वैदिककालीन सामाजिक जीवन | Vedik Kal me Samajik Jeevan
वैदिककालीन सामाजिक जीवन Vedik Kal me Samajik Jeevan
वैदिककालीन सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का
अध्ययन हम अग्रांकित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं
1 परिवार
- आर्य समाज पितृसत्तात्मक था परंतु नारी को मातृरूप में पर्याप्त सम्मान प्राप्त था।
- पिता अथवा पितामह परिवार का प्रधान होता था तथा उसे 'गृहपति' और 'कुलाप' कहा जाता था।
- परिवार के सभी सदस्य उसके आज्ञाकारी होते थे। यह पद वंशानुगत होता था तथा पिता की मृत्यु के उपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र अथवा पिता का छोटा भाई गृहपति' अथवा 'कुलाप' का स्थान ग्रहण करता था।
- पुत्र पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता था।
- कतिपय परिस्थितियों में पैतृक सम्पत्ति का विभाजन भी होता था। पिता की सम्पत्ति पर पुत्री का अधिकार नहीं था।
- संयुक्त परिवार प्रणाली होने से उत्तरदायित्व भी समान तथा सामूहिक था। परिवार के सम्मान, पारिवारिक परम्पराओं, रीति रिवाजों तथा मान्यताओं के पालन में समस्त कुटुम्ब तत्पर रहता था। इसके अतिरिक्त कौटुम्बिक प्रेम तथा पारस्परिक सद्भावना एवं सहानुभूति ने पारिवारिक जीवन को सुख समृद्धता प्रदान की हुई थी।
- पत्नी अपने पति के साथ धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमुख भाग लेती थी।
- ऋग्वेद के मन्त्रों में कहा गया है " पत्नी ही गृह है, वही गृहस्थी है तथा उसमें आनन्द है। "
- परिवार की सम्पन्नता का मापदण्ड परिवार का वृहद् होना था। ‘“हमारे घर सन्तान से भरे रहें, हमें वीर पुत्रों की कमी न हो। " ऐसे अनेक उद्धरण मिलते हैं।
2 भोजन
- दूध तथा उससे बने हुए पदार्थ आर्यों को विशेष प्रिय थे। दूध के साथ वे चावल पकाते थे। चावल और जौ को घी में मिलाकर खाया जाता था। एक प्रकार का हलवा दूध तथा यव के मिश्रण से बनाया जाता था।
- कीथ महोदय ने लिखा है “समूचे भारतीय इतिहास में तरकारियों तथा फलों के ही भोजन उपादान रहे हैं, परन्तु वैदिक भारतीय मांसाहारी थे।
- “ ऋग्वेद कालीन आर्य भोजन के विषय में अभिव्यक्त इस मत से हम पूर्ण सहमत नहीं है। जिन पशुओं के मांस का प्रयोग इस समय किया जाता था वे भेड़ तथा बकरी थे। ऋग्वेद में मछली का नाम नहीं है तथा गाय पवित्र माता के समान मानी जाती थी अतः इनके मांस का भक्षण करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
- जहाँ तक ऋग्वेद के वर्णनों का प्रश्न है- हम इतना ही कह सकते है कि आर्यों को शाकाहारी भोजन प्रिय था तथा केवल विशेष अवसरों पर ही मांस का प्रयोग किया जाता था।
- खाद्यान्नों में गेहूं, जौ, धान, उड़द, मूंग तथा अन्य दालों का विशेष प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में रोटी तथा तवे का उल्लेख नहीं मिलता है।
- अतः हम यह नहीं कह सकते कि वे आटे का उपयोग किस रूप में करते थे। मोटे तौर पर आर्यों का भोजन सादा, सन्तुलित तथा शक्ति वर्द्धक था।
3 सुरापान
- सुरा निन्दित समझी जाती थी | सुरा पीकर लोग अपना आपा खो बैठते तथा सभा समितियों में आपस में लड़कर उपद्रव करते थे।
- आर्य सुरापान के दोषों से परिचित थे। परन्तु सुरापान का निषेध पूर्ण रूप से नहीं था। सुरापान किया जाता था।
- ऋग्वेद के नवें मण्डल तथा छहों अन्य सूक्तों में सोम की प्रशंसा की गई है।
- सोमवल्ली मूजवन्त पर्वत पर अथवा कीकटों के देश में उत्पन्न होती थी। सोम की मादकता तथा आनन्ददायिनी विशेषताओं का वर्णन भी मिलता है।
- सुरापान विशेष रूप से यज्ञादि के अवसर पर किया जाता था। सुरा देवताओं को भी अर्पित की जाती थी।
4 वस्त्र वेशभूषा
- आर्य प्रमुखतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे (1) अधोवस्त्र, (2) उत्तरीय तथा (3) अधिवास
- ऋग्वेद में 'उष्णीय' अर्थात् सर पर धारण की जाने वाली पगड़ी का भी उल्लेख है।
- उनके वस्त्र सूत, ऊन तथा मृगचर्म द्वारा बनते थे। वे सिलाई से परिचित थे तथा उनके वस्त्र नाना प्रकार के होते थे।
- धनी तथा विलासी व्यक्ति जरी तथा अनेक रंगों के वस्त्र धारण करते थे। उत्सवों के अवसरों पर नये तथा विशेष आकार प्रकार के वस्त्र पहनने की प्रथा थी।
- स्त्रियाँ सूई द्वारा कढ़ाई करके वस्त्र बनाती थी।
5 श्रृंगार
- वेणी स्त्री की सुन्दरता का प्रतीक मानी जाती थी।
- श्रृंगार विविध प्रकार के फूलों तथा आभूषणों द्वारा किया जाता था।
- काजल, तिलक, विभिन्न तेलों, सुगन्धियों तथा रंगों के श्रृंगार प्रयोग से उनका परिचय था।
- आर्य पुरुष भी लम्बे बाल रखते थे। दाढ़ी को श्मश्रु' कहा जाता था परन्तु क्षौर कराने की प्रथा थी । नाई को वाप्त कहा जाता था। सिल्ली पर उस्तरा तेज करने का उल्लेख मिलता है।
अनेक स्त्रियां अपने सौन्दर्य तथा श्रृंगार पर फूली नहीं समाती थीं तथा प्रेमियों का चित्तहरण करने में कुशल थीं।
- अनेक स्त्रियां अपने सौन्दर्य तथा श्रृंगार पर फूली नहीं समाती थीं तथा प्रेमियों का चित्तहरण करने में कुशल थीं।
6 आभूषण
- स्त्री तथा पुरुष समान रूप से आभूषण प्रिय थे। वे कानों में कर्णफूल, गले में निष्क, हाथों में कड़े और, छाती पर सुनहले पदक, गले में मणियाँ पहनते थे।
- इनके अतिरिक्त ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में माथे का टीका, भुजबन्ध, केयूर, नुपुर, कंकण, मुद्रिका आदि आभूषणों का उल्लेख मिलता है।
- आभूषणों का निर्माण करने वालों को स्वर्णकार कहा जाता था। आभूषणों में प्रयुक्त होने वाली सामग्री स्वर्ण, चॉदी, कीमती पत्थर, हाथीदॉत तथा मोती, मूंगें आदि थे।
7 मनोरंजन- ऋग्वेद में मनोरंजन की अनेक विधियों, साधनों तथा प्रणालियों का उल्लेख मिलता
है। आमोद- प्रमोद के लिये विभिन्न उत्सवों का आयोजन किया जाता था।
- संगीत, मनोरंजन का मुख्य साधन था। इसके तीन
अंग थे- नृत्य, गायन तथा वाद्य वाद्यों मे वीणा, शंख, मृदंग तथा दुन्दुभि आदि प्रमुख थे।
- आखेट, घुड़दौड, मल्लयुद्ध तथा रथों की दौड़ का आयोजन किया जाता था। प्रेम और
प्रसन्नता के भाव में आर्य लोग आनन्द से जीवन बिताते थे, परलोक की बहुत अधिक चिन्ता नहीं थी।
- खुले मैदान में स्त्री और पुरूष बड़े चाव से नाचा करते थे। खास तौर से स्त्रियों
को नदियों और तालाबों में नहाने का बहुत शौक था।
- ऋग्वेद के समय में जैसा उल्लास और
सामाजिक स्वातन्त्र था वैसा हिन्दुस्तान में फिर कभी नहीं देखा गया।
वैदिक काल स्त्रियों का पद तथा दशा
8 स्त्रियों का पद तथा दशा
- सामाजिक परम्पराओं की मान्यतानुसार स्त्रियों का पद बहुत ऊँचा था।
- समाज के मानसिक तथा धार्मिक नेतृत्व में स्त्रियों का पर्याप्त सहयोग रहता था।
- पर्दे की प्रथा नहीं थी। शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिये भी खुले हुए थे।
- धार्मिक साहित्य में रूचि रखने वाली स्त्रियों को अपनी प्रवृत्ति के पालन कोई रोक टोक नहीं थी। कई ऋषि स्त्रियों की रचनाएं ऋग्वेद संहिता में हैं।
- साहस और वीरता में स्त्रियाँ काफी आगे थीं उदाहरणार्थ विष्पला नामक स्त्री लड़ाई में गई थी तथा वह घायल हो गई तो अश्विनो ने उसकी चिकित्सा की थी।
- प्रत्येक माता पिता की अभिलाषा पुत्री की अपेक्षा पुत्र प्राप्त करने की होती थी। पुत्र अपने पिता के कार्यों में सहायक होता था तथा जन-धन की रक्षा के साथ पूर्वजों का तर्पण करता था। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पुत्री हेय तथा घृणा की थी। वस्तु ऋग्वेद के अनेक स्थानों पर पुत्र तथा पुत्रियों की दीर्घायु के लिये कामना करने का वर्णन मिलता है।
- पुत्र के अभाव में पुत्री को ही पुत्र सदृश्य माना जाता था। क्योंकि बाल विवाह की प्रथा नहीं थी अतः विवाह होने से पहले कन्याओं को शिक्षा प्राप्त करने का समय मिल जाता था।
- गृहकार्य, कताई, बुनाई, नाना प्रकार के व्यंजन बनाने की शिक्षा, नृत्य, गायन, संगीत, वाद्य, वृन्दादि स्त्री शिक्षा के प्रमुख अंग थें। कन्याओं को वैदिक शिक्षा दी जाती थी ।
- पुत्री का भी उपनयन संस्कार किया जाता था।
- ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, विश्ववारा जैसी पारंगत तथ विदुषी स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। स्त्रियों को यज्ञ करने का भी अधिकार था।
वैदिक काल में विवाह
9 विवाह
- लौकिक तथा परलौकिक शान्ति के लिये पुत्रों की कामना की जाती थी। यज्ञादि के अवसरों पर सपत्नीक उपस्थिति आवश्यक थी। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये विवाह आवश्यक था।
- विवाह व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का प्रमुख अंग था।
- वर की ओर से बारात वधू के घर जाती थी ताकि वहां पर सामूहिक भोज के पश्चात् यज्ञाग्नि के चारों ओर परिक्रमा करके वर-वधू का विवाह होता था। इसके पश्चात् दोनों दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करते थे। यह गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने का अनुष्ठान भी माना जाता था। विवाह होने से पहले वर-वधू के गुण-दोषों को आंक लिया जाता था। विवाह के उपरान्त स्त्री पति के नियन्त्रण में रहती थी।
10 प्रेम विवाह
- विवाह के मामलों में स्त्रियों को बड़ी स्वतन्त्रता थी यौवनावस्था में स्त्री-पुरूष परस्पर मिलाजुला करते थे। अपनी रूचि के अनुसार प्रेम किया करते थे तथा प्रेम के कारण विवाह कर लिया करते थे। युवक युवतियाँ छिप कर मिलने का प्रयत्न करते थे। एक स्थान पर युवक द्वारा मन्त्र का प्रयोग करके अपनी प्रेमिका के घर वालों को सुलाने का वर्णन मिलता है।
11 बाल विवाह
- प्रेमविवाह तथा विवाह प्रणाली के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बालविवाह की प्रथा नहीं थी।
- ऋग्वेद में कहीं पर भी बालविवाह का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत ऋग्वेद में कहा गया हैं कि घोषा नामक स्त्री प्रौढावस्था तक अविवाहित रही थी।
- अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी थीं जो विवाह नहीं करती थी। एक ऐसी स्त्री का उल्लेख है जो अपने माँ बाप के घर पर ही अविवाहित होते हुए वृद्धा होती जा रही थी
12 बहुविवाह
- कुछ गिने-चुने तथा समर्थ पुरूष ही बहुविवाह करते थे। आर्थिक कारणों तथा कौटुम्बिक सुख के कारणों से बहुविवाह करना जीवन को दुखमय बनाना था। ऋग्वेद में कहा गया है कि अनेक महापुरूष बहुविवाह करके घरेलू चिन्ताओं तथा पारिवारिक मनमुटाव के कारण बेहद परेशान रहते थे।
13 विधवा विवाह
- ऋग्वेद में विधवा विवाह का निषेध नहीं है।
- ऋग्वेद की एक ऋचा में उस स्त्री से जो अपने पति के शव के साथ लेटी हुई है, कहा गया है- “स्त्री, उठो। तुम उसके पास लेटी हो जिसकी इहलीला समाप्त हो गयी है। अपने पति से दूर हट कर जीवितों के संसार में आओ और उसकी पत्नी बनो जो तुम्हारा हाथ पकड़ता है और तुमसे विवाह करने को इच्छुक है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि विधवा विवाह की प्रथा प्रचलित थी।
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