उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक जीवन | Uttar Vedik Kalin Samajik Jeevan
उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक जीवन
- यह युग सामाजिक जीवन के उत्तरोत्तर विकास का युग था। इस बात के उपलब्ध हैं कि अब सामाजिक जीवन स्थिरता प्राप्त करने लगा था। कौटुम्बिक जीवन लगभग प्रचुर प्रमाण ऋग्वेदकाल के समान था।
- पितृसत्तात्मक परिवार का कर्ताधर्ता, पालक तथा स्वामी, पिता था। परिवार का प्रमुख होने के कारण सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसमें निष्ठा रखते थे।
- परिवार का प्रधान होने के नाते पिता ग्रामपरिषद तथा पंचायत में परिवार का प्रतिनिधित्व करता था। माता का भी बहुत आदर था।
- पैतृक सम्पत्ति संयुक्त परिवार की निधि होती थी तथा इसकी बढ़ोत्तरी के लिये परिवार के सदस्य संयुक्त प्रयास करते थे। अपने जीवनकाल में ही पिता अपने पुत्रों के मध्य सम्पत्ति का विभाजन कर देता था। पिता को पुत्रों से विशेष प्रेम होता था।
- प्रमाणों से पता चलता है कि पुत्र के दुष्चरित्र तथा व्यसनी होने पर पिता द्वारा दण्ड दिया जाता था।
- ऐतरेय ब्राहमण के अनुसार विश्वामित्र ने अपने परिवार के पचास सदस्यों को आज्ञापालन न करने के कारण दण्डकारण्य बन में निर्वासित कर दिया था।
- ऋग्वेद में उल्लेख है कि एक पुत्र की आंखें उसके पिता ने फोड़ दी थीं क्योंकि वह द्यूत का व्यसनी था।
- परिवार के सभी सदस्य एक ही घर साथ-साथ रहते थे पर सम्मिलित परिवार में अब कलह का डर रहने लगा था। कलह के कारण कई स्त्रियाँ ससुराल छोड़ कर मायके जाने लगी थी। इस युग में कुटुम्ब के जीवन में विघटन की प्रक्रिया का संकेत भ्रात्व्य शब्द के अर्थ परिवर्तन से मिलता है। भ्रातृव्य का अर्थ चचेरा भाई है। अथर्ववेद में उसे बान्धव माना गया है।
- भ्रातृव्य के शत्रु बनने का कारण संयुक्त परिवार में सम्पति के विभाजन से जुड़ा हुआ था। पति पत्नी के सम्बन्ध बड़े सुखद थे। अनेक मन्त्रों में इनके प्रेम के बड़े सुन्दर वर्णन मिलते है। ऋग्वेद के अनुसार पत्नी घर की देखभाल करती थी।
उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक प्रतिरूप
वैदिक काल के सामाजिक प्रतिरूप का अध्ययन महत्वपूर्ण है, इसकी जानकारी के उपरांत आप ऋग्वेदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल में आर्यों की सामाजिक व्यवस्था के विविध प्रतिरूपों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं
1 ऋग्वैदिक काल में सामाजिक प्रतिरूप
- व्यक्ति का परिचय उसके गोत्र से था और उसकी प्राथमिक वफादारी अपने 'जन' या कबीले के प्रति थी।
- 'जनपद' शब्द जिसका तात्पर्य क्षेत्र से है, ऋग्वेद में नहीं मिलता है, कबीले के लिए प्रयुक्त दूसरा शब्द 'विशू' है जो ग्राम नामक छोटी इकाइयों में विभक्त होता था, ये गारम जब आपस में लडते थे तो संग्राम हो जाता था।
- कुल शब्द जिसका अर्थ परिवार से है ऋग्वेद में बहुत कम आया है। अन्य हिन्द-यूरोपीय भाषाओं में यह भतीजे, भांजे, पोते, चचेरे भाई, ममेरे भाई जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
- ऋग्वेद से पता चलता है कि पितृसत्तात्मक सम्मिलित परिवार व्यवस्था प्रचलित थी। पुत्री की अपेक्षा पुत्र के जन्म को अधिक चाहा गया है हॉलाकि अधिक सन्तान और पशुधन की निरन्तर कामना की गयी है।
- विवाह संस्था की स्थापना हो गयी थी यद्यपि आदिम प्रथाओं के प्रतीक बचे हुए थे। यम और यमी का उदाहरण महत्वपूर्ण हैं मरूतों और रोदसी के उदाहरण से बहुपतित्व की जानकारी होती है। हॉलाकि इस प्रकार के उदाहरण बहुत कम है।
- ऋग्वेद में नियोग और विधवा विवाह की जानकारी मिलती है, बाल विवाह का अस्तित्व नहीं था।
- वर्ण के आधार पर समाज का वर्गीकरण था। दास और दयुओं से जो कि अनार्य थे, दासों की भांति व्यवहार किया गया है।
- कबीलाई मुखिया और पुरोहित सम्पन्न वर्ग थे। कबीलाई समाज ईरान की भांति ही योद्धा, पुरोहित और सामान्य जन में विभाजित था, शूद्र ऋग्वेद के अन्तिम चरण में दिखाई देते हैं।
- व्यवसाय पर आधारित वर्गीकरण प्रारंभ हुआ दिखाई देता है मैं कवि हूँ, मेरा पिता वैद्य है और मेरी माँ चक्की पीसती है।
2 उत्तर वैदिक काल सामाजिक प्रतिरूप
- चार वर्णों का स्पष्ट अस्तित्व, ब्राहमणों की शक्ति में वृद्धि मिलती है, ये प्रारंभ में 16 पुरोहित वर्ग में से एक थे।
- शूद्रों पर निर्योग्यताओं का थोपा जाना प्रारम्भ हुआ, हॉलाकि अभी वे अनेक धार्मिक उत्सवों में भाग लेते थे।
- रथकारों का विशेष दर्जा था और उन्हें शूद्र होने के बावजूद भी जनेऊ धारण करने का अधिकार था।
- दशराज्ञ युद्ध के फलस्वरूप आर्यों एवं अनार्यों में मेलजोल बड़ा, अतः इस काल में हमें जाति-समिश्रण के अत्यधिक उदाहरण मिलते हैं।
- वेदों के सम्पादक वेद व्यास स्वयं आर्य मुनि और मछुआरिन की सन्तान थे।
- उत्तर वैदिक काल में ब्राहमणों तथा क्षत्रियों के बीच श्रेष्ठता के लिए संघर्ष की झलक भी हमें दिखाई देती है।
- पिता की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई, वह पुत्र को उत्तराधिकार से बेदखल भी सकता था। कुछ अपवादों के बावजूद सामान्यतः स्त्रियों की दशा गिरी।
- गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई और गोत्र-बहिर्विवाह की प्रथा शुरू हुई। चार आश्रमों की जानकारी मिलती है, हॉलाकि चौथे आश्रम सन्यास की अभी स्पष्ट रूप से स्थापना नहीं हुई थी।
- इस काल के साहित्य में नियोग-प्रथा का उल्लेख मिलता है। एक विवाह सामान्य प्रथा थी।
- खाली समय का प्रयोग गायन, वादन, नृत्य तथा चौपड़ के खेल में व्यतीत किया जाता था।
- सामवेद से संगीत का जन्म माना जाता है, यह आर्यों के विकसित ध्वनि-ज्ञान का परिचायक है। शिक्षा केवल उच्च वर्णों तक सीमित थी। निश्चित न्यायाधिकरण के दर्शन नहीं होते हैं।
- हत्या के अपराध में दाम चुकाकर मुक्ति पायी जा सकती थी। भूमि और उत्तराधिकार से सम्बन्धित झगड़ों का अस्तित्व मिलता है।
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