वैदिक कालीन आर्थिक जीवन | Vedik Kalin Aarthik Jeevan
वैदिक कालीन आर्थिक जीवन
- वैदिक काल के प्रारम्भिक समय में आर्य अधिकतर गांवों में फैले थे। वेद मन्त्रों में नगर शब्द नहीं है। निःसन्देह पुरों का उल्लेख मिलता हैं, जो कभी-कभी बड़े आकार के होते थे और कभी पत्थर के बने (अश्ममयी) और लोहे के बने (आयसी) होते थे। गांव वालों की प्रधान जीविका खेती थी। गावों में घर और खेती की भूमि व्यक्तियों और परिवारों के द्वारा अधिकृत मालूम पडती है, जब कि घास का मैदान (खिल्य) सम्भवतः जनसाधारण के अधिकार में होता था। कृषिकला का महत्व कृष्टि या चर्षणि ( खेतिहर) नाम से व्यक्त होत है। यह नाम साधारण रूप से जनता के लिए और विशेष रूप से पांच प्रधान जनों के लिए जिनमें प्रारम्भिक वैदिक काल के लोग बंटे थे, लागू होता है जुते हुए खेत उर्वरा या कहे जाते थे। ये बहुधा नहरों से सींचे जाते थे, खाद का उपयो ज्ञात था। भूमि में उत्पन्न अन्न धान या यव ' कहा जाता था। किन्तु इन नामों की ठीक-ठीक विशेषता प्राचीनतम साहित्य से नहीं लगती है। पकने पर वे हंसुए से काटे जाते थे, बोझों में बंधे रहते थे और खलिहान की भूमि में झाड़े जाते थे। उसके बाद चक्की में पीसे जाते थे और तब उनसे रोटी (अपूप) बनती थी।
- कृषि के साथ ही पशुपालन का भी अत्यधिक महत्व था। गाय का अत्यधिक आदर था। दू वैदिक घरों में भोजन का एक प्रधान अंग था। गोप प्रतिदिन पशुओं के झुण्डों को चरागाह में ले जाते थे। यमुना की तराई गोधन के लिए विशेष प्रसिद्ध थी। काम में आने वाले अन्य पशु, बैल, घोड़ा, कुत्ता, बकरी और भेड थे, गान्धार देश की भेड़ ऊन के लिए प्रसिद्ध थीं।
- यद्यपि वैदिक जातियां खेतिहर और चरवाहा थीं, फिर भी वे व्यापार और उद्योग-धन्धों के प्रति उदासीन नहीं थीं। व्यापार अधिकतर पणि नामक लोगों के हाथ में था जो शायद अनार्य थे और जिनकी कृपणता कहावत सी हो गयी थी। लेकिन उन्हीं में बृबु जैसे दानी व्यापारियों के उल्लेख भी मिलते हैं। संभवतः व्यापार प्रधान रूप से वस्तु विनिमय के द्वारा होता था। बाद की संहिताओं से पता चलता है कि व्यापार की मुख्य वस्तुऐं कपड़े, तोशक, चादर और चमड़े थीं। गाय मूल्य की प्रामाणिक इकाई थी। प्रारम्भिक काल के निष्क में प्रचलित सिक्के के सब गुण थे या नहीं, यह एक विवादास्पद प्रश्न है।
- स्थल द्वारा यातायात के प्रधान साधन रथ और गाड़ी थे। रथ सामान्यतः घोडों से और गाड़ी बैलों से खींची जाती थी। पथिकृत उपाधि अग्नि देवता की थी इससे स्पष्ट है कि जंगलों को जलाने के लिए अग्नि की सहायता ली जाती थी। ये जंगल, जंगली जानवरों और डाकुओं (तस्कर, स्तेन) से भरे रहते थे।
- ऋग्वैदिक काल में समुद्र जहाज संचालन प्रचलित था या नहीं, यह प्रश्न बहुत विवादग्रस्त है। थी। कुछ विद्वानों के अनुसार नौ यात्रा, नावों के द्वारा नदियों के पार करने तक ही सीमित थी।
- परंतु सौ पतवार वाले जहाज से यात्रा करने वाले यात्रियों के भी निश्चित उल्लेख हैं भुज्यु के जहाज डूबने की कहानी में समुद्र का वर्णन है “जो सहारा या आधार या ठहरने का स्थान नहीं होता कुछ विद्वानों के अनुसार उस समय समुद्र का अर्थ सिन्धु की निचली धारा समझा जाता था। कुछ अन्य विद्वान इस कहानी को दन्त कथा समझते हैं जो पथिकों से इकठ्ठी की गई थी। किन्तु “ समुद्र के कोषों" के उल्लेख से समुद्र का परिचय संभव मालूम होता है। यदि वैदिक 'मना' की एकरूपता बेबीलोन के मनः से ठीक है तो समुद्रों से दूर देशों और वैदिक भारत के बीच के पूर्वकालिक आवागमन के निश्चित प्रमाण है।
- ऋग्वैदिक काल के उद्योग धन्धों में लकड़हारे, धातु संबंधी काम करने वाले, चमड़ा कमाने वाले, जुलाहे और कुंभकार के उद्योग विशेष उल्लेखनीय हैं। बढई केवल रथों, गाड़ियों, घरों और नावों का ही निर्माण नहीं करते थे, बल्कि वे अपनी कला कुशलता का परिचय सुन्दर ढंग के प्यालों के बनाने में भी देते थे। धातु सम्बन्धी कार्यकर्ता विभिन्न हथियार एवं आभूषण बनाते थे। चमड़े के काम करने वाले पानी के पीपे, धनुष की डोरी, ढेलवास ओर हस्त-रक्षक (ढाल) का निर्माण करते थे।
- उत्तर वैदिक काल में लोग जिनमें धनवान् व्यक्ति (इभ्य) भी सम्मिलित थे, अभी तक अधिकतर गांवों में ही रहते थे। परंतु नागरिक जीवन की सुविधाऐं अज्ञात नहीं थीं। कुछ गांवों में जमींदार वर्ग के लोग छोटे-छोटे किसान मालिकों को हटाकर पूरे गांवों के मालिक बनते जा रहे थे। फिर भी इस काल में भूमि हस्तान्तरित करने के काम को सार्वजनिक स्वीकृति नहीं मिलती थी और भूमि विभाजन केवल सजात्य लोगों की अनुमति से ही किया जा सकता था। प्रधान पेशों में अभी भी कृषि थी, परन्तु कृषि के औजारों में पर्याप्त उन्नति हुई थी। भूमि में नये प्रकार के फल व अन्न उपजाये जाने लगे थे। किन्तु कृषक कठिनाइओं से मुक्त नहीं थे। एक उपनिषद में ओले के साथ आंधी-पानी, तुषारपात और टिड्डी-दल का वर्णन आता है, जिसने एक देश को बहुत हानि पहुंचायी और बहुत लोगों को देश त्याग के लिए विवश किया।
- व्यापार और उद्योग-धन्धों की उन्नति हुई। खानदानी व्यापारियों (वणिज) का एक वर्ग बन गया । पर्वतवासी किरातों के साथ स्थलीय व्यापार था, जो पर्वतों से खोदकर लायी हुई जडी बूटियों केा कपडों, चटाइयों और चमडों से बदलते थे। | समुद्र से लोग खूब 'परिचित थे। शतपथ ब्राहमण में उल्लिखित प्रलय की कहानी में कुछ विद्वान बेबीलोन के साथ संबंध का प्रमाण पाते हैं। निष्क, शतमान और कृष्णल जैसे मूल्य की सुविधाजनक इकाइयों से व्यवसाय की उन्नति हुई। लेकिन यह सन्देहास्पद है कि मूल्य की इन इकाइयों में नियमित सिक्कों के सब गुण मौजूद थे। वणिक् संगठित थे जैसा कि श्रेष्ठिन् के उल्लेखों से मालूम पड़ता है।
- उद्योग धन्धों सम्बन्धी वृत्तियों के भेद महत्वपूर्ण है। विशेषज्ञता अहुत आगे बढ चुकी थी। रथ बनाने वाला बढई से, धनुष बनाने वाला धनुष की डोरी और तीर बनाने वालों से और चमड़े का काम करने वाला हड्डी सजाने वाले से अलग पहचाना जाता था। स्त्रियां औद्योगिक जीवन में भाग लेती थीं। वे कसीदावाली पोशाक बनाने का काम, कांटों का काम, रंगने का काम आदि करती थीं।
वैदिक कालीन आर्थिक प्रतिरूप
वैदिक काल के सामाजिक प्रतिरूप की भांति ही आर्थिक प्रतिरूप का अध्ययन महत्वपूर्ण है, इसकी जानकारी के उपरांत आप ऋग्वेदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल में आर्यों की आर्थिक व्यवस्था के विविध प्रतिरूपों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं
1 ऋग्वैदिक कालीन आर्थिक प्रतिरूप
- आर्यों को भारत आने से पहले ही कृषि का ज्ञान था, ऋग्वेद में बुआई, कटाई, मड़ाई का उल्लेख मिलता है। उन्हें विभिन्न मौसमों या ऋतुओं का ज्ञान था। जौ प्रमुख खाद्यान्न था। 'गाय' के अनेक उल्लेख बताते हैं कि चरवाहा कबीला था। गायों के लिए युद्ध होते थे, 'गविष्ठि' जो गायों की खोज अर्थ रखता है, बाद में युद्ध के लिए प्रयुक्त होने लगा। उपहार गायों या दासों के रूप में दिये जाने के उल्लेख है। जमीन में भूमि अधिकार मान्य था । बढई, जुलाहा, चमडा कमाने वाले, कुंभकार के उल्लेख मिलते हैं। ‘अयस' (तांबा या कांसा) शब्द से धातुकार की उपस्थिति भी ज्ञात होती है।व्यापार मुख्यतः ‘पणि‘ या अनार्य व्यापारियों के हाथ में था, जिनसे आर्य ईर्ष्या करते थे। प्रमुखतः गाय मूल्य की इकाई थी और वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।
2 उत्तर वैदिक कालीन आर्थिक प्रतिरूप
- 1000 ई०पू० से गांधार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में लोहे का प्रयोग होने लगा। लोहा, श्याम या कृष्ण अयस कहा जाता था। समाज पशुचारक से कृषक हो गया। 24 बैलों वाले हल, कृषि कर्म की बढ़ोत्तरी बताता है। जनक द्वारा हल चलाने तथा बलराम को हलधर बताने वाले उल्लेख कृषि कर्म को प्रतिष्ठा प्रदान करते है | हल संभवतः लकडी के होते थे। आर्यो को उर्वरक तथा सिंचाई का ज्ञान था। जौ उत्पन्न होता था परन्तु गेहूं और चावल प्रमुख खाद्यान्न थे।
- चार प्रकार के मृणभाण्ड-लाल, काले, काले और लाल तथा धूसर प्रयुक्त होते थे। धूसर मृणभाण्ड की 315 बस्तियों से स्थाई जीवन के प्रमाण मिलते है।नगर शब्द का उल्लेख है, संभवतः हस्तिनापुर और कौशाम्बी प्राकू नगर थे ।
- समुद्र और समुद्री यात्राओं का उल्लेख मिलता है। वैश्यों ने व्यापार को अपनाया तथा भूमिधर बन गये। शूद्र जो अधिकतर अनार्य थे उन्होंने कृषि कर्म अपनाया। सोना, कांसा और तांबे के अतिरिक्त इस काल में टिन, लेड, चांदी और लोहे का उल्लेख मिलता है।विभिन्न प्रकार के घरेलू नौकर तथा प्रारम्भिक प्रकार की औद्योगिक संरचना मिलती है, जिसमें नट, भविष्य-वक्ता, बांसुरी वादक, नृत्यक के पेशों का उल्लेख मिलता है। वस्तु-विनिमय की प्रणाली विद्यमान थी, सिक्के संभवतः इस काल के अन्त में 6वीं शती ईसा पूर्व से ही प्रचलित हुए।
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