वैदिककालीन धार्मिक विचारधारा |Vedic Religious Ideology

 वैदिककालीन धार्मिक विचारधारा |Vedic Religious Ideology

वैदिककालीन धार्मिक विचारधारा |Vedic Religious Ideology
 

ऋग्वेद की ऋचाऐं आर्यों की धार्मिक विचारधाराओं पर प्रकाश डालती हैं। इनका अध्ययन हम अग्रांकित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं

 

1 ऋग्वेदिक कालीन धार्मिक विचारधारा

 

  • इस धर्म के लौकिक और दार्शनिक पक्ष हैं। 
  • ऋग्वेदकालीन आर्य नितान्त प्रवृत्तिमार्गीं थे। उन्होंने आभी तक गृहत्याग, सन्यास ओर तप की कल्पना नहीं की थी। वे विश्व का अमंगलकारी कष्ट का स्थान नहीं मानते थे। उनमें शरीर से मुक्ति या सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए कोई तीव्र लालसा या उत्सुकता नहीं थी।
  • प्रारम्भिक वैदिक धर्म को एकैकदेववाद कहा गया है, जिसके अनुसार लोग अलग-अलग देवताओं में विश्वास करते थे और जिनमें से प्रत्येक देवता अपनी जगह पर सर्वोच्च था। 
  • ऋग्वेदिक आर्यों के लिए विश्व और गृहस्थाश्रम उत्तम स्थान थे। वे गृहस्थाश्रम में ही रहकर देवोपासना और नैतिकता से कल्याण प्राप्ति के लिए प्रयास करते थे। 
  • ऋग्वेद में मनुष्यों के सद्गुणों और नैतिकता पर भी बल दिया गया है, मनुष्य के वर्तमान तथा भविष्य के विषय में कोई संघर्ष नहीं था। धर्म, अर्थ एवं काम के बीच में कोई विरोधाभाष नहीं था, यह कल्पना की जाति थी कि सम्पूर्ण मानव जीवन सुख और समन्वय की इकाई है।
  • प्रारम्भिक एकैकदेववाद के स्थान पर कालान्तर में आर्यों के धार्मिक विचारों में परिवर्तन होता गया। 
  • प्रकृति और देवताओं के विषय में आर्यों के मत में परिवर्तन हो गया। आर्यों ने यह समझ लिया था कि सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में एक परम सत्ता है। सत् एक ही है। विद्वान या ऋषिगण उसे अग्नि, यम और मातरिश्वा आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं । " यह देवादिदेव के अस्तित्व की ओर संकेत करता है। 
  • ऋग्वेद की बाद की ऋचाओं में एकेश्वरवाद की भावना और अद्वैतवाद की प्रवृत्ति के निश्चित संकेत और दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। 
  • ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है कि " आकार और अस्तित्व वाले का सृजन निराकार से हुआ।
  • अन्ततः हमें सृष्टि का एक संगीत मिलता है, जिसके अनुसार प्रारम्भ में न तो मृत्यु और न अमरता रहती थी और न दिन रात का भेद ही था। केवल वही एक शान्तिपूर्वक रहता था जो अपने ऊपर निर्भर था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था और इसके ऊपर भी कोई नहीं था।

 

2 उत्तर वैदिककालीन धार्मिक विचारधारा

 

  • उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक जीवन में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। 
  • प्राचीन देवताओं की द्युति क्रमशः मलिन पड रही थी। पुरोहितों ने धर्म के यज्ञवाले भाग का बहुत ही प्रसार किया, जबकि प्रेतों, पिशाचों, जादू-मन्त्रों और जादू विद्या में सार्वजनिक अन्धविश्वास ने धर्म में स्थान प्राप्त कर लिया। समय के साथ एकेश्वरवादी ओर अद्वैतवादी प्रवृत्तियां, जो कि ऋग्वैदिक काल के अन्त में पनप रही थीं, अब स्पष्ट हो गयी। 
  • भौतिक प्राणियों के स्वामी प्रजापति के सामने पहले के सब देवता ज्योतिहीन हो गये। ईश्वर के अवतारवाद की धारणा प्रजापति की कहानियों से स्पष्ट होती है, जिन्होंने शूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को पाताल के जल से ऊपर उठाया और जो सृष्टि निर्माण के समय कच्छप हो गये। 
  • परिचित साधारण जनता दुरूह धर्म विद्या या दार्शनिक विवेचना को नहीं समझ सकी और ऋग्वेद में कुछ देवताओं के प्रति अपना सम्मान दिखाने लगी, किन्तु वे देवता इतने प्रमुख नहीं थे, जितने इन्द्र या वरूण | उनमें एक रूद्र थे, जो पहले की प्रार्थनाओं में शिव की उपाधि रखते थे और शीघ्र ही महादेव और पशुपति समझे जाने लगे। 
  • रूद्र के साथ ही दूसरी मूर्ति विष्णु की थी, जो ऋग्वेद में तीन डगों के लिए प्रसिद्ध सूर्य लोग के देवता थे। विश्व सम्बन्धी और धर्मानुरूप व्यवस्था के मूलस्वरूप दुःख से मनुष्य जाति केा मुक्त करने वाले और देवताओं के रक्षक के रूप में विष्णु ने शीघ्र ही वरूण का स्थान प्राप्त किया और स्वर्गीय देवों में ये सबसे अधिक महिमान्वित हुए । 
  • वैदिक धर्म पुस्तकों के अन्तिम काल तक वे वासुदेव समझे जाने लगे और इनहीं धर्म पुस्तकों में भागवत् सम्प्रदाय के बीज प्राप्त होते हैं ।
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