वैदिक युग सामाजिक धार्मिक आर्थिक जीवन
वैदिक युग सामाजिक जीवन
पंच जन
- वैदिक युग के भारतीय आर्य अनेक जनों (कबीलों या ट्राइब) में विभक्त थे।
- ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर 'पंचजना:' और 'पंचकृष्ट्यः' का उल्लेख आता है, जो निःसन्देह उस युग के आर्यों की पाँच प्रमुख जातियों (कबीलों) को सूचित करते हैं।
- ये पंचजन अणु, द्रुह्यु, यदु, तुर्वशु और पुरु थे। पर इनके अतिरिक्त भरत, त्रित्सु, शृंजय आदि अन्य भी अनेक जनों का उल्लेख वेदों में आया है, जिनसे इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि ज्यों-ज्यों आर्य लोग भारत में फैलते गये, उनमें विविध जनों का विकास होता गया।
- आर्य जाति के प्रत्येक जन में सब व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति एक समान होती थी और सबको एक ही 'विश' (जनता) का अंग माना जाता था।
आर्य और दास
- आर्यों के भारत में प्रवेश से पूर्व यहाँ जिन लोगों का निवास था, वेदों में उन्हें 'दास' या 'दस्यु' कहा गया है। इनकी अनेक समृद्ध बस्तियाँ भारत में विद्यमान थीं।
- आर्यों ने इन्हें जीतकर अपने अधीन किया और ये आर्यभिन्न लोग आर्य जनपदों में आर्य राजाओं की अधीनता में रहने लगे। यह स्वाभाविक था कि इन दासों व दस्युओं की सामाजिक स्थिति आर्यों की अपेक्षा हीन रहे। आर्य लोग इनसे घृणा करते थे, इन्हें अपने से हीन समझते थे और इन्हें अपने समान स्थिति देने का उद्यत नहीं थे।
- इस दशा का यह परिणाम हुआ कि आर्य जनपदों में निवास करने वाली जनता दो भागों में विभक्त हो गई (1) आर्य और (2) दास दास जाति की हीन स्थिति के कारण इस शब्द का अभिप्राय ही संस्कृत भाषा में गुलाम हो गया।
- दास जाति के ये लोग शिल्प में अत्यन्त चतुर थे। ये अच्छे व विशाल घरों का निर्माण करते थे, शहरों में रहते थे और अनेक प्रकार के व्यवसायों में दक्ष थे। आर्यों द्वारा विजित हो जाने के बाद भी शिल्प और व्यवसाय में इनकी निपुणता नष्ट नहीं हो गई। ये अपने इन कार्यों तत्पर रहे। विजेता आर्य योद्धा थे। वे याज्ञिक अनुष्ठानों को गौरव की बात समझते थे और भूमि के स्वामी बनकर खेती, पशुपालन आदि द्वारा जीवन का निर्वाह करते थे विविध प्रकार के शिल्प दास जाति के लोगों के हाथ में ही रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में प्राचीन काल से ही शिल्पियों को कुछ हीन समझने की प्रवृत्ति रही।
- आर्यों और दासों में परस्पर सामाजिक सम्बन्ध का सर्वथा अभाव हो, यह बात नहीं थी। प्राच्य भारत में जहाँ आर्यों की अपेक्षा आर्य-भिन्न जातियों के लोग अधिक संख्या में थे, उनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध होता रहता था। उन प्रदेशों में ऐसे लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई, जो शुद्ध आर्य या दास न होकर वर्णसंकर थे। ऐसे वर्णसंकर लोगों को ही सम्भवतः व्रात्य कहा जाता था।
- अथर्ववेद में व्रात्य जातियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। बाद में व्रात्य-स्तोम यज्ञ का विधान कर इन व्रात्यों को आर्य जाति में सम्मिलित करने की भी व्यवस्था की गई। पर इसमें सन्देह नहीं कि वैदिक युग में आर्यों और दासों का भेद बहुत स्पष्ट था और उस काल के आर्य-जनपदों में ये दो वर्ण ही स्पष्ट रूप से विद्यमान थे।
वर्ण व्यवस्था
- आर्य विश के सब व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति एक समान थी। पर धीरे-धीरे उनमें भी भेद प्रादुर्भूत होने लगा। दास-जातियों के साथ निरन्तर युद्ध में व्याप्त रहने के कारण सर्वसाधारण आर्य जनता में कतिपय ऐसे वीर सैनिकों (रथी, महारथी आदि) की सत्ता आवश्यक हो गई, जो युद्ध कला में विशेष निपुणता रखते हों। इनका कार्य ही यह समझा जाता था कि ये शत्रुओं से जनता की रक्षा करें।
- क्षत (हानि) से त्राण करने वाले होने के कारण इन्हें 'क्षत्रिय' कहा जाता था। यद्यपि ये क्षत्रिय आर्य विश के ही अंग थे, पर तो भी इन्हें विशः के सर्वसाधारण लोगों (वैश्यों) से अधिक सम्मानित व ऊँचा समझा जाता था। क्षत्रिय सैनिकों के विशिष्ट कुल 'राजन्य' कहलाते थे। सम्भवतः ये राजन्य ही वे 'राजकृतः राजानः' थे, जो अपने में से एक को राजा के पद के लिए वरण करते थे। जिस प्रकार क्षत्रियों की सर्वसाधारण आर्य विश में एक विशिष्ट स्थिति थी, वैसे ही उन चतुर व्यक्तियों की भी थी, जो याज्ञिक कर्मकाण्ड में विशेष रूप से दक्ष थे।
- जब आर्य लोग भारत में स्थिर रूप से बस गये, तो उनके विधि-विधानों व अनुष्ठानों में भी बहुत वृद्धि हुई। प्राचीन समय का सरल धर्म निरन्तर अधिक जटिल होता गया। इस दशा में यह स्वाभाविक था कि कुछ लोग जटिल याज्ञिक कर्मकाण्ड में विशेष निपुणता प्राप्त करें और याज्ञिकों की इस श्रेणी को सर्वसाधारण आर्य विशः द्वारा क्षत्रियों के समान ही विशेष आदर की दृष्टि से देखा जाए।
- इस प्रकार वैदिक युग में उस चातुर्वर्ण्य का विकास प्रारम्भ हो गया था, जो आगे चलकर भारत में बहुत अधिक विकसित हुआ और बाद के हिन्दू व भारतीय समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता बन गया। पर वैदिक युग में यह भावना होने पर भी कि ब्राह्मण और क्षत्रिय सर्वसाधारण विशः (वैश्य जनता) से उत्कृष्ट व भिन्न हैं, जातिभेद या श्रेणीभेद का अभाव था।
- कोई व्यक्ति ब्राह्मण या क्षत्रिय है, इसका आधार योग्यता या अपने कार्य में निपुणता ही थीं। कोई भी व्यक्ति अपनी निपुणता, तप व विद्वत्ता के कारण ब्राह्मण पद को प्राप्त कर सकता था। इसी प्रकार आर्य जन का कोई भी मनुष्य अपनी वीरता के कारण क्षत्रिय व राजन्य बन सकता था।
- वैदिक ऋषियों ने समाज की कल्पना एक मानव शरीर के समान की थी, जिसके शीर्ष स्थानीय ब्राह्मण थे, बाहुरूप क्षत्रिय थे, पेट व जंघाओं के सदृश स्थिति वैश्यों की थी और शूद्र पैरों के समान थे। आर्य-भिन्न दास लोग ही शूद्र वर्ण के अन्तर्गत माने जाते थे।
वैदिक युग में पारिवारिक जीवन
- वैदिक युग के सामाजिक जीवन का आधार परिवार था। महाभारत में संकलित प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार एक ऐसा समय था, जब विवाह संस्था विकसित नहीं हुई थी, जब स्त्रियाँ 'अनावृत्त', 'स्वतन्त्र' और 'कामाचार-विहारिणी' होती थीं।
- पर यदि सचमुच कोई ऐसा समय आर्यों में रहा था, तो वह वैदिक युग से अवश्य ही पहले का होगा, क्योंकि वेदों के अनुशीलन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि विवाह संस्था उस समय भली-भाँति विकसित हो चुकी थी और वैदिक युग के आर्य वैवाहिक बंधन में बंधकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे।
- साधारणतया, एकपत्नीव्रत का अनुसरण किया जाता था, यद्यपि बहुपत्नीत्व की प्रथा भी कहीं कहीं प्रचलित थी। संभवतः, ये प्रथाएँ आर्य-भिन्न जातियों में थीं, आर्यों में नहीं बहिन और भाई में विवाह निषिद्ध था। विवाह बाल्यावस्था में नहीं होते थे। लड़कियाँ भी लड़कों के समान ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं और युवावस्था में विवाह करती थीं।
- स्त्रियों को अशिक्षित नहीं रखा जाता था। 'स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा नहीं देनी चाहिये', यह विचार वैदिक युग में विद्यमान नहीं था। अनेक स्त्रियाँ इतनी विदुषी थीं कि उनके बनाये हुए मंत्रों को वैदिक संहिताओं में भी संकलित किया गया है। लोपामुद्रा अपालात्रेयी आदि अनेक स्त्रियाँ वैदिक सूक्तों की ऋषि हैं। गोधा, घोषा, विश्ववारा अदिति, सरमा आदि कितनी ही ब्रह्मवादिनी महिलाओं (ऋषियों) का उल्लेख प्राचीन साहित्य में आया है।
- गार्गी, मैत्रेयी आदि तत्वचिन्तक स्त्रियों का उपनिषदों में भी जिक्र किया गया है। ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन कर जो स्त्रियाँ गृहस्थाश्रम में प्रवेश करती थीं, वे परदे में नहीं रह सकती थीं। उन्हें पारिवारिक जीवन में पति की सहधर्मिणी माना जाता था विवाह सम्बन्ध स्वयं वरण करने से ही निर्धारित होता था।
- स्त्रियाँ स्वयं अपने पति का वरण करती थीं। राजकुमारियों के अनेक स्वयंवर विवाहों का विशद वर्णन प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होता है। न केवल राजकुमारियाँ ही, अपितु सर्वसाधारण आर्य कन्याएँ भी अपने पति का स्वयमेव वरण किया करती थीं और वैदिक युग के समाज में उन्हें इसके लिये पूर्ण अवसर मिलता था।
वैदिक युग में धर्म
- वैदिक वाङ्मय प्रधानतया धर्मपरक है, अतः इस युग के धार्मिक विश्वासों के सम्बन्ध में हमें बहुत विशद रूप से परिचय मिलता है।
- वैदिक युग के आर्य विविध देवताओं की पूजा करते थे। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम आदि उनके अनेक देवता थे, जिन्हें तृप्त व सन्तुष्ट करने के लिए वे अनेक विधि-विधानों का अनुसरण करते थे। संसार का स्रष्टा, पालक व संहर्ता एक ईश्वर है, यह विचार वैदिक आर्यों में भली-भाँति विद्यमान था।
- उनका कथन था कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्ण, गरुत्मान्, मातरिश्वा, यम आदि सब एक ही सत्ता के विविध नाम हैं और उस एक सत्ता को ही विद्वान् लोग इन्द्र, मित्र आदि विविध नामों से पुकारते हैं। सम्भवतः एक ईश्वर की यह कल्पना बाद में विकसित हुई, प्रारम्भ में आर्य लोग प्रकृति की विविध शक्तियों को देवता के रूप में मानकर उन्हीं की उपासना किया करते थे। प्रकृति में हम अनेक शक्तियों को देखते हैं। वर्षा, धूप, सरदी, गरमी सब एक नियम से होती हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों के कोई अधिष्ठातृ-देवता भी होने चाहिए और इन देवताओं की पूजा द्वारा मनुष्य अपनी सुख-समृद्धि में वृद्धि कर सकता है, यह विचार प्राचीन आर्यों में विद्यमान था।
प्राकृतिक दशा को सम्मुख रखकर वैदिक देवताओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- - (1) धुलोक के देवता यथा सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, वरुण और मित्र।
- (2) अन्तरिक्ष स्थानीय देवता, यथा इन्द्र, वायु, मरुत् और पर्जन्य
- (3) पृथ्वी स्थानीय देवता, यथा अग्नि, सोम और पृथिवी द्युलोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति की जो शक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सबको देवता रूप में मानकर वैदिक आर्यों ने उनकी स्तुति में विविध सूक्तों व मन्त्रों का निर्माण किया।
- अदिति, उषा, सरस्वती आदि के रूप में वेदों में अनेक देवियों का भी उल्लेख है और उनके स्तवन में भी अनेक मन्त्रों का निर्माण किया गया है।
- यद्यपि बहुसंख्यक वैदिक देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों व सत्ताओं के मूर्तरूप हैं, पर कतिपय देवता ऐसे भी हैं, जिन्हें भाव-रूप समझा जा सकता है। मनुष्यों में श्रद्धा, मन्यु (क्रोध) आदि की जो विविध भावनाएँ हैं, उन्हें भी वेदों में दैवी रूप प्रदान किया गया है।
- इन विविध देवताओं की पूजा के लिए वैदिक आर्य अनेक विविध यज्ञों का अनुष्ठान करते थे। यज्ञकुण्ड में अग्नि का आधान कर दूध, घी, अन्न, सोम आदि विविध सामग्री की आहुतियाँ दी जाती थीं। यह समझा जाता था कि अग् में दी हुई आहुति देवताओं तक पहुँच जाती हैं और अग्नि इस आहुति के लिए वाहन का कार्य करती है।
- वैदिक युग में यज्ञों में माँस की आहुति दी जाती थी या नहीं, इस सम्बन्ध में मतभेद है। महाभारत में संकलित एक प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार पहले यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। बाद में राजा वसु चैद्योपरिचर के समय में इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन प्रबल हुआ।
- इस बात में तो सन्देह की कोई गुञ्जाइश नहीं है कि बौद्ध-युग से पूर्व भारत में एक ऐसा समय अवश्य था, जब यज्ञों में पशुहिंसा का रिवाज था। पर वेदों के समय में भी यह प्रथा विद्यमान थी, यह बात संदिग्ध है।
- वेदों में स्थान-स्थान पर धृत, अन्न व सोम द्वारा यज्ञों में आहुति देने का उल्लेख है, पर अश्व, अजा आदि पशुओं की बलि का स्पष्ट वर्णन प्रायः वैदिक संहिताओं में नहीं मिलता।
- आर्यों ने दास, दस्यु आदि जिन आर्य-भिन्न जातियों को विजय कर अपनी सत्ता की स्थापना की, उनके धर्म का भी उन पर प्रभाव पड़ा। ऋग्वेद के एक मंत्र में यह प्रार्थना की गयी है कि 'शिश्नदेव' हमारे यज्ञ को न बिगाड़ें। ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर शिश्नदेवों के पुर के विजय का भी उल्लेख है। वैदिक युग के आर्य लिंग के रूप में प्रकृति की प्रजनन शक्ति के उपासकों से घृणा करते थे। पर बाद में आर्य जाति ने पूजा की इस विधि को भी अपना लिया और शिवलिंग के रूप में शिश्नदेव की पूजा आर्यों में भी प्रचलित हो गयी।
- इसी प्रकार अथर्ववेद में अनेक जादू-टोने पाये जाते हैं, जो आर्य-भिन्न जातियों से ग्रहण किये गए थे। साँप का विष उतारने के मन्त्रों में तैमात, आलिगी, विलिगी, उरुगुला आदि अनेक शब्द आये हैं। अनेक विद्वानों के मत में ये शब्द वैदिक भाषा के न होकर कैल्डियन भाषा के है। कैल्डियन लोग ईराक के क्षेत्र में निवास करते थे और भारतीय आर्यों से भिन्न थे।
- सिन्धु सभ्यता के लोगों का पश्चिमी एशिया के विविध प्रदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध था, यह हम पहले ही लिख चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि तैमात आदि ये शब्द पश्चिमी एशिया से सिन्धु सभ्यता में आये हों और बाद में आर्यों ने इन्हें सिन्धु सभ्यता के दास व दस्यु लोगों से ग्रहण किया हो ।
- हमारे लिये यह सम्भव नहीं है कि हम वैदिक देवताओं के स्वरूप का विशद रूप से वर्णन कर सकें। पर इतना लिख देना आवश्यक है कि देवताओं के रूप में प्राचीन आर्य प्रकृति की विविध शक्तियों की पूजा करते थे, यह विचार उनमें भली-भाँति विद्यमान था कि ये सब देवता एक ही सत्ता की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं।
- वैदिक आर्य केवल देवताओं की पूजा और याज्ञिक अनुष्ठान में ही तत्पर नहीं थे, अपितु वे उस तत्व-चिन्तन में भी लगे थे, जिसने आगे चलकर उपनिषदों और दर्शन शास्त्रों को जन्म दिया। यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई, सृष्टि से पहले क्या दशा थी, जब सृष्टि नहीं रहेगी तो क्या अवस्था होगी इस प्रकार के प्रश्नों पर भी वैदिक युग में विचार किया जाता था।
- वैदिक संहिताओं में ऐसे अनेक सूक्त आते हैं, जिनमें इस प्रकार के प्रश्नों पर बहुत सुन्दर व गम्भीर विचार किया गया है। यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई हैं, जो इसका धारण करता है, जो इसका अन्त कर प्रलय करता है, जो इस सम्पूर्ण विश्व का स्वामी व पालनकर्ता है, हे प्रिय मनुष्य! तू उसको जान, अन्य किसी को जानने का प्रयत्न न कर।
- इस विश्व में पहले केवल तम (अन्धकार) था, अत्यन्त गूढ़ तम था। तब सृष्टि विकसित नहीं हुई थी, सर्वत्र प्रकृति अपने आदि रूप में विद्यमान थी। उस सर्वोच्च सत्ता ने अपनी तपः शक्ति द्वारा तब इस सृष्टि को उत्पन्न किया।
- भूत, वर्तमान और भविष्य में जो कुछ भी इस संसार में है, वह सब उसी 'पुरुष' में से उत्पन्न होता है इस प्रकार के कितने ही विचार वैदिक मन्त्रों में उपलब्ध होते हैं और उस तत्व-चिन्तन को सूचित करते हैं, जिसमें वैदिक युग के अनेक ऋषि व विचारक संलग्न थे।
- क्योंकि वैदिक युग के देवता प्राकृतिक शक्तियों के रूप थे, अत: उनकी मूर्ति बनाने और इन मूर्तियों की पूजा करने की पद्धति सम्भवतः वैदिक युग में विद्यमान नहीं थी। वैदिक आर्य देवताओं की पूजा के लिए ऐसे मन्दिरों का निर्माण नहीं करते थे, जिनमें मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हों। वैदिक युग में देवताओं की पूजा का ढंग प्रधानतया याज्ञिक अनुष्ठान ही था ।
वैदिक युग में आर्थिक जीवन
- वैदिक युग के आर्थिक जीवन के मुख्य आधार कृषि और पशुपालन थे।
- पशुओं में गाय, बैल, घोड़ा, भेड़, बकरी, कुत्ते और गधे विशेष रूप से पाले जाते थे।
- आर्यों के आर्थिक जीवन में गाय का इतना अधिक महत्त्व था कि उसे अघ्न्या (न मारने योग्य) समझा जाता था।
- आर्य लोग इन पशुओं को बड़ी संख्या में पालते थे और इनसे उनकी आर्थिक समृद्धि में बहुत सहायता मिलती थी।
- इस युग में आर्य लोग कतिपय निश्चित प्रदेशों पर बस गये थे और कृषि के क्षेत्र में उन्होंने अच्छी उन्नति कर ली थी। जमीन को जोतने के लिए बैलों का प्रयोग किया जाता था। खेतों की उपज बढ़ाने के लिए खाद भी प्रयुक्त होता था।
- सिंचाई के लिए झील, जलाशय, नदी और कुएँ का जल काम में लाया जाता था। खेतों में पानी देने के लिए छोटी-छोटी नहरें व नालियां बनाई जाती थीं।
- भारत के ग्रामों में जिस ढंग से आजकल किसान लोग खेती करते हैं, जिस प्रकार वे अब लकड़ी और धातु के बने हलों को बैलों से चलाते हैं, जिस तरह वे खेती को सींचते, नलाते व काटते हैं, प्रायः उसी ढंग से वैदिक युग के आर्य भी करते थे।
- खेतों में उत्पन्न होने वाले अनाजों में जौ, गेहूँ, धान, माष व तिल प्रमुख थे। यद्यपि वैदिक आर्यों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि था, पर धीरे-धीरे अनेक प्रकार के शिल्पों और व्यवसायों का भी विकास हो रहा था।
- तक्ष्मन् (बढ़ई), हिरण्यकार (सुनार) कर्मार (धातु शिल्पी), चर्मकार (मोची). वाय (तन्तुवाय या जुलाहा) आदि अनेक व्यवसायियों का उल्लेख वेदों में आया है। उस युग में आर्य लोग रथों का बहुत उपयोग करते थे। ये रथ न केवल सवारी और माल ढोने के काम में आते थे, अपितु युद्ध के लिए भी इनका बहुत उपयोग था।
- आर्य-भिन्न दास लोग तो विविध शिल्पों का अनुसरण करते ही थे, पर आर्य लोगों ने भी कारु (शिल्पी), भिषक् (चिकित्सक) आदि अनेक प्रकार के व्यवसायों का संचालन प्रारम्भ कर दिया था। दास शिल्पियों को अपनी नौकरी में या गुलाम रूप में रखकर आर्य गृहपति अनेक प्रकार के व्यवसायों का भी संचालन करने लग गये थे।
- वैदिक युग के आर्य अनेक धातुओं का प्रयोग जानते थे। सभ्यता के क्षेत्र में वे प्रस्तर युग से बहुत आगे बढ़ चुके थे। सुवर्ण और रजत का प्रयोग वे आभूषणों और पात्रों के लिए करते थे, पर 'अयस्' नामक एक धातु को वे अपने औजार बनाने के लिए काम में लाते थे।
- संस्कृत भाषा में 'अयस्' का अर्थ लोहा है, पर अनेक विद्वानों का यह विचार है कि वेदों में जिस अयस् का उल्लेख है, वह लोहा न होकर ताँबा है। अयस् का अभिप्राय चाहे लोहे से हो और चाहे ताँबे से, इसमें सन्देह नहीं कि वैदिक युग के आर्य इस उपयोगी धातु के प्रयोग को भली-भाँति जानते थे और कर्मार लोग अनेक प्रकार के उपकरणों के निर्माण के लिए इसका उपयोग करते थे।
- आर्य लोग अपने निवास के लिए सुन्दर शालाओं निर्माण करते थे। वेद में एक शलासूक्त है, जिसमें शाला (मकान या घर) का बड़ा उत्तम वर्णन किया गया है। सम्भवत: इन शालाओं के निर्माण के लिये लकड़ी का प्रयोग प्रधान रूप से किया जाता था।
- वस्त्र-निर्माण का शिल्प भी इस युग में अच्छा उन्नत था। ऊन और रेशम कपड़े बनाने के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होते थे। यह सहज में अनुमान किया जा सकता है कि रुई से भी आर्य लोग भली-भाँति परिचित थे। सिन्धु सभ्यता के आर्थिक जीवन का विवरण देते हुए हमने उन प्रमाणों का उल्लेख किया है, जिनसे उस सभ्यता के लोगों का रुई से परिचय सिद्ध होता है। आर्य लोगों के लिए यह बहुत सुगम था कि वे अपने से पूर्ववर्ती सिन्धु सभ्यता के लोगों से रुई की खेती और उपयोग को भली-भाँति सीख सकें।
- सूत कातने और उससे अनेक प्रकार के वस्त्र बनाने के व्यवसाय में आर्य लोग अच्छे कुशल थे। वे सिर पर उष्णीय (पगड़ी) धारण करते थे, नीचे एक अधोवस्त्र (धोती या साड़ी) पहनते थे और ऊपर के लिए उत्तरीय (चादर) का प्रयोग करते थे। स्त्री और पुरुष दोनों आभूषण पहनने का शौक रखते थे। कुण्डल, केयूर, निष्क्रग्रीव आदि अनेक प्रकार के आभूषण इस युग के लोग प्रयोग में लाते थे।
- व्यापार के लिए इस युग में वस्तुविनिमय (चार्टर) का प्रयोग होता था पर बहुधा वस्तुओं के मूल्य का अंकन गौओं द्वारा करके और गौ को मूल्य की इकाई मान कर विनिमय का काम चलाया जाता था। धातु द्वारा निर्मित किसी स का चलन इस युग में था या नहीं, यह बात संदिग्ध है। निष्क नामक एक सुवर्ण मुद्रा का उल्लेख वैदिक साहित्य में आया है। पर सम्भवतः, उसका उपयोग मुद्रा की अपेक्षा आभूषण के रूप में अधिक था।
- वैदिक संहिताओं में नौकाओं का भी अनेक स्थलों पर वर्णन आया है। इनमें से कतिपय नौकाएँ बहुत विशाल भी हैं। सम्भवतः, वैदिक युग के लोग स्थल और जल मार्गों द्वारा दूर-दूर तक व्यापार के लिए आते-जाते थे। सिन्धु सभ्यता के काल में भी सामुद्रिक व्यापार का प्रारम्भ हो चुका था। इस युग में यह और भी अधिक विकसित हुआ।
- वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर 'पणि' नामक व्यापारियों का उल्लेख आया है, जिन्हें असुर कहा गया है। सम्भवतः, ये पणि फिनीशियन लोग थे, जिन्हें लैटिन भाषा में 'पूनि' कहा जाता था। फिनीशियन लोगों की बस्ती पैलेस्टाइन के समुद्रतट पर थी, जहाँ से वे सुदूर देशों में व्यापार के लिए आया-जाया करते थे। भारत के आर्यों का इनसे परिचय था । सम्भवतः, वैदिक युग में भारत का पैलेस्टाइन के फिनीशियन (पूनि या पणि) लोगों के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित था।
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