गुप्त काल को स्वर्ण काल क्यों कहा जाता है |Why the Gupta period is called the Golden Age in Hindi
गुप्त काल को स्वर्ण काल क्यों कहा जाता है
स्वर्ण युग
- भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग की संज्ञा दी जाती है। इतिहास में स्वर्ण युग उस काल को कहा जाता है जिसमें राज्य और प्रजा का चतुर्दिक विकास होता है। निस्सन्देह गुप्तकाल में भारत की बहुमुखी प्रगति हुई और अन्य राष्ट्रों के सम्मुख हमारे देश का मस्तक उन्नत हुआ। इस काल में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक विकास हुआ और प्रजा की आध्यात्मिक, मानसिक तथा भौतिक प्रगति हुई।
- डॉ. स्मिथ का कथन है, “हिन्दू भारत के इतिहास में महान् गुप्त सम्राटों का काल किसी भी अन्य काल से अधिक सौम्य तथा संतोषजनक चित्र उपस्थित करता है। साहित्य, कला तथा विज्ञान की सामान्य से कहीं अधिक उन्नति हुई और बिना किसी अत्याचार के धर्म में क्रमागत परिवर्तन सम्पादित किये गये।"
भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहे जाने के निम्नांकित मुख्य कारण हैं-
- महान् सम्राटों का युग
- राजनीतिक एकता का गुण
- शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग
- साहित्य के उत्कर्ष का युग
- वैज्ञानिक उन्नति का युग
- कला की चरमोन्नति का युग
- वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग
- धार्मिक सहिष्णुता का युग
- विदेशों में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रसार का युग
महान् सम्राटों का युग
- राजनीतिक दृष्टिकोण से गुप्तकाल महान् व्यक्तियों का युग था। इस युग में कई महान् एवं प्रतिभावान् सम्राट पैदा हुए जिन्होंने असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्द गुप्त वीर और साहसी सम्राट इसी युग में पैदा हुए थे, इन महान् व्यक्तियों ने साम्राज्य का निर्माण भी किया और उसका संगठन भी। उन्होंने समस्त भारत पर विजय करके उस पर आधिपत्य कायम किया और विदेशियों को भी भारत से खदेड़ भगाया। उनके शासनकाल में भारत की भूमि पर विदेशी शक्ति को पैर जमाने का अवसर नहीं मिला और भारत इस काल में सदैव स्वतन्त्र रहा। शासन और देश की सर्वागीण उन्नति की दृष्टि से भी गुप्त वंश के राजा महान् थे। गुप्त राजाओं ने हमेशा प्रजा का ध्यान रखा।
राजनीतिक एकता का गुण
- अशोक के मरणोपरांत भारत की एकता समाप्त हो गयी थी और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो गया था। इस विलुप्त राजनीतिक एकता को गुप्त राजाओं ने फिर से स्थापित किया और देश का संगठन किया। गुप्त राजाओं ने दिग्विजय की नीति अपनाकर भारत में एकछत्र और सार्वभौमिक सत्ता की स्थापना की; उन्होंने अपने प्रचंड पराक्रम तथा अद्भुत शौर्य के बल पर लगभग सम्पूर्ण भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँध दिया था। उनका एकछत्र साम्राज्य गुप्त सम्राटों की महत्ता का द्योतक है। इस प्रकार देश की राजनीतिक एकता की दृष्टि से भी गुप्तकाल महान् था।
शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग
- गुप्तकाल भारतीय इतिहास में शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग माना जाता है। यह एक ऐसा युग था जिसमें प्रजा को अपनी चरमोन्नति का सुअवसर प्राप्त हुआ। समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक ऐसे विशाल, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की स्थापना की थी कि वह कई शताब्दियों तक चलता रहा। इस काल में दण्ड-विधान यद्यपि मौर्य काल की तरह कठोर न था, लेकिन न्याय की उचित व्यवस्था की गई थी। यातायात के साधनों की पर्याप्त व्यवस्था करके गुप्त सम्राटों ने व्यापार को खूब प्रोत्साहन दिया। खानों तथा जंगलों के विकास का भी यत्न किया, कृषि के विकास पर भी ध्यान दिया गया और जलाशयों तथा जल-कुण्डों का निर्माण कर सिंचाई की उचित व्यवस्था की गयी।
- प्रजा के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी इस समय राज्य की ओर से प्रयास किया गया। दीन-दुखियों को सहायता मिले इसके लिए भी राज्य ने प्रयास किया। स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी। स्वायत्त शासन को इस काल में पूरा प्रोत्साहन मिला। इस कारण यह काल स्वर्णयुग माना जाता है।
साहित्य के उत्कर्ष का युग
- गुप्तकाल भारतीय इतिहास में साहित्यिक उत्कर्ष की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इस काल में साहित्य का अद्भुत विकास हुआ। कई गुप्त सम्राट स्वयं विद्वान् एवं लेखक थे और अन्य विद्वानों तथा कलाकारों का भी सम्मान करते थे। समुद्रगुप्त का नाम इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। वह काव्य एवं संगीत का बड़ा प्रेमी था। उसका दरबारी कवि हरिषेण उच्च कोटि का विद्वान् था। उसका प्रयाग स्थित प्रशस्ति लेख संस्कृत भाषा में स्तुत्य रचना है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक मन्त्री वीरसेन भी उच्च कोटि का विद्वान् था। वसुबन्धु और दिंगनाग इस काल के सुविख्यात बौद्ध विद्वान् थे और वे संस्कृत में ही लिखा करते थे।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय भी विद्या एवं विद्वानों का प्रेमी था। अनुश्रुति के अनुसार उसका दरबार नौ प्रकांड विद्वानों से सुशोभित था। वे नवरत्न के नाम से विख्यात थे। सभी के नामों का ठीक-ठाक पता नहीं है, किन्तु उनमें कालिदास का नाम सर्वोपरि है। ये काव्य तथा नाटक के क्षेत्र में अपना सानी नहीं रखते थे। संस्कृत साहित्य में इनका वही स्थान है जो अंग्रेजी साहित्य में शेक्सपियर का है।
- संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अभिज्ञानशाकुन्तलम् को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इसमें दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रेम कहानी है। दुष्यन्त एक राजा का लड़का था और शकुन्तला एक अप्सरा की लड़की थी। सभ्य विश्व की प्रायः सम्पूर्ण भाषाओं में इस नाटक का अनुवाद हो चुका है। देश-विदेश के विद्वानों ने इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। एक भारतीय विद्वान् के शब्दों में “नम्र एवं कोमल हृदय वाली वन-वासिनीं शकुन्तला से बढ़कर मृदु एवं मनोहर कल्पना मनुष्य की लेखनी से कभी नहीं निकली।" एक जर्मन महाकवि के शब्दों में "शकुन्तला वह चीज है जो यौवनावस्था में उत्पन्न हुई, अनुरागरूपी कली को प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न हुए भाव-रूपी फल से मिला देती है। यह पृथ्वी का स्वर्ग के साथ मेल कराती है। " मेघदूत भी विरह का एक उत्कृष्ट नमूना है। कालिदास की अन्य रचनाएँ भी अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं।
- कालिदास के अतिरिक्त अन्य प्रसिद्ध नाटककार एवं साहित्यकार भी हुए। शूद्रक ने मृच्छकटिकम् और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस तथा देवीचन्द्रगुप्तम् नामक नाटकों की रचना की। भट्ट ने रावण वध नामक महाकाव्य प्रस्तुत किया। गद्य के क्षेत्र में वसुबन्धु ने वास्वदत्तम लिखा और बाण ने इस पुस्तक की बहुत प्रशंसा की है। पंचतन्त्र भी उल्लेखनीय है। इसमें रोचक एवं उपयोगी कथाओं का वर्णन कर शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया है। विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। आर्थर राइडर एक पाश्चात्य विद्वान् ने पंचतन्त्र को विश्व का सर्वोत्तम कथा संग्रह माना है।
वैज्ञानिक उन्नति का युग
- गुप्तकाल में विज्ञान की भी बड़ी उन्नति हुई। गणित, ज्योतिष, वैद्यक, रसायन विज्ञान तथा धातु विज्ञान की इस युग में बड़ी प्रगति रही। इस बात के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं कि रेखागणित का अभ्यास इस युग में होता था। दशमलव भिन्न का अन्वेषण भी इसी काल में हुआ था। आर्यभट्ट नामक विद्वान् ने 'आर्य भट्टीयम' नामक ग्रन्थ की रचना इसी काल में की थी, जिसमें अंकगणित बीजगणित तथा रेखागणित तीनों की विवेचना की गई है। ज्योतिष की भी इस काल में बड़ी उन्नति हुई। आर्यभट्ट इस काल के बहुत बड़े ज्योतिषी थे। इन्होंने पुराणों तथा श्रुतियों के इस मत का खण्डन किया कि ग्रहण राहु-केतु के कारण होता है और इस बात को सिद्ध किया कि चन्द्रमा के सूर्य तथा पृथ्वी के बीच में आ जाने से ग्रहण लगता है। आर्यभट्ट ने इस तथ्य को भी सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। वराहमिहिर इस युग के दूसरे प्रतिष्ठित तथा विश्रुत ज्योतिषी थे। वैद्यक की इस काल में बड़ी उन्नति हुई और बड़े-बड़े नगरों में औषधालयों की समुचित व्यवस्था की गई थी। चरक तथा इस काल के प्रसिद्ध वैद्य थे।
कला की चरमोन्नति का युग
- गुप्तकाल में भारतीय कला का खूब विकास हुआ। वास्तुकला, शिल्पकला, मूर्ति निर्माण कला, संगीत कला आदि सभी का पर्याप्त विकास गुप्तकाल में हुआ था। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी, बौद्ध तथा हिन्दू मूर्तियाँ, मंदिर, विहार, चैत्य तथा स्तूप इस काल की श्रेष्ठता के प्रबल प्रमाण हैं। इस युग के पत्थर तथा मिट्टी के अनेक मन्दिर अथवा उनके भग्नावशेष अब भी विद्यमान हैं। इनमें जबलपुर जिले का विष्णु मन्दिर, नागौड़ का शिव मन्दिर, अजयगढ़ के पास का पार्वती मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार तथा कानपुर जिले में भीतरगाँव का मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं। भीतरगाँव का मन्दिर ईंट का है, इसकी दीवारों पर हिन्दू पौराणिक दृश्य बने हुए हैं। भारतीय स्थापत्य के इतिहास में इस मंदिर का महत्त्वपूर्ण स्थान है, विशेषकर इसकी मेहराबों के लिए। इस युग के मन्दिरों की छतें बहुधा समतल हुआ करती थीं और उनके सामने ड्योढ़ी बनी रहती थी। इस युग अन्त तक मन्दिरों पर शिखर बनाने की परिपाटी भी चल पड़ी थी। देवगढ़ के दशावतार के मन्दिर का शिखर लगभग 40 फीट ऊँचा था। आगे के युग में यह शैली विशेष रूप से विकसित हुई।
- पत्थर की चट्टानों को काटकर विहार और चैत्य बनाने की कला भारत में काफी पुरानी हो चुकी थी। इस युग में उसका और भी अधिक विकास हुआ। अजन्ता, एलोरा तथा बाघ के गुहा-विहार इसी युग में खोदे गए थे। छेनी और हथौड़े के सहारे बड़ी-बड़ी चट्टानों को काटकर इतनी सुन्दर गुफाएँ बनाना अलौकिक कलाकारों का काम था।
वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग
- गुप्त युग के राजा वैदिक सभ्यता के पोषक थे। वे आर्य सभ्यता को परम आदर से देखते थे तथा उसकी उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहा करते थे। उस समय तक वैदिक धर्म का बड़ा पतन हो चुका था। गुप्त राजाओं ने उसको अपनाकर उसमें एक नयी जान डाल दी। अश्वमेध यज्ञ कराकर गुप्त सम्राटों ने फिर से वैदिकधर्म की प्रतिष्ठा को स्थापित किया। इस काल में अनेक शैव और वैष्णव मन्दिर बने ब्राह्मणों को दान देकर तथा उनको सम्मानित करके गुप्त सम्राटों ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा फिर से स्थापित की वैदिक धर्म के साथ-साथ संस्कृत का भी विकास हुआ। इससे संस्कृत को फिर से अपना पुराना गौरव मिल गया। अब बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म वाले भी संस्कृत में ही अपने ग्रंथों की रचना करने लगे। इस प्रकार, वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति को गुप्त सम्राटों के संरक्षण में उन्नति करने का पूरा अवसर मिला।
धार्मिक सहिष्णुता का युग
- कहा जाता है कि भारतीय इतिहास में गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता, सार्वभौमिकता और सदाशयता का युग था। देश में विभिन्न धर्मावलम्बी रहते थे, लेकिन धर्म के नाम पर कभी हिंसा नहीं हुई और राजाओं ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पूरा अवलम्बन किया। गुप्तों का युग हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का युग था। इस समय के प्रायः सभी राजा-महाराजा किसी-न-किसी रूप में धर्म को ही मानते थे। ऐसी स्थिति में यदि गुप्त सम्राट चाहते तो बौद्ध धर्म का समूलोन्मूलन कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपने अपूर्व धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। उनके शासन काल में बौद्धधर्म तथा जैनधर्म दोनों को हिन्दूधर्म के साथ फूलने-फलने का अवसर दिया गया। ये तीनों धर्म उस समय भारत में साथ-साथ चल रहे थे। कश्मीर, पंजाब तथा अफगानिस्तान बौद्धधर्म के प्रमुख केन्द्र थे। भारत के अनेक स्थानों पर बौद्धधर्म अभी भी बड़ा लोकप्रिय था और उनके अनुयायियों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी थी। फिर भी, सम्पूर्ण गुप्तकाल के इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि किसी भी बौद्ध के साथ धर्म के नाम पर कोई अन्याय किया गया हो। इसके विपरीत राजा, सेठ-साहूकार, शिल्पियों के संघ आदि बौद्ध विहारों को दान देते थे और भिक्षुओं की सहायता करते थे। कुण्ड महार, बेडसा कन्हेर, जन्हार, अजन्ता-एलोरा आदि स्थानों पर बने हुए मन्दिरों, विहारों और गुफाओं के सहायतार्थ प्रचुर धनराशि दान के रूप में दिया करते थे। तमिलनाडु में कांची बौद्धधर्म का प्रधान केन्द्र था। जैनधर्मावलम्बियों के साथ भी गुप्त राजाओं का व्यवहार बड़ा सराहनीय रहा। इस काल में जैनों की एक विशाल सभा वल्लभी में की गयी थी, जिसमें जैनधर्म के ग्रन्थों की अनेक टीकाएँ और भाष्य संस्कृत भाषा में लिखे गए। इस काल में यद्यपि जैनधर्म, बौद्धधर्म, ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों में बड़ी प्रतिस्पर्धा थी, फिर भी सर्वत्र धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण छाया हुआ था।
विदेशों में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रसार का युग
- गुप्तकाल भारत के विदेशों से सम्पर्क के कारण भी इतिहास में महत्त्वपूर्ण रहेगा। बाह्य संसार के साथ भारत का सम्पर्क जितना इस युग में बढ़ा हुआ था, उतना कभी नहीं बढ़ा था। गुजरात और सौराष्ट्र के गुप्त साम्राज्य में विलय हो जाने पर यूरोपीय देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध की स्थापना हुई। गुप्त सम्राटों के राजदूत उन देशों में सम्मान प्राप्त करते थे। इस निरन्तर सम्पर्क के कारण ही सांस्कृतिक विचारों का भी आदान-प्रदान होता रहा और सांस्कृतिक उत्थान को इससे सहयोग प्राप्त हुआ। चीन, मध्य एशिया, जावा, सुमात्रा, हिन्दचीन, बोर्नियों आदि में भारतीय संस्कृति का भारी प्रसार हुआ। शताब्दियों तक वहाँ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म का प्रभाव स्थापित रहा। आज भी इन देशों में करोड़ों बौद्ध अनुयायी बने हुए हैं जिनके रीति रिवाजों, उत्सवों और त्यौहारों में भारतीयता की पुट मिली हुई स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
गुप्त काल को स्वर्ण काल कहने की समीक्षा
- इस प्रकार इस युग में कोई भी क्षेत्र ऐसा न रह गया था, जिसमें उन्नति अपनी चरम सीमा पर न पहुँच गई हो। साहित्य, कला, विज्ञान, धर्म, समाज, संस्कृति, व्यापार, उद्योग धन्धे कृषि, शासन व्यवस्था और विदेशों के साथ सम्पर्क आदि सभी क्षेत्रों में महान् प्रगति हुई थी। गुप्त सम्राटों के उदार दृष्टिकोण, कला प्रेम और संस्कृति के संरक्षण ने इसमें बहुमुखी प्रतिभा का उदय किया था। इन्हीं कारणों से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है।
किन्तु कुछ ऐसे भी तत्व मौजूद थे जो इस युग के महत्त्व को कम करते हैं।
- समाज, अर्थव्यवस्था, प्रशासन तथा सेना का स्वरूप सामन्तवादी था।
- अनेक इतिहासकारों के मत में कुषाणों का काल गुप्तों की अपेक्षा अधिक समृद्धि का काल था। पुन: गुप्तकालीन समृद्धि केवल उत्तर भारत तक ही सीमित थी।
- दक्षिण में तो गुप्तोत्तर काल में प्रगति देखने को मिलती है।
- यह सत्य है कि गुप्तकाल हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का काल था, किन्तु साथ ही यह बौद्ध धर्म के पतन का भी काल था।
- अत: गुप्त युग को स्वर्णकाल न कहकर प्रगति का काल कहना अधिक उचित होगा। वैसे भी स्वर्ण युग एक पौराणिक कल्पना है।
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फाहियान ( 399-411 ई.) का विवरण
फाहियान के अनुसार की भारत की सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक दशा
कुमारगुप्त ( 415 से 455 ई. तक )
स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ( 455-467 ई. लगभग )
पुरुगुप्त | कुमारगुप्त द्वितीय | बुद्धगुप्त | अंतिम गुप्त शासक
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था | गुप्त कालीन केन्द्रीय शासन
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