वैदिक एवं बौद्ध धर्म से जैन धर्म की भिन्नता | Vaidik Dharm Jain Dharm Aur Baudh Dharm Ki Tulna
वैदिक एवं बौद्ध धर्म से जैन धर्म की भिन्नता
(Defferentiation of Jainism from Vedic and Buddhism)
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मध्य गंगा घाटी में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। इस युग में करीब 62 धार्मिक सम्प्रदायों की जानकारी हमें मिलती है। इनमें जैन और बौद्ध सम्प्रदाय सबसे प्रमुख थे। शक्तिशाली धार्मिक सुधार आन्दोलनों के रूप में इनका उत्थान हुआ।
जैनधर्म कई दृष्टिकोणों से वैदिक एवं बौद्धधर्म से भिन्न है।
- वैदिक धर्म की तुलना में जैनधर्म बाद का धर्म है लेकिन जैन धर्म बौद्ध धर्म की तुलना में अधिक प्राचीन है। ऋग्वैदिक आर्य प्रकृतिपूजक एवं बहुदेववादी थे। वे प्रकृति की उन विभिन्न शक्तियों की पूजा करते थे जिनसे वे प्रभावित या भयभीत होते थे। ऋग्वेद में 33 देवताओं का उल्लेख है ये सभी देवता प्रकृति के विभिन्न तत्वों के प्रतीक थे; जैसे पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति इन्द्र, वायु, मरुत, पर्जन्य, रूद्र, सूर्य, विष्णु, अश्विन आदि। इन देवताओं में इन्द्र सबसे प्रमुख था। वह वर्षा, प्रकाश एवं न्याय का देवता था। इसकी तुलना ईरानी देवता अहुरमज्दा से की जा सकती है। देवताओं के अतिरिक्त ऋग्वेद में देवियों का भी उल्लेख मिलता आर्यों ने अरुणोदय के पूर्व की रमणीय वेला को उषा देवी के रूप में सम्मानित किया है।
- दूसरी तरफ जैनधर्म आत्मा के अस्तित्व पर बल देता है। यह वनस्पति, पत्थर, वायु और जल में आत्मा या जीव का विकास ढूंढता है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म आत्मा या जीव के झमेले में नहीं पड़ता। इस विषय में वह मौन है।
- वैदिक धर्म में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए स्तुतिपाठ तथा यज्ञाहुति की जाती थी। इन पाठों का ऋग्वैदिक काल में बहुत महत्त्व था। पाठ अकेले और सामूहिक दोनों ही रूपों में किये जाते थे। इन प्रार्थनाओं में आर्य मोक्ष की कामना नहीं करता था, बल्कि वह "शतवर्षीय आयु, पुत्र, धनधान्य और विजय की कामना करता था। मंदिरों अथवा मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। स्तुति और भक्ति द्वारा ही देवताओं को प्रसन्न रखने की कोशिश की जाती थी। यज्ञों की प्रथा प्रचलित थी। प्रारंभिक अवस्था में बाह्य विधानों की अपेक्षा मंत्रों की सहायता से यज्ञ करना अच्छा समझा जाता था। कालान्तर में हवनों की सहायता से यज्ञ करने की प्रथा बढ़ने लगी। यज्ञों में घी, दूध, धान्य, माँस आदि की आहुति दी जाने लगी। सामान्यतया यज्ञ प्रत्येक मनुष्य व्यक्तिगत तौर पर स्वयं करता था, किन्तु सामूहिक पैमाने पर भी यज्ञ होते थे जिनमें पुरोहितों की सहायता ली जाती थी।
- पुरोहितों को दान-दक्षिणा के रूप में स्वर्ण, गाय एवं दास-दासियाँ दी जाती थीं। विभिन्न देवताओं की पूजा करने के बावजूद आर्य एकेश्वरवाद की तरफ झुके हुए थे। समस्त देवताओं के ऊपर एक परम तत्व की प्रतिष्ठा अरोपित की गई थी। जिसे हिरण्यगर्भ, प्रजापति और विश्वकर्मा नाम से पुकारा गया। वे देवपूजा के साथ ही पितरों की भी पूजा करते थे। ऋग्वेद में पाप-पुण्य तथा स्वर्ग-नरक की भी कल्पना देखने को मिलती है। आर्य जीवन के अमरत्व में भी विश्वास करते थे। परन्तु मोक्ष प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। उनका आत्मा और पुनर्जन्म के सिद्धान्त में भी विश्वास था।
- दूसरी तरफ यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में अहिंसा पर बल दिया गया है परन्तु जैनियों की अहिंसा की धारणा बौद्धों से कहीं अधिक उत्तम कोटि की है। जैसे छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं की भी हत्या करना पान समझते थे। इनके विचार में दूसरों को हानि पहुँचाने का विचार भी पाप है। इसके अनुसार कृषि कर्म भी पाप है क्योंकि इससे कीड़े-मकोड़ों की हत्या होती है। इसके विपरीत बौद्ध अहिंसा पर इतना अधिक बल नहीं देता है। विशेष परिस्थितियों में, खासकर विदेशों में बौद्ध माँस खाते थे। ऐसा कहा जाता है कि स्वयं बुद्ध को सुअर का माँस खाने से अतिसार की बीमारी हुई थी और उनकी मृत्यु हुई। इस प्रकार अहिंसा के प्रश्न पर बौद्ध अधिक व्यावहारिक थे।
- ऋग्वेद के दसवें मण्डल में वर्णित 'पुरुष सूक्त' में चार वर्णों की उत्पत्ति की व्याख्या की गयी है। इसके अनुसार आदि पुरुष (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय (राजन्य), जाँघ से वैश्य (विश) और पैरों से शूद्र का जन्म हुआ। परन्तु दसवां मण्डल बाद में जोड़ा गया। अत: चौथे वर्ण का अभ्युदय उत्तर वैदिककाल में हुआ। इस तरह ऋग्वैदिक काल में सामाजिक वर्गीकरण की बात पायी जाती है। इस वर्गीकरण का प्रभाव उस काल के धर्म पर था। दूसरी ओर जैनधर्म जातिभेद में बिल्कुल विश्वास नहीं करता था। जातिभेद का विरोध जैनधर्म की तुलना में बौद्धधर्म ने अधिक किया।
- वस्तुतः बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म ने वर्ण व्यवस्था की निन्दा नहीं की। महावीर जैन के मतानुसार पूर्व जन्म अर्जित पाप अथवा सद्गुणों के कारण ही किसी व्यक्ति का जन्म उच्च या निम्न वर्ण में होता है। वैदिक धर्म में कठोर तप एवं त्याग पर अधिक बल नहीं दिया गया है लेकिन जैनधर्म में कठोर तप एवं त्याग पर अधिक बल दिया गया है। यहाँ तक कि महावीर जैन ने वस्त्र त्यागने को भी कहा। बौद्धधर्म में हम पाते हैं कि सम्पूर्ण वस्त्र त्याग देने की बात नहीं है। यह धर्म किसी भी अति के खिलाफ था। निर्वाण की प्राप्ति के लिये इस धर्म ने मध्यम मार्ग अपनाने का समर्थन किया। वैदिकधर्म में निर्वाण की चर्चा नहीं है। इसमें आयु, पुत्र, धनधान्य और विजय की कामना की जाती थी।
- जैनधर्म में गृहस्थों (स्त्री एवं पुरुष) को निर्वाण प्राप्ति के योग्य नहीं समझा गया। बिना तपस्वी का जीवन बिताये या संघ में प्रविष्ट हुए उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती थी। बौद्धधर्म में हम ऐसा नहीं पाते हैं। इस धर्म का पालन करते हुए गृहस्थ भी निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर सकते थे। वैदिकधर्म मोक्ष को स्थान नहीं देता है जैनियों के विचार में मोक्ष आत्मा की वह दशा है जब दुखों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। बौद्धधर्म के अनुसार मोक्ष का तात्पर्य अपने व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से समाप्त कर देना है। जैनधर्म के विचार में मोक्ष की प्राप्ति इस जीवन के समाप्त हो जाने पर होती है परन्तु बौद्धों के विचार में मोक्ष की प्राप्ति इस जीवन में ही हो सकती है। वैदिकधर्म में संघ का महत्त्व था ही नहीं। धार्मिक अनुष्ठान के लिये एक जगह बहुत लोग बैठकर स्तुतिपाठ यज्ञाहुति करते थे। बौद्धधर्म में संघ पर बहुत बल दिया गया। यह तीन रत्नों में से एक प्रमुख रत्न माना जाता है।
- परन्तु जैन संघ का न तो उतना अधिक महत्त्व ही था और न बौद्ध संघ जैसा संगठित ही था। वैदिकधर्म में यज्ञ की प्रथा प्रचलित थी। यज्ञों में घी, दूध, धान्य, माँस आदि की आहुति दी जाने लगी। ऋषियों ने यज्ञों एवं स्तुतियों के साथ-साथ नैतिक आदर्शों पर भी बल दिया। ये पाप से बचने के लिए भी देवताओं से प्रार्थना करते थे।
- जैनधर्म में यज्ञ का कोई स्थान नहीं था। बौद्ध धर्म तो वैदिकधर्म से बिलकुल विपरीत था। इसी से जैनधर्म की अपेक्षा बौद्धधर्म का अधिक प्रसार हो सका।
- वैदिकधर्म को राजा की ओर से आश्रय की चर्चा हम नहीं पाते हैं। इसके अतिरिक्त बौद्धधर्म को जितना अधिक राज्याश्रय प्राप्त हो सका उतना जैनधर्म को नहीं। इस कारण भी बौद्धधर्म का इतना प्रचार हो सका।
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