उत्तरवैदिक काल की भौगोलिक सीमा |उत्तरवैदिक काल के राज्य | Uttarvedik Kal Ke Rajya
उत्तर वैदिककाल सामान्य परिचय
- वैदिक काल का दूसरा एवं अंतिम चरण उत्तर
वैदिककाल कहा जाता है। इस काल की अवधि ईसा पूर्व लगभग 1000 से आरम्भ होती है और 600 ईसा पूर्व के लगभग में समाप्त होती
है।
- उत्तरवैदिक काल के अध्ययन के लिए मुख्य ग्रन्थ
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इनकी रचना
ऋग्वेद के बाद हुई।
- यजुर्वेद में सूक्तों का संकलन है। सूक्तों के अलावा यजुर्वेद
में धार्मिक अनुष्ठान भी वर्णित हैं। यजुर्वेद के अनुसार इन धार्मिक अनुष्ठानों को
सस्वर पाठ के साथ करते जाने का नियम है। इन अनुष्ठानों से यजुर्वेद काल (1000-800 ईसा पूर्व) की सामाजिक एवं राजनीतिक
स्थितियों की जानकारी हमें मिलती है। .
- ऋग्वेद के मंत्रों को बाद में चलकर गाना के
रूप में गाया जाने लगा। गाना के रूप में इसके मंत्रों को ठीक से गाने के लिए इन
मंत्रों को सुरसंगति में बनाया गया। इस तरह जब ऋग्वेद के मंत्रों का रूप बदल गया
तो गति वाले मंत्रों के संकलन का नाम सामवेद पड़ गया। अथर्ववेद में संकटों को दूर
करने के लिए मंत्रों एवं तंत्रों की चर्चा की गई है। अथर्ववेद के आधार पर हमें
वैदिक काल के बाद के धार्मिक विश्वासों एवं प्रथाओं की जानकारी होती है।
- वैदिक संहिताओं की रचना के पश्चात कुछ विशेष
प्रकार के ग्रन्थों की रचना फिर हुई, जिन्हें
ब्राह्मण कहा जाता है। यह भी अनेक तरह के धार्मिक अनुष्ठानों का संकलन है। इन
अनुष्ठानों की रचना धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर की गई है।
उपर्युक्त सभी ग्रन्थों के काल ईसा पूर्व 1000 से
लेकर 600 ईसा पूर्व तक के बीच के हैं।
- उपर्युक्त धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित बातों
की पुष्टि हेतु कुछ विशेष प्रकार के ग्रन्थों की रचना फिर हुई जिन्हें ब्राह्मण
कहा जाता है यह भी अनेक तरह के धार्मिक अनुष्ठानों का संकलन है। इन अनुष्ठानों की
रचना धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर की गई है। उपर्युक्त सभी
ग्रन्थों के काल ईसा पूर्व 1000 से
लेकर 6000 ईसा पूर्व तक के बीच के हैं।
- उपर्युक्त स्त्रोतों के आधार पर हमें ऋग्वैदिक
काल के बाद के पांच सौ वर्षों का इतिहास जानने में मदद मिलती है। सिन्धु एवं
ऋग्वैदिक काल के बाद उत्तरवैदिक काल एक ऐसा चरण था जिसमें आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि दृष्टिकोण से समाज में
परिवर्तन हो रहा था।
उत्तरवैदिक काल की भौगोलिक सीमा
(Geographical Limitation of the Later
Vedic Age)
भौगोलिक सीमा
- ऋग्वैदिक सभ्यता का केन्द्र पंजाब
था लेकिन उत्तरवैदिक काल की सभ्यता का विस्तार पंजाब के अलावा हरियाणा, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक
हो गया था। इस काल में अनार्यों के साथ लड़ने की समस्या भी समाप्त हो चुकी थी।
- परिणामस्वरूप उत्तरवैदिक काल के लोगों को अपनी संस्कृति को उन्नतशील बनाने का
संतोषप्रद वातावरण मिला। ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तरवैदिक काल का विकास कई
दृष्टिकोणों से अधिक हुआ। छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर बड़े राज्यों की स्थापना का
भी वातावरण इस काल में तैयार हो गया।
उत्तरवैदिक काल राज्य
कुरु राज्य
- ग्रन्थों से हमें पता चलता है कि
पुरु और भरत नाम के दो प्रमुख कबीले आपस में मिल गये और कुरुजन कहलाने लगे। इन्होंने आस-पास के बहुत से कबीलों
को हराकर उनके राज्यों पर अधिकार कर लिया। इसके राज्य का विस्तार आधुनिक दिल्ली, थानेश्वर और गंगा-यमुना के पास के समतल
क्षेत्र तक था। कुरु कबीला के नाम पर यह क्षेत्र कुरुक्षेत्र कहलाने लगा।
- शासन
करने के दृष्टिकोण से कुरुजन ने अपनी राजधानी जिस स्थान पर बनायी वह हस्तिनापुर के
नाम से जाना जाने लगा, यह आज मेरठ जिला में स्थित है। कुरु
कबीले के इतिहास का महत्व इस समय और बढ़ जाता है जब पता चलता है कि भरतयुद्ध ही
महाभारत नामक महाकाव्य की प्रमुख घटना हो गई। कहा जाता है कि महाभारत में वर्णित
कौरव और पांडव के बीच की लड़ाई 950
ईसा पूर्व में हुई थी। पाण्डव एवं कौरव दोनों कुरुजन के ही सदस्य थे। कहते हैं, कुरुजन के बीच यह लड़ाई होने के कारण
सम्पूर्ण कबीला लगभग नष्ट हो गया।
- कुरुपंचालों की राजधानी हस्तिनापुर की खुदाई
हुई है। यहाँ पर ईसा पूर्व 900 से
लेकर 500 ईसा पूर्व तक के बीच के कुछ ऐसे सामान
मिले हैं, जिससे यहां नागरीय जीवन के आरंभ होने
की बात पायी गई है। लेकिन महाभारत के काल का हस्तिनापुर यह नहीं था क्योंकि खुदाई
से ऐसी सामग्री नहीं मिली है जिसका सम्बन्ध महाभारत से जोड़ा जा सके। महाभारत को
लिखने का काम गुप्तकाल में हुआ है और इसमें पक्के ईंट के मकान आदि की चर्चा है।
जबकि उत्तरवैदिक काल की पकायी हुई ईंट खुदाई से नहीं मिली हैं। विद्वानों का मत है
कि हस्तिनापुर का विनाश बाढ़ से हुआ। अतः यहाँ के कुरु लोग उत्तर प्रदेश में स्थित
आधुनिक इलाहाबाद के पास स्थित प्राचीन कौशाम्बी में जाकर बस गये थे।
विदेह
- इस बात की हमें पूर्ण जानकारी है कि ईसा
पूर्व सातवीं सदी के लगभग अर्थात उत्तरवैदिक काल के अंतिम चरण में आर्य कौशल और
विदेह में बसना शुरू कर चुके थे। विदेह बिहार के उत्तरी भाग में स्थित था। इसकी
राजधानी मिथिला नगर थी। विदेह शब्द का नामकरण किसी आर्य कबीले के सरदार के नाम पर
पड़ा है।
- शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आग धरती को जलाती गई और पूरब की ओर बढ़ती गई। जब
आग सदानीरा नदी के पास पहुँची तो वहाँ रुक गयी। सदानीरा आधुनिक गंडक नदी का नाम
था। सदानीरा का शाब्दिक अर्थ होता है; वैसी
नदी जिसमें हमेशा जल हो। जब सदानीरा के पश्चिम में ही आग रुक गई तो उसे पूरब की ओर
आगे बढ़ने में मदद करने के लिए आर्य कबीले का सरदार विदेह माधव आया। उसकी मदद से
(अर्थात नदी के उस पार उसने आग लगा दी।आग सदानीरा के उस पार पहुँची।
- अंत में आर्यों
का विदेह पर अधिकार हो गया। कहते हैं जनक नामक व्यक्ति यहाँ का राजा था।
याज्ञवल्क्य नामक प्रसिद्ध विद्वान भी इसके दरबार में रहते थे। ईसा पूर्व सातवीं
सदी में यहाँ लोहे के औजार मिलने लगे।
कोशल राज्य
- यह राज्य पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित
था। इसकी राजधानी अयोध्या थी जो आर्य संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र था। कहते हैं, कोशल का सम्बन्ध रामायण के राजा
रामचन्द्र से है। लेकिन हमें यह जानना चाहिए कि राम शब्द के कोई उल्लेख वैदिक
ग्रन्थ में नहीं मिलता है।
कैकेय राज्य
- कैकेय राजाओं का राज्य विस्तार वर्तमान शाहपुर, झेलम एवं गुजरात के क्षेत्र में था।
अश्वपति नामक राजा अपने न्याय के लिए यहाँ प्रसिद्ध था।
काशी
- काशी- उत्तर प्रदेश में स्थित आधुनिक वाराणसी
का प्रदेश ही काशी राज्य था। प्राचीनकाल से ही यह एक पवित्र स्थान माना जाता था।
काशी का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा अजातशत्रु था जो काफी विद्वान था।
गंधार
- आधुनिक पाकिस्तान में सिन्धु नदी के
किनारे यह जनपद स्थित था। यहाँ तक्षशिला एवं पुष्करावती नामक दो नगर की चर्चा हमें
मिलती है। इस प्रदेश में ईसा पूर्व ग्यारहवीं सदी से ही लोहे का इस्तेमाल होने का
प्रमाण मिलने लगता है। खुदाई से कुछ गाड़े हुए मुर्दे मिले हैं। इन्हीं मुर्दों के
साथ लोहे के कई तरह के सामान मिले हैं। ग्यारहवीं सदी ईसा पूर्व में ही बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के
क्षेत्रों में जैसा कि खुदाई से पता चलता है, लोहे
का प्रयोग शुरू हो गया था।
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