतमस्तक होना पड़ता था और उसे धर्मानुकूल ही शासन करना पड़ता था। अतः इससे यह
निष्कर्ष निकलता है कि राजा उत्तरवैदिक काल में नियन्त्रण में तो था परन्तु क्रमशः
उसकी शक्ति निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता में वृद्धि होती जा रही थी। पर सारी
व्यवस्था के ऊपर ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों की महत्ता का प्रमुख कारण यह था कि
तत्कालीन राजनीति पूर्णतया धर्माश्रित थी। धर्म ही अनुशासन था। ब्राह्मण
धर्माधिष्ठाता था और राजा उसका माध्यम मात्र अतः राजनीतिक व्यवस्था में उसका स्थान
सर्वोपरि रहा।
उत्तर वैदिक काल में राज्य के पदाधिकारी
- उत्तरवैदिक काल में
ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा राज्य के पदाधिकारी की संख्या और उनके अधिकारों में
वृद्धि हो गयी। ऋग्वैदिक काल में पुरोहित, ग्रामणी तथा सेनानी प्रमुख अधिकारी थे, परन्तु उत्तरवैदिक काल में कई नये
पदाधिकारी आ गये। पाणिनी के अनुसार रत्लिन तथा अथर्ववेद के अनुसार राजकृत राज्य के
प्रमुख पदाधिकारी कहलाते थे। इनमें प्रमुख मन्त्री (पुरोहित) अन्य मंत्री
संग्रहोत्री (कोषाध्यक्ष), ग्रामणी (न्यायालय का सभापति), सेनापति (सेनानी) कर वसूल करने वाला, सूत अर्थात् भाट, क्षत्री अर्थात प्रतिहार जो राजपरिवार
का रक्षक होता था, महिषी (महादेवी या पटरानी), अक्षावाय (आय-व्यय का विवरण रखने वाला), पालागख (दूत या संदेशवाहक), राजस (राज घराने के सदस्य) तथा युवराज
आदि थे। इसके अतिरिक्त वैदिक ग्रन्थों में अंगरक्षक, धर्माध्यक्ष, दौवारिक (राजमहल की ड्योढ़ी का प्रमुख
रक्षक), परिचारिक, वृन्दाध्यक्ष अश्वाध्यक्ष आदि अन्य
पदाधिकारियों का भी संकेत मिलता है। इन प्रमुख अधिकारियों के नीचे उपयुक्त अथवा
पाल नामक छोटे-छोटे पदाधिकारी होते थे, जो प्रमुख अधिकारियों के सहायकों का
काम करते थे। इसके अतिरिक्त राजदूत तथा गुप्तचर आदि भी होते थे। पुलिस अधिकारी
उग्र तथा सौ ग्रामों का अधिकारी सीमान्त शासक कहलाता था। ग्रामों के छोटे-छोटे
झगड़े ग्राम पंचायतें सुलझाती रहती थीं। बड़े-बड़े और जटिल मामले न्यायालय में जो
सभा कहलाती थी उसके सदस्यों के परामर्श से सभापति तय करता था
तथा जो मामला और भी अधिक जटिल होता था उस पर राजा को स्वयं निर्णय देना पड़ता था।
राजा का निर्णय अन्तिम एवं सर्वमान्य होता था।
सभा तथा समिति
- ऋग्वैदिक काल में सभा और समिति
का बहुत महत्त्व था, लेकिन उत्तरवैदिक काल में उसका महत्त्व घट गया था। उत्तरवैदिक काल
में राज्य की सीमा बहुत बढ़ गयी थी। इस हाल में समिति को जल्दी-जल्दी बुलाना सम्भव
नहीं रह गया। इस बात का संकेत मिलता है कि सभा में दो प्रकार के सदस्य हो गये थे।
कुछ लोग केवल महत्त्वपूर्ण अवसर पर इसमें सम्मिलित होते थे और कुछ लोग इसकी सभी
बैठकों में जाते थे। जो लोग सभी सभाओं में सम्मिलित होते थे, उन्हें सभासद् कहा जाता था। सभा में
सम्भवतः राजनीतिक प्रश्नों पर विचार होता था। सभा तथा समिति के कार्य में अन्तर
बताना जरा कठिन है। स्त्रियाँ सभा में सम्मिलित नहीं हो सकती थीं।
उत्तर वेदिक काल में न्याय व्यवस्था
- राजा सबसे बड़ा न्यायकर्ता
होता था। परन्तु प्रायः न्याय के अधिकारों को वह अध्यक्षों को दे दिया करता था।
बहुत से मामले न्याय के लिए पूरी जाति के समक्ष उपस्थित किये जाते थे। गांवों में
साधारण अपराधों का निर्णय ग्राम्यवाहिन अपनी सभा में करता था। वह गांव का
न्यायाधीश होता था। फौजदारी मामलों में प्रतिहिंसा की प्रथा प्रचलित थी। जल तथा
अग्नि में प्रवेश कर अपने को निर्दोष सिद्ध करने की प्रथा थी। ब्राह्मण की हत्या
बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। राजद्रोह के लिए प्राणदण्ड दिया जाता था। दीवानी के
मुकदमे प्रायः पंच द्वारा निर्णय किये जाते थे, परन्तु विशिष्ट मुकद्मों का निर्णय
राजा 'सभा' की सहायता से करता था न्याय के सम्बन्ध
में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त थे। उत्तराधिकार के सम्बन्ध में यह कहा जा
सकता है कि पिता की सम्पत्ति पर पुत्र का अधिकार होता था। स्त्रियों का कोई भी हक
नहीं होता था।
राज्य की आय
- उत्तरवैदिक काल के प्रारम्भ में
प्रजा राज्य को नियमित रूप से कर नहीं देती थी। अथर्ववेद में इन्द्र से यह
प्रार्थना की गई है कि वह प्रजा को राज्यकर देने के लिए बाध्य करे। ब्राह्मण
ग्रन्थों में राज्यकर के लिए 'बलि' शब्द का प्रयोग किया गया है।
- कालान्तर से कर संग्रह की प्रथा को निश्चित रूप
दिया गया और उसके लिए 'भागदुध' नामक कर्मचारी नियुक्त किया जाता था। अधिकतर कर वैश्य वर्ग के लोगों
से प्राप्त होता था क्योंकि यही वर्ग व्यापार में लगा होता था। अथर्ववेद से ज्ञात
होता है कि राज्यकर अन्न और पशुओं के रूप में वसूला जाता था और राज्य की आय का
सोलहवां हिस्सा राजा को प्राप्त होता था।
- ऐतरेय ब्राह्मण में राजा के लिए 'विशामत्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है। हाप्किन्स
ने उसका अर्थ 'जनता
का भक्षक' लगाया
है और सिद्ध किया है कि वैदिक राजा जनता का शोषण करते थे। परन्तु हाप्किन्स का मत
उचित नहीं प्रतीत होता । शतपथ ब्राह्मण से यह पता चलता है कि 'अत्ता' का अर्थ 'भोगी' भी होता है। अतएव राजा प्रजा के करों
और उपहारों का उपभोग करता था। राज्यकर अत्यधिक था, इस बात का संकेत किसी भी ग्रन्थ से
नहीं मिलता है।
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