वैदिककालीन धार्मिक विश्वास |वैदिककालीन देवी देवता Vedic Religious Beliefs in Hindi
वैदिककालीन धार्मिक विश्वास ,वैदिककाल में धार्मिक क्रिया विधियाँ
वैदिक ग्रंथों के अनुशीलन द्वारा इमें तत्कालीन धार्मिक विश्वासों के विषय की निम्नलिखित रूपरेखा प्राप्त होती है:
1 एकम् सत
- ऋग्वेद के रचयिता एक सत्य में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार यह 'सत्' अस्तित्व की नियन्त्रित करने वाला एक नियम है तथा यही असीम वास्तविकता है। ऋग्वेद में प्रार्थना, उपासना तथा भेंट द्वारा जिन देवताओं की स्तुति की गई है वे सभी सत्य के अभिभावक है। उन्हीं की कृपा द्वारा सत्य के नियम, को पहचाना जा सकता है।
2 एकेश्वरवाद
- ईश्वर एक है परन्तु उसका वर्णन कई रूपों में किया जाता हैं ऋग्वेद के इस कथन से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक आर्य 'एकम् सत्' में विश्वास रखते हुए जिस सार्वभौमिक सत्ता में विश्वास रखते थे- वह एकेश्वरवाद थी।
3 बहुदेववाद
- ऋग्वैदिक आर्य एक सार्वभौमिक सत्ता में विश्वास रखते हुए भी बहुदेववादी हो गये थे। ऋग्वेद अनेक देवताओं का अस्तित्व मानता है। एकेश्वरवाद तथा बहुदेववाद के इस समन्वयी दृष्टिकोण के विषय में यास्क ने उदाहरण देते हुए कहा है कि व्यक्तिगत रूप से भिन्न होते हुए भी जैसे असंख्य मनुष्य राष्ट्र के रूप में एक हैं वैसे ही विविध रूपों में प्रकट होने पर भी देवताओं में एक ही परमात्मा व्याप्त है।
4 प्रकृति में विश्वास
ऋग्वैदिक आर्यों का विश्वास था कि प्रकृति की प्रत्येक शक्ति एक देवता के अधीन कार्य करती है। परिणामस्वरूप वे प्रकृति को भी विभिन्न देवताओं का स्वरूप मानने लगे।
प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में उनके देवताओ की तीन श्रेणियाँ थीं
(1) आकाश देवता- द्योस वरूण, मित्र, सूर्य, सविता, पूषन, अदीति, उषा तथा आश्विन आदि,
(2) अन्तरिक्ष देवता - इन्द्र, रूद्र, मारूति, वात, पर्जन्य आदि, तथा
(3) पृथ्वीवासी देवता पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति, सरस्वती आदि।
वैदिककालीन देवी देवता Vedik Kalin Devi Devta
5 देवी देवताओं के विभिन्न वर्ग
आर्यों द्वारा प्रयुक्त 'देव' शब्द की परिभाषा व्यापक थी। इसके अन्तर्गत परम पुरूष से लेकर, प्रकृति की विभिन्न शक्तियों, पूर्वज, आचार्य, माता पिता, आदि की कल्पना की जाती थी। आर्यों का विश्वास एक सर्वोच्चशक्ति 'सत्' अथवा परम पुरूष में था जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अनेक रूपों में स्वीकार की। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंनें प्रकृति, गृहस्थ, पशुरूप तथा अमूर्त देवताओं की कल्पना की । इन रूपों तथा अपने एवं देवता के मध्य सम्बन्धों से वे आश्चर्य, भय, एवं प्रभाव आदि भावनाओं से ओतप्रोत हुये और सभी के समक्ष समान आदर से उन्होंने शीश झुकाकर सभी के देवता स्वरूप को स्वीकार किया। ऋग्वैदिक देवी देवताओं के विभिन्न वर्ग निम्नलिखित है
वैदिककालीन प्राकृतिक देवता
- प्रकृति के प्रधान कार्यों के द्योतक देवताओं के वर्ग में थीं, पृथ्वी, वरूण, इन्द्र, सूर्य ( पाँच रूप है- सूर्य, सविता, मित्र, पूषन तथा विष्णु), रूद्र, दो आश्विन (जो प्रायः तथा सांयकाल के रूप हैं) मरूत, वायु, वात रर्जन्य तथा ऊषा आदि है।
वैदिककालीन गृहस्थ्य जीवन से सम्बन्धित देवता
- इस वर्ग के देवताओं का सम्बन्ध्या आर्यों के गृहस्थ जीवन से था। ये देवता अग्नि (इसके तीन रूप थे सूर्य, विद्युत तथा भौतिक अग्नि), सोम (अमृत का पेय) हैं।
वैदिककालीन अमूर्त देवता
- हमें वैदिक ग्रंथों में अनेक ऐसे अनेक देवताओं की संकल्पना मिलती है, जिन्हें अमूर्त देवता के वर्ग में रक्षा जा सकता है। इस वर्ग में श्रद्धा तथा मन्यु थे।
वैदिककालीन पशु रूप देवता
- कुछ स्थानों पर इन्द्र की वृषभ रूप में तथा सूर्य की अश्वरूप में पूजा की गयी है, सर्प को समुद्र का देवता कहा गया है।
वैदिककालीन अन्य देवता
- ऋभु, आकाशचारी देवता, देव योनियाँ, अप्सराएं तथा गन्धर्व आदि अन्य देवता थे।
वैदिककाल में यज्ञ
- देवता के लिये मन्त्रपूर्वक द्रव्यत्याग को यज्ञ कहते थे। यज्ञ का प्रारम्भिक स्वरूप सरल था। ऋग्वेद काल में देवता के स्तुतिपरक मन्त्र पढ़े जाते थें और हवि के रूप में विविध धान्य अथवा गोरस से निर्मित अन्न आदि तथा सोमरस अर्पित किये जाते थे। क्रमशः अनेक यज्ञों में ऋत्विक के कार्य का चतुर्धा विभाजन भी होता था। होता नामक ऋत्विक ऋचाओं का पाठ करता था। अध्वर्यु कर्मकाण्ड का भार वहन करता था। उदगाता सामगान करता था तथा ब्रहमा यज्ञ कर्म का अध्यक्ष होता था।
वैदिककाल में धार्मिक जीवन
- गुरूचरण सुश्रुषा, तप और त्याग तथा श्रवण, मनन, निदिध्यासन के अभ्यास से विकसित आर्यों का धर्म अद्वितीय था।
- सभ्यता के उस चरण में विश्व के किसी भी भाग में धर्म का ऐसा रूप नहीं मिलता। साधरण से परिवर्तन के अतिरिक्त उतर वैदिक काल का धार्मिक जीवन लगभग ऋग्वैदिक काल के ही समान था।
- आवागमन के सिद्धान्त का जन्म नहीं हुआ था तथा अहिंसा की नीति का प्रतिपादन होना अभी शेष था। अथर्ववेद की अधिकांश प्रार्थनाओं में आयु, संतान, धन एवं प्रभुता की कामना ही मिलती है।
- यजुर्वेद की लगभग सारी स्तुतियाँ तथा क्रियाएं भौतिक सुख विषयक ही है। नई धार्मिक प्रवृत्तियों में परलोक गमन विष्यक विश्वास इस युग की नई देन थे।
- अथर्ववेद में कहा गया है कि अच्छे काम करने वाले व्यक्ति देवताओं के पास जाते हैं और यम के साथ रहते हैं।
- स्वर्ग में घी, दूध, शहद, दही और सुरा की भरमार है। स्वर्ग का उलटा नरक है जहाँ पर पापी लोग रक्त में बैठ कर बाल चबाते हैं। इन कथनों से प्रगट होता है कि उत्तर वैदिक काल में स्वर्ग और नरक की चिन्ता सताने लगी थी। इसी चिन्ता के फलस्वरूप जिस नई भावना का जन्म हुआ वह यह थी कि इस सब स्वर्ग और नरक का क्या तात्पर्य है। यह विश्व क्या है ? किसने इसे बनाया? क्यों बनाया? आदि आदि। ये खोजकर्ता के स्वाभाविक प्रश्न थे। “ इस पर मनन करते करते विश्व के आदिकरण की कल्पना हुई।
- विश्वचक्र में संसार क्षणभंगुर प्रतीत होता हें, अतएव इसमें स्थायी सुख नहीं हो सकता दुःख तो बहुत सा है, इस सारे जंजाल को छोड कर शान्ति पाने की चेष्टा करनी चाहियें। इसी विचार से तप की परिपाटी चल निकली।
- ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सात ऋषियों द्वारा तपक ने का उल्लेख है।
- अथर्ववेद में कहा गया है कि तप, यज्ञ, ऋत, ओर ब्रहम आदि के आधार पर ही विश्व स्थिर है।
- ऐतरेय ब्राहमणों के अनुसार तप और यज्ञ द्वारा ही देवताओं ने स्वर्ग जीता था। इन सभी उल्लेखों आदि से स्पष्ट होता है कि उत्तर वैदिक काल में कुछ नये दृष्टिकोणों का जन्म हो रहा था।
वैदिककाल में धार्मिक क्रिया - विधियाँ
1- स्तुति, आराधना और प्रार्थना
- आर्यों की धार्मिक क्रियाविधियों में देवी-देवताओं की स्तुति, आराधना और प्रार्थना मुख्य थीं। प्रत्येक देवी-देवता के लिए भिन्न-भिन्न ऋचाऐं थीं और उनको गाकर ही देव-स्तवन होता था। आर्यों की धारणा थी कि उनके देवता प्रार्थना, उपासना और उपहार तथा भेंट से प्रसन्न होते हैं और सुख समृद्धि देते हैं।
2 यज्ञ
- ऋग्वैदिक में यज्ञ स्वर्ग के देवों के मिलन का सांसारिक स्थान था।
- यज्ञ दो प्रकार के होते थे प्रथम नित्य और द्वितीय नैमित्तिक ।
- नित्य यज्ञों में पांच महायज्ञ थे यथा ब्रहम- यज्ञ, देव- यज्ञ, पित्-यज्ञ, भूत-यज्ञ और मनुष्य यज्ञ। उपर्युक्त पंच महायज्ञों के अतिरिक्त नैमित्तिक यज्ञ भी होते थे।
- यजमान अपने पुरोहितों की सहायता से नैमित्तिक यज्ञ विभिन्न और विशिष्ठ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कराते थे।
- शतपथ ब्राहमण में ऐसे अनेक यज्ञों का उल्लेख है यथा वैश्वदेव यज्ञ से अग्नि लोक प्राप्त किया जा सकता था, साकमेध और वरूण-प्रधास से इन्द्रलोक और वरूणलोक मिलते थे। इसी प्रकार युकामेष्टि दीर्घायु होने के लिए वारीरिष्टी वर्षा के लिए आदि आदि।
3 पितृ पूजा
- ऋग्वैदिक युग में देव-पूजा के साथ-साथ पितृ पूजा भी प्रचलित हो गयी थी।
- ऋग्वेद के दसवें मण्डल में एक ही स्थल पर देवताओं और पितरों का साथ-साथ विवरण है।
- देवताओं के समान पितरों की भी स्तुति की जाती थी और उनके लिए सोम, हवि और स्वधा का समर्पण किया जाता था।
- पितरों से आशा की जाती थी कि वे प्रसन्न होकर अपने वंशजों की रक्षा करेंगें, उन्हें शान्ति देंगें, उनकी सहायता करेंगे और हानि व कष्ट से उन्हें बचायेंगे।
4 दाह क्रियाविधि
- इस युग में किसी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात उसके शव को चिता पर ले जाते थे और मृतक के साथ उसकी पत्नी और अन्य सम्बन्धी होते थे। शव को चिता पर रख दिया जाता था।
- यदि मृतक ब्राहमण होता तो उसे दाहिने कर में लाठी दी जाती, क्षत्रिय होने पर धनुष और वैश्य होने पर बैल हाकने की दी जाती थी।
- उसकी पत्नी उसके समीप तब तक बैठी रहती जब तक कि उसे "अरे महिला! उठो, और जीवित लोगों के लोक में आओ।" कहकर हटाया नहीं जाता था।
- इसके पश्चात उस व्यक्ति के परिवार के अग्निस्थल (हवन कुण्ड या चूल्हा) से लायी गयी आग से चिता प्रज्ज्वलित की जाती थी। इसके बाद मृतक के लिए यह ऋचा पढी जाती थी, “पुरखाओं के मार्ग पर जाओ "
- (ऋग्वेद 10-14) अग्नि में शव के पूर्णतया भस्म होने पर शरीर की अस्थियां एकत्रित कर ली जाती थीं और उन्हें धोकर स्वच्छ कर एक कलश में रखकर पृथ्वी में गाड दिया जाता था।
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